सरकारी नौकरी में आरक्षण के बारे में क्या कहता है संविधान ?
डॉ. चन्दर सोनाने
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय की पाँच जजों की पीठ ने 3ः2 के बहुमत से सवर्ण गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के बारे में किए गए संविधान संशोधन पर अपनी मुहर लगा दी है। इसी के साथ अब यह तय हो गया है कि भारत में सरकारी नौकरियों में सवर्ण गरीबों को भी 10 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलता रहेगा। इस पर भारत में सभी मीडिया में खूब चर्चा हुई। लेकिन संविधान सरकारी नौकरियों में आरक्षण के बारे में क्या कहता है ? इसकी मूल भावना क्या है ? इस पर बहुत कम चर्चा हुई है।
आइए, आरक्षण के संबंध में संविधान की मूल भावना क्या है ? इसकी पड़ताल करें। भारत का संविधान बनाने के लिए गठित संविधान सभा ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए एक सलाहकार समिति बनाई। और उस समिति ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश कर दी। इस पर संविधान सभा में हर तरह से बहुत बहस हुई। लंबी चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देना ठीक नहीं होगा। आरक्षण छुआछूत जैसे जातिगत भेदभाव मिटाने का जरिया है। ऐसे में संविधान में जातिगत आरक्षण की व्यवस्था की गई। और सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टिकोण से पिछड़े अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण देने का निर्णय लिया गया। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में कौन-कौन होगा ? इसकी परिभाषा संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में कर दी गई ।
संविधान सभा में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही कि “150 साल तक मजबूती से कायम रही अंग्रेजी हुकूमत में भारत के सवर्ण अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि प्रतिनिधित्व नहीं मिला। ऐसे में भारत के दलित समाज की स्थिति का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।“ बहस के बाद सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण की बात पर सहमति बनी। अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए विशेष उपबंध की व्यवस्था की गई है, लेकिन कहीं भी आर्थिक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। यही वजह है कि सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार को आर्थिक रूप से कमजोर शब्द जोड़ने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़ी।
संविधान सभा ने सरकारी शिक्षण संस्थानों, सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में नौकरियों में एससी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण तय किया था। संविधान सभा में यह आरक्षण 10 वर्षों के लिए किया गया था। इसमें यह भी प्रावधान किया गया था कि हर 10 साल बाद इसकी समीक्षा की जायेगी और 10 साल के लिए आरक्षण बढ़ाया जा सकेगा। केन्द्र में कांग्रेस के बाद जनता दल और भारतीय जनता पार्टी की सरकार रही। हर पार्टी 10 साल के बाद समीक्षा करती रही और आरक्षण की अवधि 10 साल के लिए बढ़ाती रही। तब से यही क्रम चल रहा है। कालान्तर में संविधान में संशोधन कर अन्य पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत का आरक्षण दिया गया है। इसी प्रकार पिछले दिनों संविधान में संशोधन कर सवर्ण के गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
यहाँ यह आश्चर्यजनक है कि 8 लाख रूपए वार्षिक आय वाले को सवर्ण गरीब माना गया है ! अर्थात् प्रतिमाह 66 हजार 666 रूपए जिसकी आय होगी, उसे गरीब माना गया है। जबकि गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवार की रोजाना की आय 167 रूपए यानी प्रतिमाह 5,010 रूपए अर्थात् 60,120 रूपए वार्षिक आय वाले को गरीब माना गया है ! यहाँ हास्यास्पद यह है कि सामान्य वर्ग के जिन गरीबों की आय प्रतिमाह 66,666 रूपए है, वहीं गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालां की वार्षिक आय केवल 60,120 रूपए ही है! यह गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले व्यक्तियों के साथ मजाक ही है !
