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बिखरे सपनों को मूर्तरूप देने में जुटे मदनलाल



स्वरोजगार योजना के तहत 5 लाख रुपये का ऋण स्वीकृत, पहले दीये बनाते थे, अब इकोफ्रेंडली फ्रीज बनाने की तैयारी
उज्जैन | उज्जैन के ग्राम गोयला से लगभग दो किलो मीटर की दूरी पर ग्राम झिरन्या। यहां रहते हैं 36 वर्षीय माटी कलाकार मदनलाल प्रजापत। हाल ही में उन्हें मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना (माटी कला बोर्ड) के अन्तर्गत पांच लाख रुपये का ऋण स्वीकृत किया गया है। किसी भी व्यवसाय को बढ़ाने के लिये सबसे ज्यादा जरूरत होती है पूंजी की। बिना रुपयों के व्यापार को फैलाना संभव नहीं था। कम पढ़े-लिखे मदनलाल इस एक सूत्र को अच्छी तरह जानते भी थे और समझते भी।
    सन 2007 से मात्र दो महीने पहले तक बहुत छोटे पैमाने पर केवल मिट्टी के दीये बनाने का काम करते थे मदनलाल, जिसमें सीमित आमदनी होती थी। आठ लोगों के परिवार को चलाने के लिये जहां आमदनी कम थी, वहीं माटी कला में कुछ अलग करने के मदनलाल के सपने सूखी मिट्टी की तरह बिखर गये। ज्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं हैं मदनलाल लेकिन रचनात्मकता और लिक से हटकर चलने का साहस उनमें शुरू से था। वे माटी कला में इतने निपुण थे कि इस कला को मात्र दीये बनाने तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। केवल रुपयों की तंगी ही उनकी एकमात्र बाधा थी।
    एक दिन ऐसे ही मदनलाल अपना सामान गांव से बाहर बेचने के लिये जा रहे थे, तब रास्ते में बातचीत के दौरान गांव के अन्य व्यक्ति से मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के बारे में पता चला। उन्होंने जिला पंचायत उज्जैन में माटी कला बोर्ड में ऋण के लिये आवेदन दिया और नर्मदा-झाबुआ बैंक के द्वारा उनका पांच लाख रुपये का ऋण स्वीकृत हो गया।

    जैसे ही रुपयों की कमी दूर हुई, मदनलाल अपने बिखरे हुए सपनों को मूर्तरूप देने में जुट गये। अब वे माटी से बने बिना बिजली के प्राकृतिक रूप से काम करने वाले इकोफ्रेंडली रेफ्रीजरेटर और प्रेशर कूकर बनाने की तैयारी कर रहे हैं। दीये बनाने से लेकर इकोफ्रेंडली रेफ्रीजरेटर बनाने की योजना को मूर्तरूप देने तक का सफर मदनलाल के लिये उतना ही मुश्किल था, जितना गांव से अलग-थलग खेत के बीचों-बीच बने उनके घर तक पहुंचना। गांव के मुख्य मार्ग से तकरीबन 400 मीटर की दूरी पर बने मदनलाल के घर तक जाने के लिये एक कच्ची और संकरी पगडंडी से होकर गुजरना पड़ता है।
    बीते कुछ दिनों से लगातार हो रही बारिश से पगडंडी पर जमा कीचड़ और अभी चल रहे कुंवार महीने की तीखी धूप में पसीने से तरबतर होते हुए जब हम उनके घर पहुंचे तो हमारा हाल बुरा था, लेकिन मुख्य मार्ग तक हमें लेने आये और घर तक पहुंचाने वाले मदनलाल के परिवार के सदस्य के चेहरे पर लेशमात्र भी शिकन न थी। जाहिर है यह इनके लिये रोजमर्रा की दिनचर्या का हिस्सा था। वहां पहुंचकर देखा कि मदनलाल का पूरा परिवार तल्लीनता से अपने काम में लगा हुआ है।

    मदनलाल बताते हैं कि उनका परिवार आकर्षक डिझाईन के दीयों के साथ-साथ कई प्रकार के मिट्टी के सुन्दर बर्तन भी बनाता है। माटी के बनाये बर्तनों को नई डिझाईन देकर आधुनिकता से जोड़ने का काम और वर्तमान में उनकी पहुंच मॉड्यूलर किचन तक बनाने का काम उन्होंने कुछ साल गुजरात में रहकर सीखा। मदनलाल ने वहां बर्तन बनाकर बेचना भी शुरू किया था, परन्तु गुजरात में उन्हें इतना मुनाफा नहीं मिलता था। श्री मदनलाल ने सोचा कि क्यों न अपने मध्य प्रदेश में जाकर गांव में अपने घर से ही व्यवसाय शुरू करें।
    बर्तन और दीये बनाने के लिये मिट्टी गुजरात के मोरवी और थान से लाते हैं मदनलाल। दीयों और मटकों के अलावा पानी को प्राकृतिक रूप से ठण्डा करने वाले मिट्टी की बोतल, कुल्हड़, मिट्टी की थाली, तवा, सब्जी बनाने की कढ़ाई, भरतिया, दही की हांडी और ऐसे ही अनगिनत किस्म के बर्तनों को बनाने का काम रोज किया जाता है। माटी के बर्तनों का प्रयोग उन्हें प्रकृति से जोड़ता है। साथ ही प्लास्टिक के डिस्पोजल बर्तनों की जगह यह एक बहुत अच्छा विकल्प है। इन बर्तनों में पकाये जाने वाले व्यंजनों का स्वाद माटी की सौंधी महक से कई गुना बढ़ भी जाता है। इस वजह से माटी के बर्तनों की मांग में निरन्तर वृद्धि हो रही है।

   मदनलाल ने बताया कि उनके द्वारा बनाये गये दीये और बर्तन पूरे प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भी बिक्री के लिये जाते हैं। इसे उन्हें प्रतिमाह 30 से 40 हजार रुपये तक का मुनाफा मिल रहा है। वहीं शासन की ओर से अब ऋण स्वीकृत हो जाने से वे अपने व्यापार को बड़े स्तर पर कर सकेंगे। दीये बनाने के लिये मदनलाल के पास 30 अलग-अलग प्रकार की डिझाईनों के सांचे हैं, जिनसे दीपावली पर फेंसी दीये बनाये जाते हैं। कच्चे दीये को दो दिनों तक भट्टी में पकाने के बाद उनकी पैकिंग की जाती है।
    इसी तरह की प्रक्रिया मिट्टी के बर्तन बनाने में अपनाई जाती है। बस अन्तर इतना है कि भट्टी से निकालने के बाद बर्तनों का रंग-रोगन किया जाता है। प्रतिवर्ष दीये और बर्तन बनाने के लिये तकरीबन 100 से 150 टन मिट्टी की जरूरत पड़ती है। बर्तनों को बनाने के लिये एक विशेष प्रकार की काली मिट्टी का प्रयोग किया जाता है, जो पकने के बाद अपने आप सफेद हो जाती है। उन्हें रंगने की जरूरत नहीं पड़ती। मदनलाल अपने व्यापार को बढ़ाने के लिये जिस प्रकार की आर्थिक सहायता चाहते थे, वह सरकार की ओर से मिल जाने पर आभार व्यक्त करते हैं।

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