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दीये मुंडेर पर ही नहीं, घट में भी जलने चाहिए



 -ललित गर्ग-

दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है जब भीतर का अंधकार दूर हो। दीया घर की मुंडेर पर ही नहीं, घट में भी जलाने की जरूरत है। अंधकार जीवन की समस्या है और प्रकाश उसका समाधान। जीवन जीने के लिए सहज प्रकाश चाहिए। प्रारंभ से ही मनुष्य की खोज प्रकाश को पाने की रही। असली प्रकाश मनुष्य के घट यानी हृदय में ही है, उसे पाने के लिये बाहर नहीं, भीतर की यात्रा करनी होगी। हमारे मनीषियों ने हमारी संस्कृति में ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का संबोध दिया है। हर वर्ष  इसी संबोध को जीवंतता देने के लिए दीवाली जैसे पर्व की व्यवस्था प्रचलित है।। अंग्रेजी में एक कहावत है कि ‘हम घोड़े को पानी तक ले जा सकते हैं, पर उसे पानी पिला नहीं सकते।’ पानी तो घोड़े को स्वयं ही पीना होता है और वह पीने को तैयार नहीं दिखता। हम मनुष्यों की भी यही स्थिति है। प्रकाश का घट हमारे पास होते हुए भी हम अंधकार को ही जीते हंै।
यह अंधकार वास्तव में, अज्ञान, अंधविश्वास और अपसंस्कृति का अंधकार है। दूसरी ओर प्रकाश से तात्पर्य मुख्यतः ज्ञान, पवित्रता, संस्कार और विवेक के प्रकाश से लिया जाता है। ऐसे में, आज मानव जाति विज्ञान, तकनीकी, विचार, दर्शन आदि से हर तरह से इतना समर्थ है कि दुनिया से अज्ञान, अपराध, आतंक, अपसंस्कृति और अंधविश्वास को समाप्त किया जा सकता है। पर आज निहित स्वार्थों के कारण योजना और षडयंत्र के तहत ज्ञान-विज्ञान का इस तरह इस्तेमाल किया जा रहा है कि लोगों में रूढ़िवादिता और अंधविश्वास बना रहे, हिंसा एवं अपराध बढ़ते रहे, अत्याचार एवं क्रूरता छायी रहे, संकीर्णता एवं स्वार्थ पनपते रहे।
अंधकार हमारे अज्ञान का, दुराचरण का, दुष्टप्रवृत्तियों का, आलस्य और प्रमाद का, बैर और विनाश का, क्रोध और कुंठा का, राग और द्वेष का, हिंसा और कदाग्रह का अर्थात अंधकार हमारी राक्षसी मनोवृत्ति का प्रतीक है। जब मनुष्य के भीतर असद् प्रवृत्ति का जन्म होता है, तब चारों ओर वातावरण में कालिमा व्याप्त हो जाती है। अंधकार ही अंधकार नजर आने लगता है। मनुष्य हाहाकार करने लगता है। मानवता चीत्कार उठती है। अंधकार में भटके मानव का क्रंदन सुनकर करुणा की देवी का हृदय पिघल जाता है। ऐसे समय में मनुष्य को सन्मार्ग दिखा सके, ऐसा प्रकाश स्तंभ चाहिए। इन स्थितियों में हर मानव का यही स्वर होता है कि-प्रभो, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। बुराइयों से अच्छाइयों की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। इस प्रकार हम प्रकाश के प्रति, सदाचार के प्रति, अमरत्व के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हुए आदर्श जीवन जीने का संकल्प करते हैं।
प्रकाश हमारी सद् प्रवृत्तियों का, सद्ज्ञान का, संवेदना एवं करुणा का, प्रेम एवं भाईचारे का, त्याग एवं सहिष्णुता का, सुख और शांति का, ऋद्धि और समृद्धि का, शुभ और लाभ का, श्री और सिद्धि का अर्थात् दैवीय गुणों का प्रतीक है। यही प्रकाश मनुष्य की अंतर्चेतना से जब जागृत होता है, तभी इस धरती पर सतयुग का अवतरण होने लगता है।
