राजा महाकाल राजसी ठाट-बाट से उज्जयिनी में अपनी प्रजा का हाल जानने निकलेंगे
-द्वारकाधीश चौधरी
उज्जैन । ज्योतिर्लिंग श्री महाकाल पृथ्वी लोक के अधिपति अर्थात राजा हैं, देश के बारह ज्योतिर्लिंगांे में श्री महाकाल एक मात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग हैं जिसकी प्रतिष्ठा पूरी पृथ्वी के राजा और मृत्यु के देवता श्री महाकाल के रूप में की गई हैं। महाकाल का अर्थ समय और मृत्यु के देवता दोनों रूपों में लिया जाता हैं। कालगणना में शंकु यंत्र का महत्व माना गया हैं। मान्यता है कि पृथ्वी के केन्द्र उज्जैन में उस शंकु यंत्र का स्थान श्री महाकालेश्वर का लिंग हैं। इसी स्थान से पूरी पृथ्वी की कालगणना होती रही। पृथ्वी के नाभी केन्द्र पर स्थित दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है जो दुनिया का एक मात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग माना जाता है। तंत्र की दृष्टि से भी इस दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग का बड़ा महत्व हैं। इन्हीं वैशिष्ठ्यों के कारण श्री महाकाल का वैदिक मंत्रों से जप-अनुष्ठान-अभिषेक करने पर त्वरित और निश्चित फल मिलता हैं।
महाकाल का आंगन 33 करोड़ देवता का घर हैं, धरती का प्रत्यक्ष वैकुंठ, साक्षात् शिवलोक, हनुमान, शिव, देवी, नवग्रह, शनि, राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नृसिंह, प्रहलाद, नागचंद्रेश्वर, औकारेश्वर, गणेश आदि देवताओं के मंदिरों से विभूषित यह परिसर आध्यात्मिक अनुभूति का पावन आंगन हैं। विश्व में संभवतः श्री महाकाल मंदिर अकेला मंदिर है जिसके परिसर में इतने देवी-देवताओं के मंदिर हैं। दो किलोमीटर क्षेत्र में फैला परिसर भारत में और किसी ज्योतिर्लिंग का नहीं हैं।
भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक उज्जयिनी में हैं। श्री महाकाल की नगरी में महाकाल के अतिरिक्त 84 महादेव का भी महत्व है। एक तीर्थ के रूप में अनेक नगरियों की अपनी-अपनी मान्यता हैं, विश्वास है परंतु उज्जयिनी सहीं मायने में तीर्थों का तीर्थ हैं। महाकालेश्वर भगवान की प्राण प्रतिष्ठा यही हुई हैं। ऐसी भी मान्यता है कि महाप्रलय के बाद मानव सृष्टि का आंरभ इसी पावन भू-भाग से हुआ हैं। महाकाल तीर्थ क्षेत्र को केदारनाथ और काशी से भी अधिक महत्वपूर्ण माना गया हैं। सर्वाधिक पुण्यमय भूमि, पापनाशी, अलौकिक शांति और मनोवांछित फल देने में इस क्षेत्र की महत्ता मान्य हैं। उज्जयिनी धार्मिक, सांस्कृतिक नगरी एक आध्यात्म प्रधान नगर हैं। यहां द्वादश ज्योंतिर्लिंगों में से एक भगवान महाकाल का विशाल मंदिर, सिद्धपीठ हरसिद्धि, सिद्धवट, भर्तृहरि की अलौकिक गुफाएं, मंगलनाथ जहां से कर्क रेखा निकली आदि दर्शनीय स्थल हैं।
महाकाल का एक मात्र मंदिर होने के कारण भी इस स्थान का महत्व अधिक है। कहा जाता है कि यहां से चार कोस तक का ईलाका राजाओं के परिवार का नाश करने वाला है। इस इलाके में केवल राजा महाकाल का ही शासन चलता है, पूर्व में तो कोई पगड़ी धारी, मुकुटधारी राजा-महाराज उनके क्षेत्र में बिना इजाजत के कदम नहीं रखते थे ।
बारह ज्योतिंर्लिंगों में श्री महाकालेश्वर ज्यातिर्लिंग का बड़ा महत्व है किसी भी ज्योतिर्लिंग में प्रातः भस्मार्ती नहीं होती है। एक मात्र ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर मंदिर ही हैं जहां प्रातः भस्मार्ती होती है। प्रातः स्मरणीय भोलेशंकर चैदह ब्रह्माण और मोक्ष के मालिक हैं, इनके प्रातः स्मरण करने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
किसी देश का राजा अगर अपनी प्रजा की परवाह करने लगे तो वहां की प्रजा कभी दुःखित नहीं रह सकती हैं। प्रजा में हिन्दू , मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी धर्म के रहने वाले व्यक्ति होते हैं। वहां कभी अकाल, सूखा, भूखमरी जैसी नौबत नहीं आएंगी। राजाधिराज महाकाल पूरी पृथ्वी के पालक और अपनी प्रजा के रक्षक हैं। राजा जब शहर में अपनी प्रजा को देखने निकलते हैं तो प्रजा राजा के निकलने वाले मार्ग को दुल्हन की तरह सजाती है और उनके स्वागत के लिए पुष्प से पलक-पावड़े बिछा देती हैं तथा उनकी एक झलक देखने को आतुर रहती हैं।
