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भोपाल से दिल्ली तक सियासत में बदलाव की धुकधुकी...


ना काहू से बैर

राघवेंद्र सिंह ,वरिष्ठ पत्रकार
                 भोपाल कांग्रेस हो या भाजपा, भोपाल से दिल्ली तक बदलाव के संकेतों ने दिग्गजों की हवा खराब कर रखी है। इस साल के अंत में मध्य प्रदेश राजस्थान छत्तीसगढ़ सहित 9 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस बीजेपी बड़ी तैयारी करने वाली है मध्य प्रदेश भाजपा संभावित बदलाव को लेकर दिग्गज नेताओं को धुकधुकी लगी हुई है खासतौर से सत्ता-संगठन से जुड़े नेताओं के समर्थक काफी चिंतित है। सरकार और संगठन के जरिए उन्हें कार्यकर्ता और जनहित की आड़ में अपने भी बहुत सारे काम करवाने हैं। वैसे तो बदलाव के मामले में राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा की कुर्सी भी खतरे में है। उनके गृह राज्य हिमाचल की पराजय ने उनकी प्रतिष्ठा को धूलधूसरित कर दिया है। 

                 प्रदेश में परिवर्तन के पोखरण विस्फोट की कल्पना करने वाले नेता और कार्यकर्ता दम साधे बदलाव के वक्त का इंतजार कर रहे हैं। मगर चुनावी साल में घोड़ा-सवार और सेनापति बदलने का जोखिम भाजपा नेतृत्व किस रणनीति के तहत लेगा यह बहुत महत्वपूर्ण होगा। खासतौर से मप्र जैसे सूबे में जहां जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त के आरोपों के बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से सरकार बनी थी। अब सत्ता - संगठन का परफारमेंस बदलाव का प्रमुख आधार बनेगा। इसमें सबसे ज्यादा संकट उन मंत्रियों पर है जो अपने विभाग में कमजोर साबित हुए साथ ही समझाइश के बावजूद कार्यकर्ता और जनता से उनका कमजोर संवाद बना हुआ है। इसमें सबसे ज्यादा सिंधिया समर्थक मंत्री निशाने पर हैं। भाजपा का धर्मसंकट यह है कि वह ऐसे मंत्रियों और संगठन से जुड़े नेताओं का क्या करें जिनके बारे में जबरदस्त नेगेटिव फीडबैक है। गुजरात मॉडल की बात करें तो उस फार्मूले के तहत पक्ष विदाई ही एकमात्र विकल्प है लेकिन मध्य प्रदेश गुजरात नहीं है ऐसा संदेश मंडल से लेकर प्रदेश की इकाईयों ने राष्ट्रीय नेतृत्व को दिया है। अधिक भृष्ट व कमजोर मंत्रियों को पद से हटाने या मध्य मार्ग अपनाते हुए विभागों में  बदलाव भी एक विकल्प हो सकता है। मन्त्रिमण्डल विस्तार और फेरबदल की संभावना ने सबकी धड़कने तेज कर दी है। सभी जानते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह चौकानेवाले निर्णय करते हैं। मध्य प्रदेश को लेकर क्या होता है संभवत यह भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद साफ होगा। पार्टी की दो दिवसीय बैठक 16 जनवरी से शुरू होने वाली है।
                    मध्यप्रदेश में भाजपा की अंदरूनी हालत अच्छी नहीं है यह कई तरह के सर्वे में पार्टी और इंटेलिजेंस की गोपनीय रिपोर्ट में भी राष्ट्रीय नेतृत्व को पता चल चुका है। इसकी बेहतरी के लिए क्या निर्णय हो इस पर शीर्ष नेतृत्व और संघ के प्रमुख नेताओं के बीच माथापच्ची का दौर भी चल रहा होगा। संगठन में बदलाव को लेकर विकल्पों पर निचले स्तर पर खूब ख्याली घोड़े दौड़ाए जा रहे हैं। आदिवासी नेतृत्व की बातें भी हो रही है लेकिन कमजोर को कमान सौंपी तो फिर विधानसभा चुनाव जीतने का दारोमदार मोदी के नाम पर ही आएगा। सरकार में बदला होता है तो विधायक दल के बाहर के नेता को कमान सौंपी जाए तो फिर नियम के मुताबिक अगले 6 महीने में दोबारा शपथ ग्रहण समारोह होगा। संगठन में नेतृत्व बदला गया तो केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, आदिवासी  नेताओं में फग्गन सिंह कुलस्ते, राज्यसभा सदस्य डॉ सुमेर सिंह के साथ राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का नाम भी सुर्खियों में आ सकता है।  विकल्प के तौर पर गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा का नाम भी सबको साथ लेकर चलने के मामले में अध्यक्ष की दौड़ में शामिल हो सकता है। प्रभारी के मामले में बार-बार ओम प्रकाश माथुर जैसे दिग्गज नेता का नाम भी आता है वर्तमान में वे छत्तीसगढ़ राज्य के प्रभारी हैं और पूर्व में मध्य प्रदेश के प्रभारी भी रह चुके हैं सब उनको जानते हैं और वह प्रदेश के सभी नेताओं को ऐसे में चुनाव की दृष्टि से प्रभारी के लिए माथुर जी का नाम भी महत्वपूर्ण बना हुआ है। पिछले 10 साल में जितने भी प्रभारी बने हैं वह संगठन और सरकार की दृष्टि से कार्यकर्ताओं के बीच बहुत प्रभावी होनेऔर आदरणीय का दर्जा हासिल नहीं कर पाए। चुनाव में प्रत्याशी चयन एक बड़ा काम होगा अगर यह सही हुआ तो जीत आसान होगी और इसमें गड़बड़ी हुई तो 2018 की भांति फिर नाव किनारे पर आकर डूबने की आशंका ज्यादा रहेगी। टिकट वितरण पार्टी के भीतरी और बाहरी सर्वे के आधार पर हो सकता है लेकिन सेबोटेज  को रोकना और बगावत को काबू में करने के लिए मजबूत संगठन और असरदार प्रभारी नेताओं का होना नितांत आवश्यक होगा। पिछले चुनाव में इसी कमजोरी के चलते भाजपा को पराजय मिली थी। ओबीसी और आदिवासी वोटर को साधने में बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। लेकिन अब संगठन व सरकार की एक भी गलती पार्टी को पराजय की तरफ धकेल सकती है। वरिष्ठ नेता जयंत मलैया के मामले में मिस हेंडलिंग की दमोह उपचुनाव में हारकर पार्टी को भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। चुनाव नेतृत्व गम्भीरता से सबको साथ लेकर नही चला तो हालात 2018 से बदतर हो सकते हैं।  चुनाव के लिहाज से गुजरात में सब कुछ अनुमान के मुताबिक हुआ लेकिन हिमाचल की हार ने भाजपा के गणित ही बदल दिए। इसके बाद इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव 2024 में होने वाले आम चुनाव के लिए माहौल तैयार करेंगे यदि विधानसभा चुनाव में नतीजे गड़बड़ हुए तो लोकसभा चुनाव में आशा के मुताबिक परिणाम आना आसान नही होगा। मध्यप्रदेश और राजस्थान के साथ छत्तीसगढ़ में फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा। हिमाचल की हार के जले भाजपा नेतृत्व के लिए आने वाले दिन बहुत मुश्किल भरे लगते हैं।

