राज्यपालों की नियुक्ति: यह पहली नजीर नहीं, पर ‘नैतिक नजीर’ की अपेक्षा जरूर करती है
अजय बोकिल,वरिष्ठ पत्रकार
1997 में तत्कालीन देवेगौड़ा सरकार की सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जस्टिस रही फातिमा बीवी को तमिलनाडु का तथा जम्मू-कश्मीर राज्य के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुखदेव सिंह कंग को केरल का राज्यपाल नियुक्त किया गया था।
जस्टिस नजीर उस राम जन्म भूमि केस में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के सदस्य रहे हैं।
मोदी सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने हाल में जिन 13 राज्यपालों को बदला और नियुक्त किया है, उनमें सबसे ज्यादा चर्चा सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की है। मूलत: कर्नाटक के रहने वाले जस्टिस नजीर पिछले माह 4 जनवरी को ही रिटायर हुए थे और करीब एक महीने बाद ही उन्हें सरकार ने आंध्र प्रदेश जैसे बड़े राज्य का राज्यपाल नियुक्त कर दिया।
खास बात यह है कि जस्टिस नजीर, राम जन्मभूमि केस में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के सदस्य रहे हैं, पीठ ने 9 नवंबर 2019 को अयोध्या में विवादित भूमि को राम जन्मभूमि ट्रस्ट को सौंपने का ऐतिहासिक फैसला दिया था। यही नहीं, जस्टिस नजीर, मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले को सही ठहराने वाली बेंच का भी हिस्सा थे। साथ ही सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने तीन तलाक को अवैध ठहराया था, उसमें भी जस्टिस नजीर शामिल थे। ये वो फैसले हैं, जो सरकार के पक्ष में रहे हैं।
वैसे किसी पूर्व न्यायाधीश को राज्यपाल या सांसद बनाए जाने का यह कोई पहला मामला नहीं है। सबसे पहले तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार ने 1952 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रहे जस्टिस सैयद फजल अली को पहले ओडिशा और बाद में असम का राज्यपाल नियुक्त किया था। तब इसका कोई खास विरोध नहीं हुआ था। लेकिन बाद के वर्षों में रिटायर्ड न्यायाधीशों को ज्यादातर आयोग, ट्रिब्यूनलों में नियुक्त किया जाता रहा।
पहले भी हो चुकी हैं ऐसी नियुक्तियां
1997 में तत्कालीन देवेगौड़ा सरकार की सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जस्टिस रहीं फातिमा बीवी को तमिलनाडु का तथा जम्मू-कश्मीर राज्य के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुखदेव सिंह कंग को केरल का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। हालांकि, फातिमा बीवी को एआईएडीएमके नेता जयललिता को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के विवाद के बाद राज्यपाल पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
मजे की बात यह है कि उस वक्त अटल सरकार में मंत्री रहे अरुण जेटली ने पूर्व न्यायाधीशों को राज्यपाल बनाए जाने की आलोचना की थी, लेकिन 2014 में केन्द्र में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार और भाजपा ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाना शुरू किया। साल 2014 में ही सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस पी. सदाशिवम को केरल का राज्यपाल नियुक्त किया, जबकि सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के बाद जस्टिस सदाशिवम अपने गांव लौट गए थे। उस वक्त ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता’ का मुद्दा जोरशोर से उठा था।
हालांकि, सदाशिवम द्वारा दिए गए फैसलों पर कोई उंगली नहीं उठी, लेकिन यह सवाल शिद्दत से उठा कि क्या पूर्व न्यायाधीशों को इस तरह राजनीतिक नियुक्तियां स्वीकार करनी चाहिए और क्या सरकार ऐसा करके न्यायपालिका को क्या संदेश देना चाहती है?
