लघुपत्रिका निकालना बेहद जौखिम भरा है- डॉ श्रीराम परिहार
आज 22 भाषाओं में लगभग 5000 लघुपत्रिकाएँ निकल रही है, उनके ग्राहक मर रहे है, उन पत्रिकाओं को पुनर्जीवित करना होगा
उज्जैन। लघु पत्रिकाओं ने जहां लेखकों को रचनाधर्मिता के आधार पर रेखांकित किया है वही उन्हें एक प्लेटफार्म भी दिया है। जिसके माध्यम से वह अपनी बात कह पाने में सक्षम हुए है। आज लघुपत्रिकाओं की बात करें तो वे बिना सरकारी मदद के निकल रही है, बेशक उनकी संख्या अब बहुत ज्यादा नहीं रह पाई है, पर फिर भी अपने संसाधनों के साथ पाठक जगत में पकड़ बनाये हुई है। अब वह समहुत, आधुनिक साहित्य, कथन, हँस, परिकथा, सद्भावना दर्पण, पाखी, प्रवासी संसार, छत्तीसगढ़ मित्र, व्यंग्ययात्रा प्रेम जनमेजय द्वारा संपादित ईत्यादि अनेक पत्रिकाएं है जो निकल रही है और अपना वजूद बनाये रखने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है। इसमें आस-पास, भोपाल से, विभोम स्वर, सीहोर से, खंडवा से अक्षत इंदौर से वीणा आदि पत्रिकाएं है जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
उज्जैन पुस्तक मेले में गुरूवार को आयोजित वर्तमान दौर में लघु पत्रिकाओं को भूमिका पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। जिसमें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के लेखकों व शिक्षाविदों ने भागीदारी की। इसमें बाँसुरी के सम्पादक डॉ देवेंद्र जोशी, डॉ राकेश पांडेय, संपादक प्रवासी संसार, दिल्ली, श्रीराम परिहार खंडवा ने परिचर्चा को नया आयाम दिया। पल-प्रतिपल के संपादक देश निर्मोही ने भी लघुपत्रिकाओं के प्रति अपनी चिंताएं जाहिर की।
इस मौके पर डॉ देवेंद्र जोशी ने विस्तार से विषय पर बोलते हुए कहा कि लघुपत्रिका आज एक ऐसी शक्ति है जिसने व्यापक स्तर पर पठनीयता के प्रति माहौल बनाया है। प्रवासी संसार के संपादक डॉ राकेश पांडेय ने कहा आज के इंटरनेट के युग में कोई पत्रिका लघु नहीं है, क्योंकि इंटरनेट पर आने वाली हर पत्रिका के हजारों लाखों पाठक बन गए हैं। किसी पत्रिका के लघु होने का मानक उसका अर्थशास्त्र नहीं हो सकता, बल्कि उसकी सार्थकता उसके पाठकों और उसकी सामग्री से है। लघु पत्रिकाएं समाज का और वर्तमान का सच्चा आईना होती हैं। वह मन की बात, मन से करती है। आज समाज बदल रहा है। युवा जिज्ञासा से भरे हुए हैं, वह कल्पना से अधिक यथार्थ में जीते हैं। ऐसे समय में किसी भी पत्रिका द्वारा कोई सार्थक सामग्री न दे पाने पर वह अधिक दिन नहीं चल सकती। देश के साथ-साथ विदेशों में भी हिंदी की अनेक लघु पत्रिकाएं निकलती हैं और साथ ही बहुत सी अतीत में पत्रिकाएं निकली, उन्होंने अपना इतिहास बनाया। आज भी उन्हें रेखांकित करना महत्वपूर्ण होगा ताकि हम अपने युवा रचनाकारों को और पाठकों को बता पाए कि हमारा अतीत कितना समृद्ध है।
अक्षत पत्रिका के संपादक खंडवा से पधारे विद्वान व सत्र के अध्यक्ष डॉ श्रीराम परिहार ने कहा शब्द की साधना करने वाले सभी शब्दाशिल्पियों के प्रति मैं नमन करता हूँ। कबीर की उक्तियों को पाठ करते हुए डॉ परिहार ने कहा कि 600 साल बाद भी कबीर का दोहा आज प्रासंगिक है। अपने सीमित संसाधनों से किसी पत्रिका को निकालना बिल्कुल वैसे ही है जैसे घर फूंक तमाशा देखना है। आज पत्रिका निकालना बेहद जौखिम भरा काम है। निज के पैसे से पत्रिकाएं निकालना बड़ा कष्टकर प्रयास है। आज किस दौर में पत्रिकाएं निकल रही है, ये सोचने का विषय है। धनबल, बाहुबल और मस्तिक्ष बल आदि ये तीन क्रियाएं है जो अपनी भूमिका निभाने में समर्थ है। आज 22 भाषाओं में लगभग 5000 लघुपत्रिकाएँ निकल रही है। उनके ग्राहक मर रहे है। उन पत्रिकाओं को पुनर्जीवित करना होगा। आसामियों को आगे आना पड़ेगा। सब कुछ मानवविरोधी समय में पत्रिकाएं निकल रही है, ये बड़ी बात है। आज मशीनीकरण के युग में आदमी को दृष्टि कुंद होती गई है। लघुपत्रिकाओ की आज भी बड़ी भूमिका है। उसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। परिचर्चा का संचालन युवा सम्पादक संदीप सृजन ने किया। उल्लेखनीय लोगों में डॉ शिव चैरसिया, डॉ बलराम अग्रवाल, कोमल वाधवानी, आशा गंगा शिदोंकर, शैलेन्द्र पराशर शामिल थे।