top header advertisement
Home - आपका ब्लॉग << वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा अपनी पत्रकारिता के खट्टे मीठे अनुभव पर “मेरी पत्रकारिता” सीरिज लिख रहे हैं। मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर से जुड़ा रोचक किस्सा लिखा है इस बार 96वीं सीरिज में

वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा अपनी पत्रकारिता के खट्टे मीठे अनुभव पर “मेरी पत्रकारिता” सीरिज लिख रहे हैं। मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर से जुड़ा रोचक किस्सा लिखा है इस बार 96वीं सीरिज में


आज लोकल ट्रेन में सफर करिये मेरे साथ,
यूं ही इसे मुंबई की लाइफ लाइन नहीं कहते
 

कीर्ति राणा ,वरिष्ठ पत्रकार

जब भी कभी मुंबई जाने का काम पड़े तो व्यक्ति को एक दो बार वहां की लोकल ट्रेन में जरूर सफर करना चाहिए।गांधी जी ने ट्रेन के तीसरे दर्जे में सफर कर के भारत को समझा था तो लोकल में सफर करने पर मुंबई के आम जीवन को भी समझा जा सकता है। ऐसा नहीं कि अन्य मेट्रोपोलिटिन शहरों में मेट्रो नहीं चलती लेकिन मुंबई की लोकल ट्रेन की बात ही अलग है। लोकल जिसे सम्मानजनक भाषा में उपनगरीय ट्रेन कहते हैं मुझे यह लोकल जिंदगी के हर रंग अपने साथ सफर कराती चलती है।

हां बस लोकल में यात्रा के लिए यूज टू होना निहायत जरूरी है।जब मैं जवेरी बाजार रहता था तब तो बेस्ट की बस से ही मंत्रालय और वहां से नरीमन पॉइंट तक पैदल ही जाना होता था।नरीमन भवन से कई बार (शायद) टाटा परफार्मिंग आर्ट सेंटर से बस मिल जाती थी।ये बस का सफर जितना आसान मेरे जैसे नए व्यक्ति के लिए लोकल में पहले पहल का सफर उतना ही चुनौतीपूर्ण था।कुछ दिन के बाद तो मैं भी आम मुंबईकर की तरह धकापेल का अभ्यस्त हो गया था।

माहिम की फिशरमेन कॉलोनी में जहां पेइंग गेस्ट के रूप में सवा सौ रु महीना सिर्फ सोने के देता था। वहां अन्य नौ रूम मेट भी लोकल से ही आना-जाना करते थे। माहिम से चर्चगेट तक बेस्ट की बस भी चलती हैं लेकिन ऑफिस आने जाने वालों के लिए लोकल सबसे सस्ता, तेज गति वाला साधन है। 

माहिम से चर्चगेट जाने-आने में 11स्टेशनों की दूरी तय करता था हर दिन 

माहिम में शिफ्ट होने के बाद से चर्च गेट तक आने-जाने में हर दिन 11 स्टेशनों की दूरी तय करता था।अभी भी हजारों यात्री हर दिन 4-5 घंटे की दूरी तय कर सर्विस करने आते हैं मुंबई। सुबह फिश मार्केट से होते हुए लॉंड्री से कपड़े चेंज कर के माहिम में लोकल पकड़ता अगला स्टेशन माटुंगा, दादर, एलफिंस्टन रोड, लोअर परेल, महालक्ष्मी, मुंबई सेंट्रल, ग्रांट रोड, चरनी रोड, मरिन लाइंस होते हुए चर्च गेट। वहां से पैदल या बस से नरीमन पॉइंट पहुंच जाता था।

मेरी तो हिम्मत ही नहीं हुई, तीसरी बार सोचा ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना 

माहिम शिफ्ट होने के बाद कुछ दिन तो मैं बस से ही ऑफिस जाता था। करंट में कैमरा सेक्शन में काम करने वाले मोरे ने अपनी ही मल्टी के उस रूम में रहने का इंतजाम कराने के साथ ही मुझे सलाह दी कि लोकल का मंथली पास बनवा लो।पास बनवा लिया, अब जब पहले दिन माहिम स्टेशन पर पहुंचा तो वहां लोकल पकड़ने के लिए प्लेटफार्म पर मेले जैसा दृश्य था। धड़धड़ाती लोकल आकर रुकी जिसके हर डिब्बे में भीड़ थी।उतरने वाले कम, चढ़ने वाले ज्यादा, मैंने यह सोचकर जल्दबाजी करना फिजूल समझा कि अगली लोकल तो खाली आएगी, प्लेटफार्म की भीड़ भी कम हो जाएगी। दो-पांच मिनट बाद ही चर्च गेट के लिए जाने वाली दूसरी लोकल आई तो वही हाल था। डिब्बे में चढ़ने वालों की ऐसी मारामारी थी कि अपनी हिम्मत ही नहीं हुई लेकिन इस दूसरी लोकल में चढ़ रहे यात्रियों को देख कर समझ आ गया कि जब ये सब चढ़-उतर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। मन को तैयार कर लिया कि अब जो तीसरी लोकल आएगीउसमें तो किसी भी तरह से अंदर घुसना ही है। 

