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बुर्जुगों की मौत से पहले मनाया जाता है जश्‍न, होता है त्‍यौहार जैसा माहौल


 

विभिन्न विविधताओं से भरे भारत में कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक कई सारे त्योहार और अगल-अलग मौकों पर जश्न मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है.

कुछ ऐसी परंपराएं हैं, जिससे हम वाकिफ हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी परंपराएं हैं, जिसके बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं है.

कारगिल इलाके में ऐसे चार गावों है जहां इस कबीले के लोग बस्ते है जिन्हें करगिली आर्यन कहा जाता है. यह गावों है दाह, हनु, घरकों और दारचिक है. जहां भारतीय उप महादीप के आर्यन जाति के लोग रहते हैं. इतिहासकार कहते हैं यह लोग दक्षिण एशिया से आए हैं और इलेक्ज़ैंडर बादशा के सेना के परिवार है जो यहां बेस है. 

नए दौर में यह उत्सव इस कबीले में रुक गया था मगर इस बार कुछ दिन पहले करीब पचास सालों के बाद इस परंपरा को फिर इस कबीले के लोगों ने ज़िंदा किया. पारंपरिक कपडे पहने पूरे गावों के लोग ईकठा हुवे और दावत देने वाले बुज़र्गो को जीवन यात्रा सकुशल सम्पन करने के लिए बधाई दी.

बुजुर्गों के लिए मनाए जाने वाले इस जश्न को यटरा उत्सव कहा जाता है. इस उत्सव को उन लोगों के लिए मनाया जाता है, जो अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा जी चुके होते हैं. इन लोगों के पूर्वज यह मानते थे कि अब उनके जीवन कार्य पूरे हो चुके है और संसार छोड़ने का समय आ गया है तब यह लोग जीवन यात्रा के आखरी समय पर सब को दावत पर बुला कर उनसे भेंट कर उनका शुक्रियाअदा करते है कि उन्हों ने इनका पुरे जीवन साथ दिया.

लद्दाख के रहने वाले आर्यन लोगों का जिन को ब्रोख्पा कहा जाता है. लद्दाख क्षेत्र के कारगिल ज़िले से करीब 70 किलोमीटर दूर बटालिक सेक्टर के दारचिक गांव में यह महोत्सव हुआ. दो दिन तक पूरे गांव में नाच गाने के साथ साथ दावतों का माहोल बना रहा.

दरअसल, इस गांव के लोगों का कहना है कि बच्चे के जन्म लेने के बाद हर कोई जश्न मनाता है, लेकिन अपने बुजुर्गों के जाने पर कोई जश्न नहीं मनाता है. गांव में दो दिन तक चलने वाले इस महोत्सव में युवाओं से लेकर बच्चों तक ने हिस्सा लिया.

कुछ ऐसी ही अनोखी परंपरा है, लद्दाख के एक गांव की. इस गांव में रहने वाला आर्यन कबीला घर के बुजुर्गों के लिए अंतिम क्षणों में जश्न मनाते हैं. बुजुर्गों के चेहरे पर मुस्कान लाने वाला यह जश्न कोई छोटा नहीं बल्कि एक त्योहार की तरह मनाया जाता है.

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