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अब नहीं दहाड़ पाते कार्टूनिस्ट !


कीर्ति राणा , वरिष्ठ पत्रकार

कार्टूनिस्ट के नाम
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राजेंद्र धोड़पकर 
संदीप अध्वर्यु 
पवन टूंस 
मनोज सिन्हा 
अभिषेक तिवारी 
इस्माइल लहरी 
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इंदौर। दशकों पहले दैनिक अखबारों में कार्टून का नियमित प्रकाशन होता था। उस जमाने में एक पॉकेट कार्टून पूरे अखबार की न सिर्फ पहचान होता था बल्कि पूरे अखबार में सबसे भारी रहता था।तब फिल्मों के हीरो की तरह अखबारों के कार्टूनिस्ट भी सुपर स्टार से कम नहीं होते थे, उनके ऑटोग्राफ लेने की होड़ मच जाती थी। राजनेताओं से मेल-मुलाकात के निमंत्रण स्वीकारना या नहीं यह भी उनके मूड पर निर्भर करता था। तब के प्रधानमंत्री से लेकर अन्य नेता तक अपने कार्टून पर उदार मन से प्रशंसा कर के इस कला को सम्मान देना अपना दायित्व समझते थे।मीडिया संस्थानों में पनपते कॉरपोरेट कल्चर, एक छोटे से कार्टून से व्यावसायिक हित प्रभावित ना हो जाएं, राजनेताओं की नाराजी का सामना न करना पड़े जैसे खतरों का ही परिणाम है कि अब अखबारों में कार्टून की निर्धारित जगह पर पॉइंटर के रूप में विज्ञापन ने ले ली है। पहले अनिवार्य रहते थे लेकिन अब फीलर हो गए हैं कार्टून।अखबार की हेडलाइन से पहले पाठकों में आज का कार्टून देखने की जिज्ञासा रहती थी लेकिन अब पाठकों को ही फर्क नहीं पड़ता कि अखबारों से कार्टून क्यों गायब होते जा रहे हैं। 
                 स्टेट प्रेस क्लब द्वारा आयोजित भारतीय पत्रकारिता महोत्सव के पहले दिन के दूसरे सत्र में रवींद्र नाट्यगृह में इंदौर के सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट कृष्ण गोपाल मालवीय की स्मृति में ‘कार्टून की लोकप्रियता और चुनौतियां’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में देश के विभिन्न अखबारों के शीर्षस्थ कार्टूनिस्ट ने भी माना कि इस विधा पर गहराते संकट के बादल नहीं छंटे तो ऐसा न हो कि सेव द टाइगर की तरह ‘सेव द कार्टूनिस्ट’ अभियान चलाना पड़े।हाल के वर्षों में कार्टून विधा पर अपने तरह की यह पहली राष्ट्रीय परिचर्चा करने का श्रेय भी  हिंदी पत्रकारिता के गढ़ इंदौर के खाते में दर्ज हुआ है।
विचार व्यक्त कर रहे कार्टूनिस्ट ने भी स्वीकारा कि तीन-चार दशक के पहले के अखबारों पर नजर डालेंगे तो पता चलेगा कि कार्टून की कितनी अहमियत थी।एक तरह से अखबार के पहले पन्ने पर कार्टूनिस्ट दहाड़ते थे लेकिन कॉरपोरेट कल्चर के चलते अब अखबारों में कार्टून मिमियाते नजर आते हैं क्यों कि अब उनका उपयोग फिलर की तरह होने लगा है और कार्टूनिस्ट से इलेस्ट्रेटर का काम लिया जाने लगा है। दिन भर में सिर्फ एक कार्टून बनाने वाले को मोटा वेतन क्यों दिया जाए यह मानसिकता बन गई है।  
मंच पर मौजूद थे विभिन्न राष्ट्रीय अखबारों में कार्टून से अपनी पहचान बना चुके वरिष्ठ कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोड़पकर (दिल्ली), मनोज सिंहा (रांची), संदीप अध्वर्यु (मुंबई), इस्माइल लहरी (इंदौर), अभिषेक तिवारी (जयपुर),
पवन कुमार टूंस (पटना) और नीलेश खरे (मुंबई)।
▪️ राजेंद्र धोड़पकर ने कहा पहले गोल्डन पीरियड था।1995 से जब मीडिया संस्थान कारपोरेट में तब्दील होने लगे तब से कार्टून की बलि चढ़ना शुरु हो गई।अमरीका में दो हजार से घटकर अब पचास रह गए हैं कार्टूनिस्ट। इसका कारण यह कि जो भी कार्टूनिस्ट होता है वह सत्ता के विरोध में जाता है, मालिक अवसरवादी होता है, वह सत्ता के साथ रहना पसंद करता है। 