संवैधानिक दृष्टि से पूर्व जजों के राजनीतिक पुनर्वास पर कोई रोक नहीं है। लेकिन यह संवैधानिकता से ज्यादा नैतिकता का प्रश्न है। क्योंकि रिटायर्ड जजों को राजनीतिक नियुक्ति देना अथवा अन्य किसी लाभ के पद से नवाजा जाना अदालत में बतौर जज उनके द्वारा दिए जाने वाले फैसलों की निष्पक्षता अथवा पूर्वापेक्षा पर कहीं न कहीं सवाल खड़े करता है।
रिटायरमेंट के बाद लाभ के पद पर तैनाती से जज द्वारा अपने कार्यकाल में दिए गए कानूनी फैसलों से यह ध्वनि निकल सकती है कि उसने संबंधित मामले में फैसला इस प्रत्याशा में दिया कि इसके बदले में भविष्य में उसे कुछ लाभ मिलेगा। यह भी संदेश जा सकता है कि चूंकि संबंधित जज ने सरकार के पक्ष में अथवा किसी विशिष्ट राजनीतिक विचारधारा को लाभ पहुंचाने वाला फैसला दिया, इसलिए उसकी ऐवज में सरकार ने पूर्व जज को लाभ का पद देकर उपकृत किया। हालांकि, जजों को कानून के दायरे में रहकर ही फैसले देने होते हैं, लेकिन उन फैसलों में अंतर्निहित भाव को भी बखूबी पढ़ा जा सकता है।
जस्टिस नजीर और राम जन्मभूमि फैसला
जस्टिस नजीर के संदर्भ में यह सवाल शिद्दत से इसलिए उठ रहा है, क्योंकि राम जन्मभूमि मामले में फैसला देने वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ में से तीन जजों का पुनर्वास मोदी सरकार ने कर दिया है। उन पांच जजों में से एक तो अभी देश के प्रधान न्यायाधीश हैं ही। राम जन्मभूमि मामले में ऐतिहासिक फैसला देने वाली संविधान पीठ के अध्याक्ष रहे तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को सरकार ने पद से रिटायर होते ही तुरंत राज्यसभा का सदस्य नामित कर दिया।
जस्टिस गोगोई ने कई ऐसे फैसले दिए, जिनमें सरकार के पक्ष को उचित माना गया। मसलन उन्होंने रफाल सौदे की समीक्षा और राहुल गांधी के खिलाफ अदालत की अवमानना के मामलों की भी सुनवाई की। रफाल सौदे में मोदी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे लेकिन रंजन गोगोई की बेंच ने रफाल सौदे की जांच को लेकर दायर की गई सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया था। इनके अलावा जस्टिस रंजन गोगोई ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 रद्द किए जाने के बाद दायर सभी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को भी खारिज कर दिया था।
इसके पहले भारत के 21वें चीफ जस्टिस रहे रंगनाथ मिश्रा को कांग्रेस पार्टी ने साल 1998 में राज्यसभा भेजा था। जस्टिस रंगनाथ मिश्र राज्यसभा जाने वाले सुप्रीम कोर्ट के दूसरे जज थे। उनसे पहले जस्टिस बहारुल इस्लाम जनवरी 1983 में सुप्रीम कोर्ट के जज के पद से रिटायर हुए थे और उसी साल जून में कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया था।
जजों की राजनीतिक पदों पर नियुक्ति पर संवैधानिक रोक नहीं
जस्टिस गोगोई के बाद राम जन्मभूमि मामले में संविधान पीठ के दूसरे सदस्य जस्टिस अशोक भूषण को नेशनल कंपनी लाॅ अपीलेट ट्रिब्यूनल (एनक्लेट) का चेयरमैन बना दिया और अब जस्टिस नजीर आंध्र के राज्यपाल बन गए हैं। वैसे पूर्व जजों को राजनीतिक पदों पर नियुक्त करने पर कोई संवैधानिक रोक नहीं है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 124(7) सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने वाले जजों को केवल न्यायपालिका के क्षेत्र में कोई पद लेने से रोकता है। सुप्रीम कोर्ट के जज रिटायर होने के बाद किसी अदालत में वकालत भी नहीं कर सकते हैं। साल 1958 में अपनी चौदहवीं रिपोर्ट में भारत के विधि आयोग ने जजों के रिटायर होने के बाद सरकारी पद लेने पर रोक की सिफ़ारिश की थी, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
पूर्व जजों की राजनीतिक नियुक्तियों पर एक सुझाव पूर्व जस्टिस आरएम लोढ़ा ने यह दिया था कि रिटायर होने के बाद जजों के लिए दो साल का ‘कूलिंग ऑफ’ पीरियड होना चाहिए। यानी इस अवधि के समाप्त होने से पहले जज कोई पद स्वीकार नहीं कर सकते। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अक्तूबर 2014 में इस सुझाव को खारिज कर दिया था।
एक तर्क यह भी है कि क्या जजों को दूसरी जिम्मेदारियों से केवल इसलिए दूर रखा जाना चाहिए कि वो सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज रहे हैं? क्या इससे उनके अपने अधिकारों की अनदेखी नहीं होती? क्या किसी जज को मरते दम तक निष्पक्ष रहना ही साबित करना पड़ेगा? क्या वह न्यायाधीश रहने के मानसिक बोझ से कभी मुक्त नहीं हो सकता? क्या वह भी एक सामाजिक जीव नहीं है?
इन पेचीदा सवालों के जवाब भी जटिल ही हैं। लेकिन यहां असली सवाल यह है कि यदि पूर्व जज सरकार के लाभकारी राजनीतिक पदों को स्वीकार करते हैं तो उसका जनता में क्या संदेश जाता है? क्या यह कि जज ने जो फैसले दिए, वो किसी प्रतिदान की अपेक्षा में थे अथवा पूर्णत: न्यायिक मूल्यों के अनुरूप और निजी आग्रह दुराग्रहों से परे थे?
वैसे जज खुद चाहें तो सरकार द्वारा राजनीतिक पदों की पेशकश ठुकरा कर उच्च न्यायिक और नैतिक मानदंड कायम कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए नैतिक साहस और प्रतिबद्धता चाहिए। ऐसा नैतिक साहस अभी तक तो किसी पूर्व जज ने नहीं दिखाया है। हालांकि ऐसा करने से उस जज के फैसलों की निष्पक्षता और प्रामाणिकता ही पुष्ट होती।
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