यात्रियों के बीच दबते-धक्के खाते, लोगों को ठेलते मैं जा पहुंचा डिब्बे के अंदर 

तीसरी लोकल आई, अपन भी तैयार थे। कंधे पर टंगा झोला कस कर पकड़ा और दूसरे हाथ से अन्य यात्रियों की तरह मैं भी दूसरे हाथ से आगे वाले यात्रियों को धकियाते हुए उनके पीछे-पीछे चलते हुए बढ़ चला।गेट के बीचोबीच लगा लोहे वाला पाइप जैसे ही पकड़ में आ गया, बस में जीत गया।पीछे से आ रहे धक्कों को झेलते हुए मैं अंदर धंसता जा रहा था।यह अच्छा था कि जूते पहन रखे थे जाने कितनी बार मेरे जूते कुचले गए, पर अपन भी मट्ठे हो गए थे।डिब्बे में घुस जाना मेरे लिए किसी जंग में जीत मिल जाने जैसा ही था। 

नाटा कद होने से अपने हाथ तो मुश्किल से पहुंच पाते थे हैंडल तक 

बैठने की जगह तो मिलने का सवाल ही नहीं था।लोकल में सुबह दस बजे तक तो ऑफिस जाने वालों का इतना दबाव रहता है कि बैठना तो दूर ठीक से खड़े रहने की जगह भी नहीं मिल पाती। लोकल की सीटोँ को पकड़ कर खड़े खड़े चर्चगेट तक का आधा-पौन घंटे का सफर आम हो चला था।लोकल में सीट नहीं मिल पाए तो खड़े रहने वाले यात्रियों के लिए हैंडल भी लगे रहते है।इन झूलते हैंडल को पकड़ कर यात्री खड़े रहते हैं। अपने हाथ में तो ये हैंडल भी आसानी से हाथ नहीं लगते थे, बड़ी वजह अपना नाटा कद।ऑफिस से लौटते में भी लोकल में भीड़ का यही आलम रहता था। 

ऐसी नींद आई कि पूरी गाड़ी खाली हो गई अपन आराम से सोए हुए थे 

लोकल में कभी बैठने की जगह खिड़की के पास मिल जाए तो सफर आनंद वाला हो जाता था।जान छुड़ा कर भागती लोकल की खिड़कियों से टकराती तेज हवा के कारण आंखें कब मुंद जाती थीं आभास ही नहीं होता था। एक बार तो ऐसा हुआ कि माहिम कब आया पता ही नहीं चला। किसी ने जब झकझोर दिया तो आंख खुली। गाड़ी तो लॉस्ट स्टेशन पर खड़ी हुई थी। स्टेशन पर उतरा, पास तो था लेकिन वह तो माहिम तक का ही था। पिछली बार मैंने टीसी स्टॉफ की पैनी नजरों का जिक्र किया ही था तो अपने को भी धर लिया, गिड़गिड़ाने का भी उन पर कोई असर नहीं हुआ, दंड राशि जमा कराना ही पड़ी।लोकलट्रेन में नींद ना आए यह मेरे साथ तो असंभव ही था। 

वैसे मुंबई की लोकल को मैं जीवंत मानता हूं तो उसकी भी वजह है इसमें नियमित लंबी दूरी की यात्रा करने वालों का हर डिब्बे में अपना ग्रुप रहता है फिर चाहे ये ताश खेलते आएं, भजन गाते आएं या चुहलबाजी करते। ये सफरी दोस्ती प्रेम-मुहब्बत बड़ी मजेदार रहती है।परिवार के सुख-दुख की चर्चा, जन्मदिन से लेकर मैरिज एनिवर्सरी से लेकर सारे उत्सव लोकल के डिब्बे में ही सफर करते मना लिए जाते हैं।मुंबई से पुणे के बीच डबल डेकर लोकल ट्रेन भी पहली बार देखी। ऐसे हजारों यात्री रहते हैं जो सर्विस के चलते पुणे से नियमित अप-डाउन करते हैं।मुझे “साथियां” (विवेक ओबेराय-रानी मुखर्जी) संगीत-गीतों के साथ इसलिए भी पसंद है कि इस रोमांटिक फिल्म के कथानक में लोकल का सफर प्रमुख है। 

