‘गवाह’ की ‘मन की बात’ का लोकतंत्र में कोई मोल है कि नहीं ?
अजय बोकिल ,वरिष्ठ पत्रकार
प्रयागराज के बहुचर्चित उमेश पाल हत्याकांड के दो मुख्य आरोपियों असद अहमद और गुलाम मोहम्मद का यूपी पुलिस की एसटीएफ ने जिस तरह एनकाउंटर कर दिया, उस पर आने वाली राजनीतिक प्रतिक्रियाएं अपने अपने वोट बैंकों को सहेजे रखने के अनुरूप ही हैं। वैसे भी इस हत्याकांड में हिंदू-मुस्लिम एंगल अपने आप आ गया था, इसलिए सियासी दलों के लिए भी ‘रिएक्ट’ होने का सुभीता हो गया था। अपराध और अपराधियों पर वोटों की खींचतान के बीच एक गंभीर सवाल दबा रह गया कि अपराधी को सजा दिलाने में न्याय व्यवस्था की एक अहम कड़ी किसी चश्मदीद गवाह को अगर सरेआम मार दिया जाए ताकि न्याय व्यवस्था ही पंगु हो जाए तो उस स्थिति में पीडि़त के परिजनों, पुलिस और खुद न्याय तंत्र को क्या करना चाहिए? क्या न्याय व्यवस्था में विश्वास जताते हुए गवाहों के मर्डर होते देखते रहना चाहिए, क्योंकि बिना कानूनी प्रक्रिया पूरी किए बगैर किसी को अपराधी मान लेना गलत है। क्या पुलिस को गवाहों के ऐसे खुले आम मर्डरों पर वही रूटीन रवैया अपनाना चाहिए कि सबूत जुटाकर अदालत में पेश करेंगे और गवाह ही जिंदा नहीं रहा तो इसमें पुलिस क्या कर सकती है। सारे मामलों में वह सभी गवाहों को सुरक्षा चाहे तो भी मुहैया नहीं करा सकती। अदालत को क्या करना चाहिए, अगर गंभीर अपराधों खासकर उन गुनाहों के जिनके सीसीटीवी फुटेज भी मौजूद हों, को अनदेखा कर केवल प्रत्यक्षदर्शी गवाही के इंतजार में केस को चलते रहने देना चाहिए? सरकार को क्या करना चाहिए? अपराधियों को सख्ती से कुचल देना चाहिए अथवा हर अपराधी को मानवीय नजरिए से ट्रीट कर गवाहों की हत्याअोंको सहज ‘मानवीय गलती’ मानकर न्याय तंत्र को अपनी चाल चलते रहने देना चाहिए? घटना के उस प्रत्यक्षदर्शी गवाह, जिसे सरे बाजार इसलिए मार दिया गया ,क्योंकि अदालत में उसकी ईमानदार गवाही आरोपी को सजा दिलवा सकती थी, के परिजनों को क्या करना चाहिए? क्या चश्मदीद गवाह को मारने वालों के खिलाफ भी गवाही के लिए नए गवाह जुटाने की मशक्कत करना चाहिए या फिर जो हुआ, उसे भगवान की मर्जी और कानून और तंत्र की लाचारी मानकर चुपचाप घर बैठ जाना चाहिए?