पौराणिक मान्यता है कि राजा श्री महाकालेश्वर की सवारी सावन भादौ माह, कार्तिक माह, दशहरा एवं कृष्ण पक्ष की चौदस को हरिहर मिलन पर निकलती हैं, हरिहर मिलन को सवारी छत्रीचैक स्थित द्वारकाधीश मंदिर में रात्रि बारह बजे पहुंचती हैं, और वहां पर हरि (कृष्ण), हर (महादेव) मिलन होता हैं। राजा महाकालेश्वर की सवारी राजसी ठाट-बांट से निकलती है। पूर्व सिंधिंया राज में जब राजा श्री महाकालेश्वर की सवारी निकलती थी तब प्रत्येक सवारी के साथ प्रशासकीय अधिकारी, कर्मचारी अपनी-अपनी यूनिफार्म में सवारी के साथ पैदल चलते थे, साथ ही प्रत्येक सवारी में पचास से सौ, सफेद घोड़े या काले रंग के होते थे एवं सरकारी बैण्ड अपनी साज सज्जा के साथ होता था, किंतु अब उसमें कमी आई है। पूर्व में सवारी के साथ याने राजा की पालकी के आगे मशालची, ध्वज, चौपदार, नगाड़े एवं छत्र चलता था, किंतु अब आधुनिक युग आने के कारण मशालची, ध्वज और नगाड़े नहीं चलते हैं। पहले सवारी का व्यापक स्वरूप नहीं होता था। प्रचार-प्रसार का अभाव था, श्रद्धालुओं की इतनी भीड़ नहीं उमड़ती थी और सीमित साधनों के कारण मात्र राजा की पालकी एवं सवारी मार्ग में अंधेरा होने के कारण गैस बत्ती में सवारी निकलती थी। तब शहर की जनता ही सवारी के दर्शन करती थी।
भगवान श्री महाकालेश्वर की शाही सवारी निकलने के पूर्व महाकाल मंदिर मंे अपरान्ह तीन बजे श्री चंद्रमोलेश्वर बाण की पूजा श्री चंद्रमोलेश्वर मुखौटा के सामने रखकर षोडश मंत्रों से पूजा शासकीय पुजारी घनश्याम गुरू के द्वारा की जाती हैं। ध्यान, आव्हान, आसन, पाद्य, स्नान, पंचामृत, चंदन, अक्षत, अबीर, गुलाल, यज्ञोपवित, धूप, दीप, नैवेद्य, आरती, मंत्र, पुष्पांजलि, प्रसाद के साथ चाँदी की बनी हुई श्री चंद्रमोलेश्वर की आकृति में प्रतिष्ठा करा देने के पश्चात मुखौटे को पालकी में विराजमान करके शाही सवारी अपरान्ह चार बजे कड़ाबीन की आवाज एवं चैपदार के द्वारा राजा की सवारी के आगाह के साथ गुदरी, पानदरीबा, कहारवाड़ी होती हुई रामघाट पहुंचती हैं, जहां रामघाट स्थित शिप्रा नदी के तट से शिप्रा के अमृतमयी जल से राजा महाकाल की पूजा की जाती है तथा दत्त अखाड़ा घाट से जूना अखाड़े के पीर महंत द्वारा पूजा-अर्चना की जाती हैं। पश्चात सवारी दानीगेट, कार्तिक चैक, ढाबा रोड़, टंकी चैक, मिर्जा नईम बेग मार्ग, तेलीवाड़ा, कंठाल सराफा, छत्रीचैक, पटनी बाजार होती हुई महाकाल पहुंचती हैं।
दो कि.मी. से भी अधिक लंबी सवारी में पालकी के आगे तोपची, घुड़सवार पुलिस, स्काउट्स, सेवादल विशेष वेशभूषा में रहते हैं, पंडित भजन, मंडली झांझ, मझीरा, शंख, बिगुल, डमरू बजाते जोर शोर से गाते बजाते जाते हैं। श्री महाकालेश्वर की शाही सवारी 29 अगस्त सोमवार को महाकाल मंदिर से अपरान्ह चार बजे षोडस मंत्रों से पूजा अर्चना के पश्चात राजा श्री चंद्रमोलेश्वर की आकृति में प्रतिष्ठा करा देने के पश्चात मुखौटे को चांदी की पालकी में विराजमान करते हैं। पालकी के अलावा रथ पर सवार गरूड़ की प्रतिमा के ऊपर शिव की तांडव करती प्रतिमा, रथ पर सवार नंदी पर विराजमान उमा महेश की प्रतिमा, रथ पर घटाटोप एवं अहिल्या का मुखौटा एवं हाथी पर मनमहेश की प्रतिमा होती हैं। सवारी के दिन दूर-दराज से लाखों श्रद्धालु अत्यधिक भीड़ के बावजूद पालकी में विराजमान राजाधिराज भगवान श्री महाकालेश्वर की एक झलक देखने को आतुर रहते हैं। सारा शहर ‘हर हर महादेव’, ‘उज्जैन में आनंद भयो-जय महाकाल की’, ‘भोले शंकर भोले नाथ’, ‘ऊँ नमः शिवाय’ के नारों से शहर शिवमय हो जाता है। सवारी की करीब दो सौ से भी अधिक स्थानों पर पूजा अर्चना की जाती हैं। सवारी रात्रि 11 बजे पहुंचती हैं, पश्चात महाकाल में शयन आरती होती हैं।