सुनने - समझने को कोई तैयार नही...
ना काहू से बैर
राघवेंद्र सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
भोपाल - सियासत भी अजब-गजब रंग दिखाती है। खासतौर से मध्यप्रदेश की बात करें तो यहां कुछ ऐसे ही अनगढ़ किस्से हो रहे हैं। जो किसी के समझ में नहीं आ रहे हैं । क्या भाजपा और कांग्रेस दोनों के एक जैसे ही हाल है। कांग्रेस हाईकमान ने मध्य प्रदेश कांग्रेस की जो टीम बनाई है उसके पदाधिकारियों के नाम याद करते करते शायद चुनाव भी निकल जाए और यह स्थिति किसी आम कार्यकर्ता की नहीं बल्कि प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ की भी हो सकती है। कोई उनसे प्रेस कॉन्फ्रेंस में नई टीम के पदाधिकारियों के नाम पूछ ले तो शायद वह डबल फिगर में भी नहीं पहुंच पाएंगे। भाजपा के भी हाल कुछ बेहतर नहीं है कार्यकर्ताओं और नेताओं से जो फीडबैक मिल रहा है उसके हिसाब से ना कोई सुनने वाला है और ना कोई समझने को तैयार है...
आज की कथा का आरंभ कांग्रेस की सियासत से शुरू करते हैं। ना काहू से बैर के पिछले अंक में लिखा था भाजपा और कांग्रेस सब में बदलाव की धुकधुकी लगी है। उम्मीद की जा रही थी राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी में बदलाव की खबर आएगी लेकिन 22 जनवरी को ही टीम कमलनाथ का गठन कर दिया गया। इसमें विस्तार से जाने के बजाए एक दो ऐसे मुद्दे पर बात करेंगे जो हांडी के चावल की तरह समझने के लिए पर्याप्त होंगे। दिल्ली से जो सूची जारी हुई है उसमें 105 महासचिव बनाए गए और 50 उपाध्यक्ष। महासचिवों की फेहरिस्त में यदि तीन और जोड़ दिए जाएं तो जपने के हिसाब से 108 मनको की माला हो जाएगी। महासचिवों के नाम रटने और चुनाव जीतने के लिए माला फेरते रहिए शायद इसी प्रयास में सत्ता मिल जाए। इसके अलावा 64 जिलाध्यक्ष घोषित किया गया। साथ ही 21 सदस्यों की पॉलीटिकल अफेयर कमेटी बनाई गई है। उस में सबसे खास बात यह है कि कमलनाथ और उनके पुत्र नकुल नाथ को इसमें शामिल किया गया है। यह पहला मौका होगा जब इतनी महत्वपूर्ण कमेटी में पिता-पुत्र दोनों शामिल किए गए। राजनीतिक हिसाब से नकुल नाथ उन भाग्यशाली पुत्रों में है जिन्हें पिता के सीएम रहते पहली बार सांसद बनने का मौका मिला और उसके साथ वे सबसे ताकतवर प्रदेश कमेटी के सदस्य मनोनीत किए गए। राष्ट्रीय स्तर पर अगर देखा जाए तो महत्व मिलने का यह दर्जा राहुल गांधी को ही हासिल है। सियासत में और खासतौर से कांग्रेस में बड़े से बड़ा नेता अपने आप को सिपाही मानता है। जिस हिसाब से पीसीसी का गठन हुआ है उसमें कांग्रेस के सिपाही चुनाव लड़ने के लिए तो खंदक में है या फिर खुंदक में है। सुरेश पचौरी अजय सिंह राहुल और अरुण यादव के साथ चंद्र प्रभाष शेखर सरीखे दिग्गज पॉलिटिकल ऑफर कमेटी से बाहर है। लेकिन नकुल नाथ उसमें जगह दी गई है। इसके अलावा कल तक जो चन्द्रप्रभाष शेखर पीसीसी चीफ कमलनाथ के बाद दूसरे क्रम पर काम करते थे आज उन्हें उपाध्यक्ष सूची में अपना नाम तलाशने के लिए बहुत गहरे तक गोता लगाना पड़ेगा। उन्हें सुकून की बात यह लगेगी कि पीसीसी में वापसी करने वाले वरिष्ठ नेता मानक अग्रवाल का नाम क्रम में उनके आसपास ही है।
खैर कांग्रेस में उठापटक तो होती रहती है लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में प्रदेश कांग्रेस के लिए यह जोर का झटका धीरे से लगा। क्योंकि इसकी भनक प्रकाशित होने के पहले पार्टी के बड़े बड़े सूरमाओं तक को नही थी। इसके पीछे कौन है और क्या गणित है ? यह तो धीरे-धीरे पता चलेगा। लेकिन जो खबरें छनकर आ रही हैं वह बेहद चकित करने वाली है। दिल्ली से जारी सूची प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को भी तब पता चली वह मीडिया को जारी कर दी गई। हालांकि इसे कोई सार्वजनिक रूप से स्वीकार नही करेगा। लेकिन हकीकत यही बताई जाती है। इसमें सबसे खास बात यह भी है कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साले साहब संजय सिंह मसानी का नाम प्रश्न महत्वपूर्ण रूप से उपाध्यक्ष तौर पर शामिल किया गया है।
वाकिफ सब हैं पर पहचानता कोई नही...
