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इतना क्या घबराना, मजाक उड़ाइये ना !


कीर्ति राणा ,वरिष्ठ पत्रकार

                       राहुल गांधी के पास खोने को तो ठीक पाने और देने को भी कुछ नहीं है फिर भी युवाओं का हुजूम साथ चल पड़ता है और अगले पड़ाव पर पहुंचते-पहुंचते यह जनसैलाब नजर आने लगता है। जो कांग्रेस बिखरी हुई, सोई हुई नजर आती थी यकायक नींद से जागी लगने लगी है। बुरहानपुर, खंडवा, महू, राऊ, राजवाड़ा से सांवेर, उज्जैन तक यही नजर आया कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष खरगे भले ही उम्रदराज हों, लेकिन कांग्रेस की धमनियों के साथ आमजन में यह यात्रा ऊर्जा का संचार कर रही है। 
                      राहुल गांधी को पप्पू घोषित कर चुकी भाजपा इस नामकरण को लेकर तो शायद ही आत्ममंथन करे, लेकिन राजवाड़ा की सभा में आधे घंटे के भाषण में न तो वो बहके हुए, खिसके हुए दिखे और न जुमलेबाज, नौटंकीबाज नजर आए। इस बार वे ऐसे नाड़ी वैद्य नजर आ रहे हैं, जो देश की नब्ज पर हाथ रखते ही उसकी बीमारी को पहचान रहा है। वो जिन राज्यों से गुजरते हुए आए हैं, उनकी अपने पहनावे से भी पहचान है, लेकिन राहुल के पहनावे में राज्यवार ऐसा कोई परिवर्तन नजर नहीं आया,  वही टी शर्ट-पेंट के साथ विरोधियों के निशाने पर चल रही खिचड़ी दाढ़ी और अनथक यात्रा। जीवन के सारे सुख भोग चुके इंसान के मन में जब पंचक्रोसी या नर्मदा परिक्रमा की हूक उठती है तो वह मोह-माया से मुंह मोड़कर निकल पड़ता है अहं को छोड़ ‘मैं’ को तलाशने के लिए... कुछ ऐसा ही जीवन दर्शन भारत जोड़ने निकले इस राहगीर में नजर आता है। ऐसा क्या चुंबकीय आकर्षण है कि लोग जुड़ते, साथ चलते जा रहे हैं। यह बदलाव उन शहरों में भी नजर आ रहा है, जहां भाजपा सत्ता में है। 
                    कभी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अंतिम रैली इंदौर की सड़कों से निकली थी। महू-इंदौर के उन्हीं रास्तों से चलते हुए वो राजवाड़ा पहुंचे तो बीसियों साल पहले जैसा सैलाब उनके साथ भी नजर आया। आमसभा में जो बात कही, वही बारोली में मीडिया से चर्चा में भी दोहराई कि भारत जोड़ो यात्रा इसलिए नहीं है कि इससे कांग्रेस को कोई फायदा मिल जाएगा। वो इसे यात्रा नहीं ऐसी तपस्या कहते हैं, जो फल की कामना को आधार बनाकर नहीं की जाती। उनकी भाषा, भाव भंगिमा में अहं नहीं विनम्रता झलकती है। वो कहते हैं- अभी जो हालात हैं, उसमें देश को सुनने की जरूरत है, सुनाने की नहीं। बहुत जरूरी होने पर ही मोदी का नाम लेते हैं, साथ में कटाक्ष करने से भी नहीं चूकते कि मैंने तो आपके 17 सवालों के जवाब भी दे दिए, लेकिन इन 17 सालों में उनसे किसी की एक सवाल पूछने तक की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि वो सुनने में नहीं... सुनाने में विश्वास रखते हैं। केश फ्लो बंद होने से खुदरा व्यापारियों के सामने गहराते संकट, दम तोड़ते छोटे उद्योगों से बढ़ती चुनौती के साथ सारा पैसा दो-तीन अरबपतियों की ही जेब में जाने की बात करते वक्त वो गलती से भी अंबानी-अडानी का नाम नहीं लेते। चैनलों पर रोज चमकते आक्रामक चेहरों के मुकाबले इस विनम्र चेहरे को नजर अंदाज करना मीडिया घरानों की भले ही मजबूरी बन गई हो, लेकिन बिना किसी पैकेज डील के लोगों में विश्वास बढ़ाती इस यात्रा को कोई कैसे रोक सकता है?
                         सोशल मीडिया पर प्रश्न तैर रहे हैं कि भारत टूटा कहां है, जो जोड़ने निकले हैं। पाकिस्तान में डर समाया हुआ है, भारतीय राजनीति के महामानव की सोच और कूटनीति का विश्व में डंका बज रहा है। फिर क्या जोड़ने निकले हैं? अब तक की यात्रा और उनके भाषणों से यही आभास हो रहा है कि वे भारत को नहीं, दिलों को जोड़ने के लिए निकले हैं। बूढ़ी हो चुकी कांग्रेस के हांफते-थकते-मजबूरी में दौड़ते नेताओं की फौज साथ नहीं होती... तब भी यह यात्रा ऐसे ही बढ़ती रहती, क्योंकि खुद राहुल एकाधिक बार कह चुके हैं कि वो कांग्रेस और राहुल गांधी वाले आभा मंडल से मुक्त होकर एक आमजन की तरह देश को समझने निकले हैं। भारत को समझने के लिए कभी महात्मा गांधी पैदल चले थे, चंद्रशेखर भी यात्रा पर निकले थे। यह यात्रा राहुल को महात्मा बना देगी, चंद्रशेखर की तरह प्रधानमंत्री बना दे यह संभव नहीं, लेकिन तीन-तीन प्रधानमंत्री वाले परिवार का एक सदस्य हजारों मील पैदल चल रहा है, यही किसी अजूबे से कम नहीं। राजनीति में पप्पू प्रचारित किए जा चुके राहुल गांधी को इस यात्रा से यदि भारत को समझने का कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो जाए तो यह उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि होगी। चाय बेचने वाला यदि आमजन के भरोसे को जीतकर प्रधानमंत्री बन सकता है तो देश को समझने के लिए हजारों किलोमीटर की पदयात्रा कर रहे राहुल गांधी की यह हसरत पूरी करने में वैसी ही उदारता यह देश दिखा दे तो क्या हर्ज है! रथयात्री की हसरत तो आज तक पूरी नहीं हुई पदयात्री के लिए आमजन पलक-पावड़े शायद इसलिए भी बिछा रहे हैं कि 5जी की रफ्तार से दौड़ रहे भारत के भारी भरकम नेताओं वाली पार्टियों में कोई एक बंदा तो ऐसा निकला, जो भारत की आत्मा से साक्षात्कार करने अपनी धुल में पैदल चल पड़ा है। 