उस दिन ट्रेन की पटरियों पर मेरे टुकड़े मिलते या मैं आज की भाषा में दिव्यांग कहलाता 

कुछ ही दिन में मैं लोकल में चढ़ने-उतरने का अभ्यस्त तो हो गया था लेकिन एक दिन मरते-मरते बचा। हुआ यूं कि मैं माहिम स्टेशन पहुंचा ही था कि लोकल रेंगने लगी, मुझे लगा कि मैं दौड़कर पकड़ लूंगा लेकिन इस बीच गाड़ी रफ्तार पकड़ चुकी थी। मैंने गेट के बीच लगा पाइप पकड़ने की कोशिश की किंतु असफल रहा और बैलेंस बिगड़ गया, मैं नीचे गिरने को ही था कि डिब्बे में गेट के समीप खड़े यात्रियों में से कुछ फुर्ती से नीचे झुके, कुछ ने शर्ट की कालर तो कुछ ने हाथ पकड़ कर मुझे ऊंचा उठाया और डिब्बे के अंदर की तरफ खींच कर मेरी जान बचा ली।अभी जब वो प्रसंग लिख रहा हूं तो सारा दृश्य आंखों के सामने घूम रहा है। यदि वो देवदूत मुझे पकड़ कर नहीं खींचते तो मैं या तो समूचा पटरियों पर टुकड़ों में बदल जाता या दिव्यांग  हो सकता था। 

ऐसी ही घटना एक बार बस में भी हो चुकी थी। कालबादेवी स्टॉप पर आकर रुकी बस को पकड़ने के लिए लपका सोचा था पाइप पकड़ लूंगा लेकिन ऐसा न कर सका, संतुलन बिगड़े और मैं सड़क पर गिरुं उससे पहले ही बस के गेट के वहां खड़े एक वृद्ध और दो युवकों ने पकड़ कर खींच लिया।

कुछ ऐसा ही बीते छह सात साल पहले तनु के साथ बॉंबे सेंट्रल स्टेशन पर हुआ।हम सब क्षोत्रिय परिवार के यहां विवाह समारोह में ठाणे गए थे। वहां से भतीजी दीक्षा वर्मा की ननद से मिलने दादर गए। वहां से चर्चगेट आने के लिए लोकल में बैठे। बॉंबे सेंट्रल पर उतरने के दौरान तनु असंतुलित होकर प्लेटफार्म पर गिर गई, चोंट तो नहीं आई लेकिन इस अप्रत्याशित घटना से इतनी घबरा गई कि आंसू निकल पड़े, जिद कर ली कि अब लोकल से नहीं जाना। वहीं से टैक्सी कर के नरीमन पॉइंट पहुंचे। 

हर मुंबईकर के जीवन के सुख-दुख की साथी लोकल ट्रेन भी है 

जितने साल भी बंबई में रहा कई बार सोचता था कि लोकल ट्रेन नहीं होती तो बंबई का क्या होता। अक्खा मुंबई तीन चीजों पर निर्भर है लोकल ट्रेन, बेस्ट की बसें और टाटा की बिजली व्यवस्था। इसमें भी लोकल तो हर मुंबईकर के जीवन की साथी है। लोकल में तीन तरह के डिब्बे देखे एक तो कॉमन यानी महिला-पुरुष सभी एक साथ सफर करते हैं। दूसरे लेडीज कंपार्टमेंट यानी सिर्फ महिलाओं के लिए ही और तीसरा फर्स्ट क्लास इसका किराया थोड़ा अधिक रहता है किंतु इसमें भीड़ अधिक नहीं रहती।

तीन लाइनों पर चलने वाली लोकल में सुबह 4.30 से लगभग 11 बजे और शाम 5 से 8 बजे तक तो लगभग एक जैसी ही भीड़ रहती है।मुंबई की लोकल पर हर यात्री को गर्व है तो उसकी वजह है करीब एक अरब यात्री तो हर दिन इससे सफर करते ही हैं।इनमें भी वेस्टर्न लाइन और सेंट्रल लाइन में सबसे अधिक लोग सफर करते हैं. वेस्टर्न लाइन और सेंट्रल लाइन पर सर्वाधिक और हर्बर लाइन पर कम यात्री सफर करते हैं-सप्ताह के दो दिन-शनि और रविवार-ही ऐसे रहते हैं जब हर दिन 22 घंटे दौड़ती-हांफती लोकल को एक तरह से सुस्ताने का वक्त मिलता है।