भाजपा के भी हाल अच्छे नही है...
मध्यप्रदेश को लेकर भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में बहुत चिंता में है। बदलाव को लेकर कई दौर की बातचीत हो चुकी है। संगठन के स्तर पर कुछ दिनों से यह चर्चा खूब चल रही है- "अटल बिहारी वाजपेई जी ने एक बार कहा था पुराने कार्यकर्ताओं को कभी नहीं भूलना चाहिए। मेरी एक बात गांठ बांधकर रख लेना। एक भी पुराना कार्यकर्ता नही टूटना चाहिए नए चाहें दस टूट जाएं क्योंकि पुराना कार्यकर्ता हमारी जीत की गारंटी है और नए पर विश्वास करना जल्दबाजी होगी"।
कार्यकर्ताओं के बीच भाजपा के बड़े नेता पहुंच तो रहे लेकिन कार्यकर्ता उनकी बात को सुनने के बाद ज्यादा प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहे हैं जो कि चुनावी साल है और नगर निगम चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन को देखते हुए कार्यकर्ताओं की तरफ से तीखे सवाल कड़वे सुझाव आने चाहिए थे। मगर कार्यकर्ता ज्यादातर मौन है या पदाधिकारियों की हां में हां मिला रहे हैं। भाजपा में मुखर रहने वाले कार्यकर्ता की यह चुप्पी नेताओं को डरा रही है। बहुत करने पर कार्यकर्ता अकेले में यही कहता है यहां ना कोई सुनने को तैयार है और ना समझने को, किससे क्या कहें ? इसका मतलब नीचे तक जो जिताने वाले कार्यकर्ता है वह सुधार के मामले में हताशा और निराशा की स्थिति में पहुंच रहा है। यही बात चुनाव पर निर्णायक असर डालेगी। इसके चलते बूथ मैनेजमेंट और पन्ना प्रभारी जैसी व्यवस्था मैदान पर कम कागज पर ज्यादा सिमटकर रह गई दिखती है अगर यह प्रभावी होता तो नगर निगम चुनाव में भाजपा की जबरदस्त जीत होती।
भाजपा में वरिष्ठ नेताओं का एक समूह जिनमें भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्षों से लेकर पूर्व क्षेत्रीय संगठन मंत्री, संगठन मंत्री, राज्यसभा सदस्य जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहने वाले राष्ट्रीय नेतृत्व को प्रदेश के मुद्दे पर अपना संदेश पहुंचा रहे हैं। अनुमान है फरवरी के पहले हफ्ते तक मध्य प्रदेश भाजपा को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व कुछ बड़े और कड़े फैसले कर सकता है। अभी तो सब जोड़ जुगाड़ और निर्णय की प्रतीक्षा में लगे हैं।
कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और अनदेखी पर दर्द बयां करने एक शेर खासा मौजू है- गुजारी तमाम उम्र हमने जिस शहर में वाकिफ तो वहां सब हैं पर पहचानता कोई नही...
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