वैसे भी आपसी रंजिश में किसी को मारना और उसे मारने की प्रक्रिया के प्रत्यक्षदर्शी को मार देने में एक बुनियादी फर्क है। आम तौर पर गवाह का उसके हत्यारों और मूल घटनाक्रम से कोई सीधा सम्बम्ध नहीं होता। वह केवल घटना को घटते हुए देखता है और इसी आधार पर न्याय व्यवस्था का तटस्थ मित्र होता है ताकि उसकी साक्ष्य के आधार पर आरोपी को कानून के दायरे में अधिकतम सजा मिले। गवाह केवल इस बात की पुष्टि करता है कि हां, हत्या मेरे सामने और इस तरह से हुई। जबकि हत्यारा उस गवाह ‘तीसरे आदमी’ को इसलिए मारना चाहता है कि न्याय तंत्र को ही पंगु कर दिया जाए। यानी न रहेगा गवाह, न मिलेगी सजा।
अतीक अहमद प्रकरण में सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस देश में आखिर उन गवाहों की सुरक्षा की क्या गारंटी है, जिन्हें न्यायदान में अहम कड़ी माना गया है। जिनके कोर्ट में दिए गए बयान ही न्यायाधीश की कलम की धार तय करते हैं। मृतक उमेश पाल वर्ष 2005 में हुई यूपी के विधायक राजू पाल की हत्या के मामले में मुख्य गवाह थे। हालांकि यह हत्या भी दो बाहुबली राजनीतिक परिवारों ( राजू पाल और अतीक अहमद) में संपत्ति के विवाद को लेकर जारी रंजिश में हुई थी। अतीक अहमद और उसके गुर्गो ने बीती 24 फरवरी को राजूपाल हत्याकांड के चश्मदीद गवाह उमेश पाल की उसके घर के सामने सरे बाजार हत्या कर दी। इस हत्याकांड में उमेश पाल के वकील और पुलिस के दो गार्ड की भी मौत हो गई, जो सिर्फ अपनी ड्यूटी कर रहे थे। उमेशपाल के साथ इन तीनों को मारने का क्या मकसद रहा होगा, सिवाय आतंक पैदा करने के। संयोग से इस मामले में साम्प्रदायिक एंगल भी है, लेकिन अतीक की जगह किसी और धर्म का बाहुबली भी हो सकता है, जो कानून और न्याय व्यवस्था को अपने ठेंगे पर रखता है और खुद फंसने पर न्याय व्यवस्था पर भरोसे की दुहाई देने लगता हैं। क्योंकि उसे मालूम होता है कि गवाहो को मारकर उसने न्याय व्यवस्था को पहले ही पंगु बना दिया है।
उमेश पाल के हत्यारों को मारने या पकड़ने में यूपी पुलिस को दो माह लग गए। इसी से पता चलता है कि इस देश में अपराधियों का तंत्र पुलिस से कहीं ज्यादा मजबूत है। इसके पहले यूपी में विकास दुबे नामक एक और अपराधी ने तो सीधे यूपी पुलिस को ही चुनौती दे डाली थी और उसके साथ दो दो हाथ किए थे। इसके बाद पुलिस ने ‘ गाड़ी पलटाकर’ उसका खात्मा किया। तब भी पुलिस के इस तरीके पर मानवाधिकारवादियों ने सवाल उठाए थे। अतीक के गुर्गे भी तकरीबन उसी तर्ज पर काम कर रहे थे। इसका सीधा अर्थ यह है कि इस देश में दंबगों के लिए सब करना आसान है, केवल आम और असहाय व्यक्ति ही तंत्र के भरोसे है। असद और गुलाम के एनकाउंटर पर भी अपेक्षित राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आईं। मसलन बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस एनकाउंटर को लेकर योगी सरकार से उच्च-स्तरीय जाँच की मांग की ताकि घटना के पूरे तथ्य व सच्चाई जनता के सामने आ सके। एआईएमआईएम चीफ और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि बीजेपी महजब के नाम पर एनकाउंटर करती है। कोर्ट और जज किस लिए हैं? अदालतों को बंद कर दो। हालांकि उन्होंने एक जायज सवाल भी उठाया कि क्या हरियाणा में जुनैद और नासिर के मारने वालों को भी गोली मारेंगे, नहीं क्योंकि ये मजहब के नाम पर एनकाउंटर करते हैं। सपा प्रमुख और यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने कहा कि झूठे एनकाउंटर करके बीजेपी सरकार सच्चे मुद्दों से ध्यान भटकाना चाह रही है। उधर बीजेपी इस एनकाउंटर से गदगद है और ‘जैसा कहा वैसा किया’ का दावा कर रही है। क्योंकि इससे उसका राजनीतिक लक्ष्य भी अपने आप सध रहा है। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ विधानसभा में कह ही चुके थे कि उमेशपाल के हत्यारों को वो मिट्टी में मिला देंगे। उन्होंने मिला दिया। उधर यूपी पुलिस इस एनकाउंटर को यह कहकर सही ठहरा रही है कि माफिया के खिलाफ सरकार ने जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई है। यूपी में अब तक पुलिस मुठभेड़ मे 183 अपराधी मारे जा चुके हैं। 13 पुलिसकर्मी भी शहीद हुए हैं।
लेकिन ये तमाम प्रतिक्रियाएं इस सवाल को छुपा जाती हैं कि कानून के राज को प्रतिबिम्बित करने वाली न्याय व्यवस्था के मित्र सच्चे गवाहों का अपना अधिकार क्या है? पीडि़त को इंसाफ मिले, इसमें उनकी भूमिका का तकाजा क्या है और इस तकाजे को अमली जामा पहनाने के लिए सत्ता और समाज की भूमिका क्या होनी चाहिए? क्या गवाह अपनी किस्मत आप हैं? क्या हर गवाह को अपनी बाकी जिंदगी भी इसी आंतक में जीनी चाहिए कि उसे आरोपी/अपराधी कभी भी मार सकते हैं या फिर उसे अदालत में साफ मुकर जाना चाहिए कि उसकी आंखों ने न कुछ देखा और न ही कानों ने कुछ सुना। क्योंकि सच बयानी करने से अपराधी को सजा हो भी जाए तो भी खुद गवाह के सुकून के साथ जी सकने की कहीं कोई गारंटी नहीं है, सिवाय नैतिक आत्मतुष्टि के। क्योंकि अपराधी को सजा हो भी जाए तो उसका बाकी तंत्र बदला लेने के लिए सक्रिय रहता है।
ऐसे में सवाल यही है कि गवाह के पक्ष में सत्ता, समाज और पुलिस को क्या संदेश देना चाहिए? या तो वह गवाही ही न दे, दे तो अपनी रिस्क पर दे। कोर्ट को क्या करना चाहिए? प्रत्यक्ष गवाह के मुकरने पर परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर जितनी सजा दी जा सकती है, देकर कर्तव्य की इतिश्री समझे? पुलिस को क्या करना चाहिए, गवाह से जबरन गवाही दिलवाए या फिर बेबस होकर खानापूर्ति करती रहे? पकड़ जेल में डालती रहे और जेल से ही अपराधियों को उनके गैंग चलाते रहने दे? एक गवाह को अगर मार दिया जाए तो उसकी हत्या की नई फाइल तैयार करे। और वो भी मारा जाए तो तीसरे की फाइल तैयार करे। उधर अदालत में तारीख पर तारीख लेती जाए। सरकार को क्या करना चाहिए, क्या उसे यह कहकर पल्ला झाड़ लेना चाहिए कि भई जो होगा कानून के हिसाब से होगा, हम कर ही क्या सकते हैं? कानूनी प्रक्रिया मीलों लंबी है तो इसमें सरकार भी क्या कर सकती है। हम गवाह को नैतिकता का पाठ पढ़ा सकते हैं। सरकार का जिम्मा आरोपी के अपराधी सिद्ध होने तक जेलों में उनके मानवीय गरिमा के साथ रहने और जमानत मिल जाने पर उन्हें बाइज्जत जीने देने का है, सो वह कर रही है। वैधानिक प्रक्रिया से आरोपी को सजा जब मिलेगी, तब मिलेगी।
अब उमेशपाल हत्याकांड प्रकरण के बाद हुए आरोपियों के एनकाउंटर में जनता के लिए संदेश क्या है? यही कि कानून के हितैषी गवाहों के हत्यारों को और आगे इस तरह का खेल खेलने की इजाजत नहीं है। हालांकि इसमें खतरा यह भी है कि पुलिस किसी का भी इस तरह खात्मा कर सकती है, लेकिन जिस सीसीटीवी फुटेज ने मर्डर के साथ ही पूरी हकीकत दिखा दी हो, वहां कैमरे की आंख के बरक्स मनुष्य की आंख पर ही भरोसा करना रूक्षता है। आखिर गवाह की ‘मन की बात’ का भी लोकतंत्र में कोई मोल है या नहीं ?
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