 प्रकाश तो आदिकाल से है, पर उस समय वानर से नर बना मनुष्य जानवर की ही तरह जीवन व्यतीत करता था। प्रकाश का वास्तविक अवतरण तो उस समय माना गया जब उसकी समझ बढ़ी, उसमें करूणा जागी, संवेदनाएं पैदा हुई, तभी उसने सभ्यता और मानव संस्कृति का विकास किया और तमसो मा ज्योतिर्गमय उसी ओर यात्रा की आकांक्षा है। इस प्रकार का आविर्भाव और विस्तार जब से हुआ, तब से मनुष्य ने चातुर्दिक अनंत यात्राएं शुरू कर दी हैं।
असल में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने के लिए केवल प्रकाश जरूरी नहीं है। अगर जाने वाले में आत्मविश्वास ही न हो और वह नियतिवादी हो, तो वह अंधकार को ही अपनी नियति मानकर, उसी में मर-खप जाता है। इस बात का महत्व हम बहुत-सी बातों की तरह अपने मिथकों के माध्यम से भी समझ सकते हैं। सीताहरण के बाद, सीता की तलाश में राम अपने दल-बल के साथ रावण की लंका तक पहुंचना चाहते हैं। रास्तें में समुद्र आ गया। सभी हताश हो गए। कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था। निराशा ही निराशा के बादल छाये हुए थे, तभी जामवंत मुंह लटकाए बैठे हनुमान के पास जाकर कहा कि भाई सभी हताश बैठे हैं, पर आप भी? आपको याद नहीं कि आपने एक बार सूर्य को भी लील लिया था? जामवंत द्वारा आत्म साक्षात्कार कराए जाने पर हनुमान में आत्मविश्वास जागा और गरजकर उन्होंने ‘भूधराकार’ शरीर धारण कर लिया। हम जानते हैं कि उन्होंने समुद्र पारकर सीता से भेंट कर ली और बाद में लंकापति रावण पराजित भी किया। जरूरत आत्मविश्वास को जगाने की है। दीपावली का यह पर्व इसी आत्मविश्वास की ज्योति को जगाने का अवसर है।
अधिकतर लोग सिर्फ धन अर्जन को ही सफलता मान लेते हैं और इसी कारण जीवन का रोमांच, उमंग और आनंद उनसे दूर चला जाता है, जबकि गुणों को कमाने वाले लोगों के पास धन एक सहज परिणाम की तरह चला आता है। इसी में शोहरत भी अप्रयास मिल जाती है। साधारणता में ही असाधारणता फलती है। जड़ को सींचने से पूरे पौधे में फल-फूल आते हैं, जबकि टहनियों को भिगोते रहने से जड़ के साथ ही टहनियां भी सूख जाती हैं। आप बांसुरी बजाते हों, नाचते हों, गाते या लिखते हों, खेती-बाड़ी करते हों या भेड़-बकरियां चराते हों- आप जितने बेहतर तरीके से किसी भी काम को करते हों, उतने ही बेहतर परिणाम आपको मिलने लगते हैं। आपकी असंतुष्टि का स्तर भी ऊंचा उठता है और आप श्रेष्ठतर की यात्रा पर रहते हैं। यही नहीं, उतने ही बेहतर गुणग्राहक आपके पास ंिखंचे चले आते हैं। अच्छा हलवाई कही नहीं जाता, अच्छा टेलर, अच्छा डाॅक्टर, वकील को कहीं जाना नहीं पड़ता, खरीददार या उन सेवाओं को लेने वाले ही उनके पास चले आते हैं। अतः अपनी क्षमताओं और गुणवत्ता को कभी कमतर नहीं आंकना चाहिए। हमारी कमजोेर मानसिकता का ही परिणाम है कि चीन को पानी पी-पीकर गाली देने वाले भी चीन में बनी गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों की पूजा करते हैं और दीप जलाने के बजाय चीन में बनी सस्ती झालरें लटका प्रकाश पर्व की फर्ज अदायगी पूरी कर लेते हैं।
दीपावली का अवसर हमें एक बार फिर स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की प्रेरणा दे रहा है। अपना सर्वश्रेष्ठ बनाना और बांटना। सिर्फ सामान नहीं, बल्कि अपनी मौजूदगी भी। आप चल रहे हों, गा रहे हों, बांसुरी बजा रहे हों या बतिया रहे हों, उससे यदि लोगों को खुशी मिलती है तो यह आपका बहुत बड़ा दान है एवं स्वयं की स्वतंत्र पहचान है। प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक अखंड ज्योति जल रही है। उसकी लौ कभी-कभार मद्धिम जरूर हो जाती है, लेकिन बुझती नहीं है। उसका प्रकाश शाश्वत प्रकाश है। वह स्वयं में बहुत अधिक देदीप्यमान एवं प्रभामय है। इसी संदर्भ में महात्मा कबीरदासजी ने कहा था-‘बाहर से तो कुछ न दीसे, भीतर जल रही जोत’।