▪️टाइम्स ऑफ इंडिया के संदीप अध्वर्यु ने कहा पोलिटिकल कार्टूनिंग मनोरंजन, चुटकुला नहीं है। हर कार्टून में व्यंग्य होता है।कार्टूनिस्ट का इवोलुशन टायगर से बिल्ली में हो गया है। जर्नलिज्म में दरकता विश्वास का असर हम पर भी हो रहा है।अब तो भावनाएं आहत होना उद्योग बन गया है। कुछ बोल दिया, बना दिया किसी एक वर्ग खेमे को पसंद नहीं आया तो राष्ट्रद्रोही हो गए। सोशल मीडिया का इंपेक्ट हुआ है कि आप अपना कार्टून यहां पोस्ट कर सकते हैं लेकिन यहां भी आईटी सेल, ट्रोल आर्मी है। 
इस प्रोफेशन कार्टून विधा को, मीडिया को एक ही चीज जिंदा रख सकती है थोड़ा रेजिस्टेंट (प्रतिरोध) दिखाना। 
▪️पवन टूंस ने कार्टून की क्या ताकत होती है यह समझाते हुए कहा बिहार में सरकार बदलने में मतदाताओं के साथ ही कार्टून की भी भागीदारी रही है।हमारे सामने चुनौतियां रहती हैं कैसे एक व्यक्ति पर काम किया जाए। कार्टून बनाते वक्त हमारे सामने व्यक्ति नहीं सरकार का मुखिया रहता है।जब सरकार और उसके मुखिया अपना रवैया नहीं बदलते तो हमसे भी यह उम्मीद करना बेकार है कि हम बदल जाएंगे।  
▪️डिजिटल मीडिया में कार्यरत नीलेश खरे (जी टीवी) ने कहा हम यदि एक वर्ग में 
लोकप्रिय होते हैं तो दूसरे वर्ग में हम उतने ही अलोकप्रिय भी रहते हैं।राजनेता भी चाहते हैं कि ऐसा अलोकप्रिय सोचने वाला समाज बने। यदि किसी देश में कार्टून कम छप रहे हैं तो मान कर चलिये की आजादी पर संकट चल रहा है। आज अखबारों में कार्टून ढूंढना पड़ते हैं। हमारा सेंस ऑफ ह्यूमर खत्म होता जा रहा है, इस कारण कार्टून और कार्टूनिस्ट के सामने चुनौती है। 
बाला साहेब ने कार्टूनिंग के दम पर एक पार्टी को खड़ा कर दिया उस पार्टी के शिवसैनिकों को आज समझ नहीं आता कि कार्टून क्या है। यदि कार्टूनिस्ट को सही जगह नहीं मिलेगी, सम्मान नहीं मिलेगा तो उसके कार्टून चुनौती देने वाले हो जाएंगे। आज कट्टरवाद बड़ा कारण बनता जा रहा है जबकि कार्टून इसका विरोध करता है। 
▪️मनोज सिन्हा दिल्ली का कहना था
अब पेज वन पर पॉकेट कार्टून नहीं एड आता है। अब कार्टूनिस्ट की भूमिका फीलर की हो गई है। अब इलेस्ट्रेटर हो गए हैं कार्टूनिस्ट। कभी सुपर स्टार होते थे लेकिन अब कोई ऑटोग्राफ लेने का भी उत्साह नहीं दिखाता।यह बदलाव चिंतनीय है लेकिन यह भी भरोसा है कि बुरे के बाद अच्छा भी होगा।
▪️अभिषेक तिवारी (जयपुर) ने माना 
राजनीतिक कार्टून बनाना और प्रिंट भी हो जाना अब उतना आसान नहीं।इससे अधिक मेरी चिंता यह है कि कार्टूनिस्ट इतने कम क्यों हैं।दैनिक अखबारों में संपादक हैं तो कार्टूनिस्ट भी रहेगा लेकिन अब तो हर पेज की एक उप संपादक को जिम्मेदारी मिल गई है, संपादक कम हो रहे हैं तो कार्टूनिस्ट कैसे बचे रहेंगे।सोशल मीडिया पर कार्टून तो बना सकते हैं लेकिन उसका वह इंपेक्ट नहीं आएगा। अभिभावक भी नहीं चाहता कि उसका बच्चा कार्टूनिस्ट बने।अखबारों द्वारा पाठकों से सर्वे किया जाता है लेकिन अब तो पाठक भी अखबार से पूछते नहीं कि आप के यहां कार्टून क्यों नहीं है। 
▪️इस्माइल लहरी का कहना था कार्टून गहरे दर्द से होकर निकलता है तब लोग हंसते हैं। स्व मालवीय के काम को याद करते हुए कहा उन्होंने लिथो पर कार्टून बनाए, फिर लिनो पर काम किया।तब से अब तक कार्टून विधा ने भी प्रगति की है।आज हेमंत मालवीय मुझे समझाता है कि टेबलेट पर कार्टून कैसे बना सकते हैं। नेट की वजह से निवाली के युवक का बनाया कार्टून न्यूयार्क तक देखा-पढ़ा जा सकता है। कार्टून खत्म नहीं होगा, लोकतंत्र जितना मजबूत होगा कार्टून भी मजबूत होगा।लहरी ने कार्टून पर गहराते संकट, दबाव-प्रभाव के चलते बिना नाखून वाले शेर जैसी होती जा रही कार्टूनिस्ट की हालत को इशारों में समझाते हुए इंदौर के कचरा विहीन होने पर भी व्यंग्य किया कि जब कूड़े के ढेर फैले रहते थे तब हमारे लिए कार्टून बनाना चुनौतीपूर्ण रहता था, अब तो कचरा भी नहीं रहा शहर में।

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