कांग्रेस में भी उठापटक के हालात...

                      राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्यों की टीम में बड़े बदलाव संभव है। वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह यात्रा समापन के बाद मध्यप्रदेश में सक्रिय होंगे उसके बाद ही सीन बदलेगा। संभावना है कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व श्री सिंह को कोई बड़ी जिम्मेदारी भी दे दे। एक अनुमान यह भी है कि मध्यप्रदेश में वे चुनाव तक सक्रिय रहना चाहेंगे। चुनाव जीतने के लिए ऐसा करना आलाकमान व पार्टी की जरूरत भी है और मजबूरी भी।  दस सीएम रहे दिग्विजय सिंह का संगठन के तौर पर मध्यप्रदेश के साथ छत्तीसगढ़ पर भी असर है। पडौसी राज्य राजस्थान में भी वे अपनी असरदार भूमिका निभा सकते हैं। श्री सिंह की उपस्तिथि का मध्यप्रदेश समेत छत्तीसगढ़ व राजस्थान पर कितना असर पड़ेगा इस पर सबकी निगाहें लगी हैं। ये परिवर्तन कांग्रेस में भविष्य की दिशा तय करेंगे। फिलहाल दिग्विजय सिंह की अनुपस्थिति में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमल नाथ अपने हिसाब से चुनावी गोटियां बिछा रहे हैं ताकि प्रत्याशी चयन में कमलनाथ समर्थक ज्यादा टिकट पा सके लेकिन यह सब दिग्विजय सिंह की सहमति के बिना संभव होगा मुश्किल लगता है और यदि ऐसा हो भी गया तो फिर कांग्रेस की सफलता के आसार संदिग्ध हो जाएंगे क्योंकि जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं के साथ संवाद जितना मजबूत दिग्विजय सिंह का है उतना प्रदेश कांग्रेस में किसी भी नेता का नहीं है। यह बात भाजपा और कांग्रेस के भीतर सिंह के विरोधी भी स्वीकार करते हैं। श्री नाथ अब उन विधायकों से भेंट करने से बच रहे हैं जिन्हें वे खराब फीड बेक के चलते टिकट नही देना चाहते। इससे उनके चुनाव में बागी होने का खतरा है। ऐसे नेता सभी दलों में होते हैं वे जीते भले न लेकिन हराने की ताकत जरूर रखते है। इस तरह के बागियों को जो मना ले वही असली लीडर...पार्टियों में ऐसे असरदार नेताओं का टोटा पड़ा हुआ है। हाल में हुए नगर निगम चुनाव और 2018 के विधानसभा निर्वाचन में भाजपा ने इस कमी को भुगता भी था। इस मामले में अभी भी भाजपा का हाथ तंग है...

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