                      गुजरात, हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम भी इस यात्रा से चमत्कारी साबित हो जाएंगे, यह सोच लेना भारी भूल होगी।जूझती रहे कांग्रेस चुनाव मैदान में, गहलोत और पायलट लड़ते रहे राजस्थान के रण में... राहुल तो जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ का भाव लिए निकल पड़े हैं। परिणाम की फिक्र न उन्हें है, ना ही यात्रा में जुड़ते, छूटते लोगों को है। कांग्रेस की नीतियों के प्रचार, भाजपा और उसके नेताओं की गलतियां गिनाने जैसे संक्रामक रोग से वो अपनी यात्रा को बचाते हुए चल रहे हैं... शायद इसलिए भी लोग साथ है कि यह यात्रा कांग्रेस की यात्रा या उन्माद भड़काने वाली अन्य यात्राओं की फोटोकॉपी नहीं है।
                      यशवंत रोड से सभा मंच की तरफ बढ़ते सैलाब में राहुल को तलाशती नजरों ने ‘डरो मत’ वाली तख्तियों को भी देखा है। मुझे लगता है इस यात्री के दिल से डर, इच्छा, लोभ, ईर्ष्या, अहंकार समाप्त हो चुका है। यह निर्लिप्तता या स्थितप्रज्ञ भाव ही व्यक्ति को ऊंचा उठा सकता है- यही इस यात्रा में नजर आया है। कल तक जिसका मजाक उड़ाना मकसद रहा, वही अब आंखों की नींद उड़ा रहा है, क्योंकि उसने संसद की बजाय सड़क पर लोगों का दर्द साझा करने का रास्ता तलाश लिया है। हो रहे विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी का शामिल होना न होना लोगों के लिए भले ही महत्वपूर्ण नहीं हो, लेकिन भाजपा के सभा मंचों से लोगों को बताया जा रहा है कि राहुल को कांग्रेस की चिंता नहीं है वो भारत जोड़ने निकले हैं।

                      सितंबर में कन्याकुमारी से शुरू हुई इस यात्रा को  मप्र के पहले तक कैसा प्रतिसाद मिला यह तो राहुल जानें, लेकिन यदि वो कहते हैं कि कर्नाटक से ज्यादा केरल में, केरल से ज्यादा महाराष्ट्र और वहां से भी ज्यादा मप्र और इंदौर में प्यार-समर्थन मिला है तो यह बात विरोधियों के कान खड़े करने वाली होना चाहिए कि जिसे वह राजनीति में फेल मान रहे थे, वह पप्पू तो जन अदालत में हर परीक्षा में पास होता जा रहा है। कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी का कम मजाक बनाया था क्या... बीते लोकसभा चुनाव में, क्या रहा नतीजा मोदी मजबूत बनकर उभरे औरभ् ााजपा को भी उबारा। ये यात्रा कांग्रेस का कायाकल्प भले ही नहीं कर पाए, लेकिन आमजन को उसकी शक्ति की याद तो दिला ही रही है। 

                   अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा की सरकार और मोदी के प्रधानमंत्री बनने में यह यात्रा बाधक बनेगी... ऐसे कोई आसार नजर नहीं आते। कांग्रेस कितनी मजबूत होगी... कहा नहीं जा सकता। बहुत संभव है कि कांग्रेस के जहाज में अभी जितने सवार है वो भी उछलकूद में नया ठिकाना तलाश लें। कांग्रेस का झंडा थामने वालों में राहुल अकेले ही रह जाएं, तब? वो मीडिया से कह चुके हैं आरोप-प्रत्यारोप, कांग्रेस की हार-जीत आदि से राहुल तो बहुत आगे निकल गया है- राहुल के साथ कांग्रेस चले ना चले... लग रहा है देश साथ चलने लगा है। वजह साफ है... वो कांग्रेस की नहीं, आमजन की परेशानियों की बात कर रहे हैं, उसे सुन रहे हैं। सरकारें जब लोगों को सुनना बंद कर देती है, तब आपात काल के डंडे से सिंहासन पर चिपके रहने के षड्यंत्र भी नाकाम साबित हो जाते हैं। न्यूज चैनल जब राग जैजैवंती का प्रसारण करने लगते हैं, तब भी टीवी म्यूट और बंद करने का अधिकार तो आम आदमी के पास ही रहता है। सुनने और नहीं सुनने के इसी फर्क को सरल तरीके से समझाने निकले राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस भले ही मजबूत न हो, लेकिन आम आदमी का यह विश्वास तो मजबूत होता नजर आ ही रहा है कि कोई तो है, जो उन्हें सुनने निकला है... इस अंतिम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसकी टी-शर्ट कितनी महंगी है और जूते कितने हजार के हैं।

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