जो महापुरुष उस भीतरी ज्योति तक पहुँच गए, वे स्वयं ज्योतिर्मय बन गए। जो अपने भीतरी आलोक से आलोकित हो गए, वे सबके लिए आलोकमय बन गए। जिन्होंने अपनी भीतरी शक्तियों के स्रोत को जगाया, वे अनंत शक्तियों के स्रोत बन गए और जिन्होंने अपने भीतर की दीवाली को मनाया, लोगों ने उनके उपलक्ष में दीवाली का पर्व मनाना प्रारंभ कर दिया।
भगवान महावीर का निर्वाण दिवस-दीपावली, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का आसुरी शक्तियों पर विजय के पश्चात अयोध्या आगमन का ज्योति दिवस-दीपावली, तंत्रोपासना एवं शक्ति की आराधक माँ काली की उपासना का पर्व-दीपावली, धन की देवी महालक्ष्मी की आराधना का पर्व-दीपावली, ऋद्धि-सिद्धि, श्री और समृद्धि का पर्व-दीपावली, आनंदोत्सव का प्रतीक वात्सायन का शंृगारोत्सव-दीपावली, ज्योति से ज्योति जलाने का पर्व-दीपावली। पर्व एक पर्याय अनेक-दीपावली के इस पर्व का प्रत्येक भारतीय उल्लास एवं उमंग से स्वागत करता है। यह पर्व हमारी सभ्यता एवं संस्कृति की गौरव गाथा है। प्रत्येक भारतीय की रग-रग में यह पर्व रच-बस गया हैं
दीपावली का पर्व ज्योति का पर्व है। दीपावली का पर्व पुरुषार्थ का पर्व है। यह आत्म साक्षात्कार का पर्व है। यह अपने भीतर सुषुप्त चेतना को जगाने का अनुपम पर्व है। यह हमारे आभामंडल को विशुद्ध और पर्यावरण की स्वच्छता के प्रति जागरूकता का संदेश देने का पर्व है।
हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है तब भीतर और बाहर दोनों आलोकित हो जाते हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वतः समाप्त हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता केवल भीतर के अंधकार मोह-मूच्र्छा को मिटाने के लिए ही नहीं, अपितु लोभ और आसक्ति के परिणामस्वरूप खड़ी हुई पर्यावरण प्रदूषण और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी जरूरी है।
आतंकवाद, भय, हिंसा, प्रदूषण, अनैतिकता, ओजोन का नष्ट होना आदि समस्याएँ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य के सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आखिर इन समस्याओं का जनक भी मनुष्य ही तो है। क्योंकि किसी पशु अथवा जानवर के लिए ऐसा करना संभव नहीं है। अनावश्यक हिंसा का जघन्य कृत्य भी मनुष्य के सिवाय दूसरा कौन कर सकता है? आतंकवाद की समस्या का हल तब तक नहीं हो सकता जब तक मनुष्य अनावश्यक हिंसा को छोड़ने का प्रण नहीं करता।
दीपावली पर्व की सार्थकता के लिए जरूरी है, दीये बाहर के ही नहीं, दीये भीतर के भी जलने चाहिए। क्योंकि दीया कहीं भी जले उजाला देता है। दीए का संदेश है-हम जीवन से कभी पलायन न करें, जीवन को परिवर्तन दें, क्योंकि पलायन में मनुष्य के दामन पर बुजदिली का धब्बा लगता है, जबकि परिवर्तन में विकास की संभावनाएँ जीवन की सार्थक दिशाएँ खोज लेती हैं। असल में दीया उन लोगों के लिए भी चुनौती है जो अकर्मण्य, आलसी, निठल्ले, दिशाहीन और चरित्रहीन बनकर सफलता की ऊँचाइयों के सपने देखते हैं। जबकि दीया दुर्बलताओं को मिटाकर नई जीवनशैली की शुरुआत का संकल्प है।

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