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यौन शोषण से पीड़ित बच्चों को न्याय दिलाने में पॉक्सो एक्ट नाकाम


 डॉ. चन्दर सोनाने 
               देश में छोटे बच्चों को यौन शोषण से बचाने और पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए हमारे देश में 2012 में प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेस (पॉक्सो ) एक्ट लागू किया गया। इस एक्ट को लागू हुए एक दशक हो गया है। इस 10 साल की हाल ही में जो रिपोर्ट सामने आई है, उससे पता चलता है कि यौन शोषण से पीड़ित बच्चों को न्याय दिलाने में यह पॉक्सो एक्ट नाकाम रहा है। 
             हाल ही में वर्ल्ड बैंक की एक संस्था के साथ विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी ने एक अध्ययन किया। उस अध्ययन की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। इससे यह भी पता चलता है कि यौन शोषण से पीड़ित बच्चें अभी न्याय पाने से बहुत दूर है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि यौन शोषण में जितने दोषी सजा पा रहे हैं, उससे करीब तीन गुना ज्यादा अपराधी बरी हो रहे हैं। ये निश्चित रूप से पॉक्सो एक्ट की असफलता ही सिद्ध करता है। इस स्टडी में 28 राज्यों की 408 पॉक्सो फास्ट ट्रैक कोर्ट में चल रहे 2 लाख 31 हजार प्रकरणों को शामिल किया गया है। इस स्टडी से यह भी पता चलता है कि कुल मामलों में से सिर्फ 14 प्रतिशत मामलों में ही आरोपी दोषी ठहराया गया है। 43 प्रतिशत मामलों में आरोपी बरी हो गया है और 43 प्रतिशत मामले लंबित है। यह अत्यन्त दुखद है। 
               आइये, अब हम देखते है पॉक्सो एक्ट के बनने के बाद पिछले 10 साल में किन राज्यों में स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। कोर्ट में लंबित मामलों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे पिछड़ा है। इस राज्य में 77.7 प्रतिशत प्रकरण पॉक्सो कोर्ट में लंबित है। देश में सबसे ज्यादा लंबित मामलों वाले 5 जिलों में से 4 जिले उत्तरप्रदेश के है और एक जिला पश्चिम बंगाल का है। बंगाल में 74.6 प्रतिशत, बिहार में 67.6 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 60.2 प्रतिशत, गुजरात में 51.5 प्रतिशत, कर्नाटक में 45.5 प्रतिशत और हरियाणा में 41.4 प्रतिशत प्रकरण पॉक्सो एक्ट में लंबित पाए गए। बाकि राज्यों में इससे कम प्रतिशत है। 
                  देश में पॉक्सो एक्ट के अर्न्तगत प्रकरणों को निपटाने में औसत 510 दिन यानी एक साल 5 महीने लग रहे हैं। देश में सिर्फ चंडीगढ़ और बंगाल ही ऐसे है, जहाँ एक साल में प्रकरणों का निराकरण किया जा रहा है। केस निपटाने का औसत समय सबसे ज्यादा 3 साल 6 महीने दिल्ली में है। जबकि चंडीगढ़ में सिर्फ 6 महीने के कोर्ट का फैसला आ रहा है। वर्ष 2016 में 60 प्रतिशत मामलों का एक साल के अंदर निराकरण किया जा रहा था। 2018 में यह औसत 42 प्रतिशत रह गया। 2020 में 19.7 प्रतिशत मामले ही निपटाए जा सके। वर्ष 2021 में भी औसत 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहा है। दुःखद बात यह भी है कि देश के पॉक्सो कोर्ट में 20 प्रतिशत से ज्यादा की दर से हर साल लंबित मामले बढ़ रहे है। केरल में न्याय मिलने की गति सबसे तेज है। यहाँ पीड़ित बच्चे को मददगार दिया जाता है। इसी कारण यहाँ प्रकरणों के निराकरण की गति जहाँ सबसे तेज है, वहीं आरोपियों के बरी होने की दर भी सबसे कम है। 
                  बच्चों के यौन शोषण के मामले में आरोपी के बरी होने के मामले में आंध्रप्रदेश सबसे आगे है। इस प्रदेश में एक मामले में यदि आरोपी दोषी ठहराया जाता है, तो 7 प्रकरणों में आरोपी बरी हो रहे है। अर्थात् बरी होने वाले आरोपियों का औसत दोषी ठहराए जाने वाले आरोपियों से 7 गुना ज्यादा है। पश्चिम बंगाल में यह औसत 5 गुना है। सबसे अच्छी स्थिति केरल की है। यहाँ का औसत सिर्फ एक है। अर्थात एक मामले में सजा होती है तो दूसरे मामले में आरोपी बरी हो रहा है। 
                 विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की रिपोर्ट हमें बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर रही है। देश के विधि विभाग को सोचना चाहिए कि जिस उद्देश्य से पॉक्सो एक्ट और फास्ट टै्रक कोर्ट बनाए गए थे, उससे पीड़ितों को जल्द ही न्याय मिलना चाहिए, उसकी बजाय न्याय मिलने की गति अत्यन्त ही सुस्त है। इस कारण से बच्चों को बचाने के लिए यह एक्ट बना था वह इसमें नाकाम सिद्ध हो रही है। केन्द्र सरकार को चाहिए कि पॉक्सो एक्ट में दोषी सिद्ध होने के काफी कम संख्या के कारणों का पता लगाए और उसका गंभीरता से अध्ययन कर उसका निराकरण करने की कार्रवाई करें। यहाँ केन्द्र सरकार को राजनैतिक भेदभाव भूलाकर केरल राज्य से सीख लेने की जरूरत है। जैसा केरल में इस अधिनियम के अर्न्तगत काम हो रहा है वैसा ही अन्य राज्यों में करवाने के लिए आवश्यक कार्रवाई करने की आवश्यकता है। 
               न्याय मिलने में देरी को न्याय के नहीं मिलने के बराबर माना जाता है। इसलिए न्याय जल्दी मिलना ही चाहिए। पॉक्सो फास्ट ट्रैक कोर्ट अपनी सुस्त चाल के कारण अपने उद्देश्यों को पाने में असफल सिद्ध हो रहा है। केन्द्र और राज्य सरकार को चाहिए कि बच्चों के यौन शोषण के निराकरण के लिए पुलिस थानों में पीड़ित की मानवीय दृष्टिकोण से काउंसलिंग होनी चाहिए। फास्ट ट्रैक की संख्या को कई गुना ज्यादा बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। साथ ही यह भी किया जाना आवश्यक है कि सभी पॉक्सो फास्ट ट्रैक कोर्ट में पुलिस अपनी छानबीन अनिवार्य रूप से एक महीने के अंदर पूरी कर लें और कोर्ट में प्रस्तुत कर दें। संबंधित अदालत एक साल की अवधि में ही प्रकरण का निराकरण करना सुनिश्चित करें। ऐसा होने से फास्ट ट्रैक कोर्ट अपने उद्देश्य में सफल सिद्ध हो सकेगा अन्यथा अभी जैसे चल रहा है, वैसा ही आगे भी चलता रहेगा ! 
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