जिस्मफरौशी में जबरन धकेली गई महिला ने मांगी प्रधानमंत्री मोदी से मदद
बांग्लादेश की एक गार्मेंट फ़ैक्ट्री में नौ हज़ार रूपए के मासिक वेतन पर काम करने वाली तलाक़शुदा महिला आयशा (बदला हुआ नाम) को उनके ही एक सहकर्मी ने भारत में अच्छी नौकरी का लालच दिया था.
उस व्यक्ति पर भरोसा कर, बिना माँ-बाप को बताए, दलाल के माध्यम से वो मुंबई पहुँचीं, मगर वहाँ उनके ही सहकर्मी ने मात्र 50 हज़ार रूपए में उन्हें एक नेपाली औरत को बेच दिया, जो एक वेश्यालय चलाती थी.
फिर आयशा को जबरन देह-व्यापार करना पड़ा, और मुंबई से बेंगलुरु तक अलग-अलग शहरों में देह-व्यापार के अड्डों से होती हुई, अलग-अलग लोगों के चंगुलों में फँसने के बाद, अंततः उनका ठिकाना बना पुणे का रेड लाइट इलाक़ा.
वहीं से कुछ दिनों पहले पुणे शहर की पुलिस ने उन्हें छुड़ाया और एक ग़ैर-सरकारी संस्था के सुपुर्द कर दिया. इस संस्था के लोगों ने ही मुंबई में बांग्लादेशी उच्चायोग से जुड़े दफ़्तर के साथ संपर्क किया और आयशा के घरवालों का नाम-ठिकाना बताया.
जल्दी जाँच-पड़ताल पूरी हुई और आयशा को उनके देश वापस भेजने की व्यवस्था और तैयारी की गई. अगर सब कुछ ठीक रहा तो वो 15 मई को बांग्लादेश लौट भी जाएँगी.
आयशा की अभी तक की कहानी अभी तक बांग्लादेश की दूसरी हज़ारों असहाय नारियों की तरह ही लगती है - जो अच्छे काम की तलाश में भारत आती हैं और एक अंधेरी ज़िंदगी में फँस जाती हैं.
मगर आयशा की कहानी में एक मोड़ है - और वो ये कि भारत से बांग्लादेश लौटने से पहले उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक मर्मस्पर्शी चिट्ठी लिखी.
उसमें लिखा है कि उन्होंने भारत में अपने ग्राहकों से टिप में मिले कुछ पैसे बचा रखे हैं, मगर उनमें से अधिकतर पाँच सौ और हज़ार रुपए के पुराने नोट हैं, जो रद्द हो गए हैं. अत्यंत कष्ट और कलंक उठाकर कमाए गए उनके कुछ हज़ार रूपयों को यदि प्रधानमंत्री मोदी बदलवा दें, तो वो उनकी कृतज्ञ रहेंगीं.
इस भावुक चिट्ठी का रेस्क्यू फ़ाउंडेशन की रूपाली शिभारकर ने हिन्दी में अनुवाद किया, फिर हाथ से लिखी उस चिट्ठी को आयशा की ओर से प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ट्वीट कर दिया गया.
मोदी और सुषमा नियमित रूप से अपने ट्वीट चेक करते हैं, और सुषमा स्वराज तो अक्सर मुश्किल में फंसे लोगों की मदद करती रही हैं, इसी उम्मीद से आयशा ने चिट्ठी लिखी.
उनकी इस चिट्ठी पर भारत के कई समाचार माध्यमों ने रिपोर्ट की. रेस्क्यू फ़ाउंडेशन की प्रमुख त्रिवेणी आचार्य ने बीबीसी को बताया,"हमने जब पुलिस की मदद लेकर आयशा को बचाया, तो उसे एक कपड़े में उस इलाक़े से बाहर लाना पड़ा. उसके बाद कोर्ट-कचहरी-दूतावास की भागदौड़ के कारण उन्हें वहाँ से अपना सामान लाने का मौक़ा ही नहीं मिला."
"बाद में उसने जब बताया कि उसने कुछ पैसे छिपाकर रखे हैं, तो हम दोबारा वहाँ गए और एक ट्रंक के भीतर कपड़ों के बीच छिपाकर रखे गए 12-13 हज़ार रूपयों को बरामद किया."
चिट्ठी में आयशा ने बताया- ''बैंगलुरू के रेड लाइट एरिया में काम करते समय कोठे के मालिक हाथ में एक भी पैसा नहीं देते थे. मगर ग्राहक ख़ुशी से जो टिप देते थे, वो पेटीकोट के भीतर किसी तरह छिपाकर रख लेती थी, इनमें अधिकतर पाँच सौ और हज़ार रूपए के नोट थे.''
नोटबंदी का असर
लेकिन 31 दिसंबर को नोट बदलने की समयसीमा समाप्त होने के बाद उनके ये पैसे बेकार हो गए. पुणे के कटराज घाट स्थित रेडलाइट इलाक़े से आयशा को बाहर निकालने में शहर की पुलिस कमिश्नर रश्मि शुक्ला ने व्यक्तिगत दिलचस्पी ली थी.
वो कहती हैं, "इस असहाय बांग्लादेशी लड़की के इतने कष्ट से कमाए गए पैसों के बर्बाद होने की बात सोचकर बहुत बुरा लग रहा है. उसकी चिट्ठी के बाद शायद केंद्र सरकार कुछ मदद करे. लेकिन अगर वो नहीं भी हो पाया, तो हम ये प्रयास करेंगे कि उसके बांग्लादेश लौटने से पहले उसे कुछ आर्थिक मदद दी जा सके."
दस हज़ार रुपए शायद कई लोगों के लिए कोई बहुत बड़ी रकम ना हो, मगर आयशा के लिए उनका मोल बहुत ज़्यादा है.
और अगर उनकी वापसी से पहले भारत सरकार उनके नोटों को बदल सके, तो ये ना केवल आयशा के लिए आर्थिक मदद भर होगी, बल्कि ये उनकी आगे की ज़िंदगी के लिए एक अमूल्य स्मृति बनकर भी रह जाएगी.