संविधान सभा में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षण 10 वर्ष के लिए किया गया था। बाद में हर दल 10-10 वर्ष के समयावधि बढ़ाता रहा। इस पर कुछ व्यक्ति और दल प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं। एक बार तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्री मोहन भागवत ने ही आरक्षण की समीक्षा की बात कहकर बखेरा खड़ा कर दिया था। इस सबके बीच हर 10 साल में आरक्षण बढ़ाने पर हमला करने वाले व्यक्तियों को हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय से बल मिला है। सामान्य वर्ग के गरीबों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने के बाद उन्हें एक नया मुद्दा मिल गया है। अब अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को भी जातिगत आरक्षण नहीं देते हुए आर्थिक रूप से आरक्षण देने की बात निश्चित रूप से बढ़ेगी ! किन्तु उन्हें संविधान सभा द्वारा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े होने के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण और सुविधा देने की बात कही गई थी, यह बात ध्यान रखी जानी चाहिए। क्या आज आजादी के 75 साल हो जाने के बाद भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विरूद्ध छुआछूत और अत्याचार खत्म हो गए है ? इस पर विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके पिछले दिनों के चन्द उदाहरण देना जरूरी है।
मध्यप्रदेश के एडिशनल डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस के पद से सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी श्री एन के त्रिपाठी ने 1 मई 1979 को घटित एक घटना का हाल ही में अपने एक आलेख में उल्लेख किया है। उसमें उन्होंने बताया कि इन्दौर जिले के ग्रामीण थाना सिमरोल के अर्न्तगत ग्राम दातोदा में सवर्णो द्वारा दलितों की एक बारात को गाँव में घुसने से रोकने के लिए हमला कर दिया था और बारात निकलने नहीं दे रहे थे । सवर्णों का कहना था कि दुल्हा घोड़े से उतरकर जूता अपने हाथ में लेकर उनके घरों के सामने से निकले। इस घोर अपमानजनक व्यवहार का विरोध करने पर बारातियों को 1 किलोमीटर दूर गाँव के बाहर खदेड़ दिया गया था। आज 43 साल बीत जाने के बाद भी क्या स्थिति बदली है ?
इस वर्ष जब देश आजादी के 75 साल हो जाने पर अमृत महोत्सव मना रहा है, इसी वर्ष के अनेक उदाहरण है। उनमें से कुछ उदाहरण के अनुसार राजस्थान के जालोर जिले में सुराधा में तीसरी कक्षा के दलित छात्र को सवर्ण जाति के हेडमास्टर की मटकी से पानी पी लेने पर उस बालक को इतनी मार पड़ी की 23 दिन की दर्द यातना के बाद उसने दम तोड़ दिया !
इसी प्रकार एक और घटना है, मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले के ग्राम बोदुड़ रैय्यत से, यहाँ के गाँव की एक ऐसी तस्वीर सामने आई है, जिसने हमारी व्यवस्था और लंबे चौड़े विकास के दावां की पोल खोलकर रख दी है। ये गाँव बरसात में टापू का रूप ले लेता है। इस गाँव की आदिवासी महिला सुकरती बाई को प्रसव पीड़ा के दौरान रात करीब 4 बजे घर में प्रसव हुआ। अगले दिन उसकी तबीयत बिगड़ने पर 3 किलोमीटर दूर अस्पताल ले जाने के लिए कंधों पर झोली में डालकर ले जाया जा सका।
हाल ही में गुजरात राज्य के सरपदड़ गाँव में छुआछूत का एक संस्थागत रूप सामने आया। गुजरात के राजकोट से 21 किलोमीटर दूर इस गांव में 5 आंगनवाड़ी है। इनमें से सिर्फ एक आंगनवाड़ी में दलित समाज के बच्चे जा सकते हैं और शेष अन्य 4 आंगववाड़ियों में अन्य सामान्य वर्ग के जातियों के बच्चे जाते हैं। इन 4 आंगनवाड़ियों में दलित वर्ग के बच्चे नहीं जा सकते ! अनेक राज्यों में आज भी अनूसूचित जाति की बालिका और महिलाओं के साथ बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराध आम बात हो गई है। यह अत्यन्त दुःखद और शर्मनाक है।
इसी प्रकार उत्तरप्रदेश , बिहार, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में आज भी दलित प्रताड़ना समाज की बीमार मनोदशा बताती है। ताजा उदाहरण के अनुसार उत्तरप्रदेश के एक गाँव के एक स्कूल में उच्च जाति के छात्रों ने अनुसूचित जाति की रसोईया के हाथों से बने भोजन का विरोध किया। आज भी अनेक राज्यों में एक दलित वर्ग का दूल्हा बारात में घोड़ी पर चढ़कर उच्च आबादी के सामने से निकलने पर उसे जबरजस्त विरोध और मारपीट का सामना करना पड़ रहा है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत गाँवों का देश है। आज भी करीब 70 प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है और इन गाँवों में आज भी जातिगत छुआछूत, भेदभाव और अत्याचार आम बात है।
इन सब उदाहरणों से मात्र यह स्पष्ट करना है कि आज आजादी के 75 साल हो जाने के बाद भी यह शर्मनाक स्थिति है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के प्रति अत्याचार की भावना विशेषकर गाँवों में खत्म नहीं हुई है। जिस दिन यह जातिगत भेदभाव ,छुआछूत और अत्याचार खत्म हो जाएगा उस दिन निश्चित रूप से आरक्षण समाप्त कर दिया जाना चाहिए। किन्तु जब तक स्थिति अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिकूल है, तब तक आरक्षण व्यवस्था लागू करना संविधान की मूल भावना के अनुकूल है । इस पर सबको गौर करने की महति आवश्यकता है !
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