यहॉं 100 सालों से लगातर बन रहा है गेहूँ का ताजिया
नाजिया इमामबाड़ा साहबगंज में तीसरी मोहर्रम से बन रही गेहूं की ताजिया मुकम्मल हो गई है। गुरुवार (नौवीं मुहर्रम) को दोपहर 3 बजे से इस ताजिया की जियारत शुरू हो जाएगी। इस ताजिया के निमार्ण में करीब 25 किलोग्राम गेहूं के दानें इस्तेमाल किए गए हैं।
गेहूं की ताजिया कारीगरी और विज्ञान के उम्दा मेल से संभव होती है। 100 साल से इस ताजिया का निमार्ण तीसरी मोहर्रम से शुरू होता है। नौवीं मोहर्रम को जियारत होती है। आठ फीट ऊंची इस ताजिया के निर्माण में इमामबाड़ा के मुतवल्ली हाजी जान मोहम्मद के मुताबिक बांस का एक ढांचा तैयार कर कपड़ा चढ़ाया जाता है। उसके बाद गेहूं के दानों को एक खास पदार्थ से बांस पर सेट किया जाता है। उसके बाद हरे रंग का कपड़ा चढ़ाया जाता है। हर दो घंटे में इस ताजिया को पानी और लोहबान का धुंआ मिलता है। हर दो घंटे बाद गेहूं की ताजिया में परिवर्तन मिलता है। अन्य ताजियों को बनाने में काफी समय लगता है वहीं यह ताजिया महज 5 दिनों में जनता दर्शन के लिए मुकम्मल हो जाती है। जान मोहम्मद बताते हैं कि इसमें मिट्टी का प्रयोग नहीं होता। कुछ लोगों ने इसकी नकल करने की कोशिश की लेकिन बना नहीं पाए।
हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का भी नमूना भी
सैकड़ों वर्षों से बन रही यह यह ताजिया हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का नमूना भी है। इस इमाम चौक के किरायेदार मरहूम केसरीचंद के पुत्र विनोद मोहर्रम शुरू होते ही अपना कारोबार समेट इसमें 13 दिन तक सहयोग करते है। उनकी किराने की दुकान है। यहां प्रत्येक धर्म के लोग आते है और मन्नतें मानते है। मन्नतें पूरी होने पर चांदी का पंजा, चांदी की आंख और छोटी ताजिया चढ़ाते है। इमाम हुसैन उनके जानिंसारों के इसाले सवाब के लिए फातिहा ख्वानी होती है। इस ताजिया को मुहर्रम की दसवीं तारीख को राप्ती में प्रवाहित कर दी जाती है। इसे लोग इको फ्रेंडली ताजिया भी कहते है।