कई परिवारों में बच्चे तो शनि-रविवार को ही पापा का चेहरा देख पाते हैं 

मुंबई में नौकरी और लोकल के सफर को लेकर यह बात आम है कि बच्चे अपने पापा का चेहरा ऑफिस के अवकाश वाले दिनों में ही देख पाते हैं।इन दो दिनों में लोकल में रश नहीं के बराबर रहता है, जब वह फुल स्पीड में चलती है तो छत से टकराते हैंडल का स्वर ऐसा आभास देता है जैसे हथियारबंद सेना मार्च करते जा रही हो-लोकल से जुड़ी यादों को लेकर कुछ कविताए भी लिखी थीं। इराक (इंदौर रायटर्स क्लब) की बैठक में जब कविता सुनाई थीं कवि-मित्र राज कुमार कुम्भज ने शब्द श्रृंगार कर के कविता का रूप निखार दिया था। 

घड़ी की सूइयों और लोकल की तरह भागता-दौड़ता रहता है मुंबई का आम आदमी 

वक्त की कीमत मुंबई से ज्यादा अन्य कोई शहर शायद ही जानता हो। बॉलीवुड में भले ही स्टारडम के नाज नखरों के सामने समय को समर्पण करना पड़ता हो लेकिन आम मुंबईकर तो घड़ी के साथ कदमताल ही करता है। सुबह जब वह घर से निकलता है तो दिमाग में यह पहले से प्लॉन रहता है कि उसे कितने बजे वाली लोकल मिल जाएगी स्टेशन पर।उसके पूरे दिन का शेड्यूल लोकल के आने-जाने के समय से मेल खाता है।शायद यही वजह है कि कई दोस्त परिवार समय की बचत के फेर में निकटस्थ स्टेशन पर ही मेल मुलाकात कर लेने में नहीं हितकते, रही चाय-नाशते-आवभगत की बात तो स्टेशनों पर कैंटीन रहते ही हैं।

मुझे भी यह जान कर विश्वास नहीं हुआ था कि  स्विट्जरलैंड जैसे देशों की जनसंख्या जितने लोग तो लोकल में हर दिन सफर करते हैं लेकिन जब लोकल मेरी लाइफ का भी हिस्सा बन गई तो यह भी मानना पड़ा कि  एक साल में तीन अरब लोग सफर करते हैं, जो कि पूरी दुनिया की जनसंख्या का लगभग तीसरा हिस्सा है।
वेस्टर्न लाइन और सेंट्रल लाइन में सबसे अधिक लोग सफर करते हैं।वेस्टर्न में करीब 35 लाख और सेंट्रल पर करीब 43 लाख लोग यात्रा करते हैं। वहीं हर्बर लाइन पर 10 लाख के करीब यात्री ट्रेवल करते हैं।

हर यात्री को परवड़ता है सस्ता किराया 

लाखों लोगों को सफर करवाने वाली लोकल ट्रेन को लाइफ लाइन कहने की एक बड़ी वजह यह भी है कि इसकी सर्विस तो अच्छी है ही लोकन ट्रेन आने का अंतराल बमुश्किल 3 से 5 मिनट है। यात्रियों को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता है। 
हर फेरे में डिब्बों में भारी यात्री दबाव भीड़ का एक बड़ा कारण यह भी है कि बेस्ट की बसों की अपेक्षा इसके किराए का बोझ यात्रियों की जेब पर नहीं पड़ता है।हर यात्री को यह किराया परवड़ता (सुहाता) है। विश्वास करना ही पड़ेगा कि लोकल में 120 किलोमीटर तक की यात्रा के लिए महज 30 रुपये किराया देना पड़ता है. बताया जाता है कि यह दुनिया की सबसे कम किराया लेने वाली ट्रेनों में से एक है। अब तो लोकल ट्रेन में वातानुकूलित सुविधा वाली ट्रेन भी चल पड़ी है। 
इतिहास में दर्ज है मुंबई में देश की पहली ट्रेन के चलने का किस्सा 
शायद मुंबई सेंट्रल या वीटी (विक्टोरिया टर्मिनस) पर कहीं लिखा हुआ है कि देश में सबसे पहले मुंबई में ट्रेन चली थी। 16 अप्रैल, 1853 को भारत में पहली सवारी रेलगाड़ी मुंबई से ठाणे के बीच चली थी। इस 4 बोगी की ट्रेन को 3 इंजन खींच रहे थे, जिनका नाम था- सुल्तान, सिंध और साहिब था। इस ट्रेन को 21 बंदूकों की सलामी देकर रवाना किया गया था। अपनी पहली यात्रा में इस ट्रेन ने सिर्फ 35 किलोमीटर का सफर तय किया था।

                                                               ...000...

Leave a reply