संसार की पीड़ा को हरने श्रावण मास में ही भोले ने किया था हलाहल विष को धारण, इसलिए जलाभिषेक का है महत्व
हमारी पौराणिक मान्यता में तीनों देवताओं के पास चार-चार मास सृष्टि का उत्तरदायित्व उल्लिखित है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से विष्णु शिव को सृष्टि का उत्तरदायित्व सौंपकर विश्राम-काल में चले जाते हैं। इस एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। आषाढ़ मास के बाद श्रावण मास आता है। श्रावण मास को मासोत्तम मास कहा जाता है। इसके साथ जुड़े सभी दिन धार्मिक रंग और आस्था में डूबे होते हैं।
शास्त्रों में श्रावण के महात्म्य पर विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है। श्रवण नक्षत्र तथा सोमवार से भगवान शिव शंकर का गहरा संबंध है। धर्म और आस्था का अटूट गठजोड़ हमें इस माह में दिखाई देता है इस माह की प्रत्येक तिथि किसी न किसी धार्मिक महत्व के साथ जुड़ी हुई होती है।
भारतीय पंचांग के अनुसार सभी मास किसी-न-किसी देवता से संबंधित है। श्रावण भगवान शिव से संबद्ध है। इस समय शिव आराधना का विशेष महत्व होता है। यह माह आशाओं की पूर्ति का समय होता है जिस प्रकार प्रकृति ग्रीष्म के थपेड़ों को सहती हुई श्रावण की बौछारों से अपनी प्यास बुझाती हुई असीम तृप्ति एवं आनंद को पाती है उसी प्रकार प्राणियों के जीवन के सूनेपन को दूर करने हेतु यह माह भक्ति और पूर्ति का अनूठा संयोग सिद्ध होता है।
भारतीय कैलेंडर के अनुसार श्रावण पांचवा महीना है जिसकी शुरुआत चैत्र मास से होती है। श्रावण मास को वर्ष का सबसे पवित्र महीना माना जाता है। इस माह का हर दिन पवित्र होता है। श्रावण का महीना भगवान शिव और विष्णु का आशीर्वाद लेकर आता है। महादेव के भक्तों के लिए यह महीना काफी महत्व रखता है।
शिव का अर्थ होता है - 'कल्याण"। पंचदेव के पूजन में भगवान शिव मुख्य देवता कहलाते हैं। शिव महिमा के स्तोत्र में पुष्पदंत ने इनकी महिमा का वर्णन विशद रूप से किया है। पुष्पदंत कहते हैं कि अजन्मा होने पर भी अपनी शक्ति के बल पर मानवता के निर्माता, पोषणकर्ता और संहारक का पद प्राप्त हुआ है। हर प्राणी के अस्तित्व के पीछे भी यही हैं।
शिवलिंग पर जलाभिषेक का महत्व
इस श्रावण मास में शिव भक्त ज्योर्तिलिंगों के दर्शन एवं जलाभिषेक करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त करता है तथा शिवलोक को पाता है। श्रावण में शिव के जलाभिषेक के संदर्भ में एक कथा बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार जब देवों ओर राक्षसों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए सागर मंथन किया तो उस मंथन समय समुद्र में से अनेक पदार्थ निकले और अमृत कलश से पूर्व कालकूट विष भी निकला।
उसकी भयंकर ज्वाला से समस्त ब्रह्माण्ड जलने लगा इस संकट से व्यथित समस्त जन भगवान शिव के पास पहुंचे और उनके समक्ष प्राथना करने लगे, तब सभी की प्रार्थना पर भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने हेतु उस विष को अपने कंठ में उतार लिया और उसे वहीं अपने कंठ में अवरूद्ध कर लिया।
जिससे उनका कंठ नीला हो गया समुद्र मंथन से निकले उस हलाहल के पान से भगवान शिव भी तपन को सहा अत: मान्यता है कि वह समय श्रावण मास का समय था। उस तपन को शांत करने हेतु देवताओं ने गंगाजल से भगवान शिव का पूजन व जलाभिषेक आरंभ किया, तभी से यह परंपरा आज भी चली आ रही है। प्रभु का जलाभिषेक करके समस्त भक्त उनकी कृपा को पाते हैं और उन्हीं के रस में विभोर होकर जीवन के अमृत को अपने भीतर प्रवाहित करने का प्रयास करते हैं।
श्रावण में कांवड़ यात्रा की कथा
पौराणिक मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि जब देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन हो रहा था तब उस मंथन से 14 रत्न निकले। उन चौदह रत्नों में से एक हलाहल विष भी था, जिससे सृष्टि नष्ट होने का भय था। तब सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने उस विष को पी लिया और उसे अपने गले से नीचे नहीं उतरने दिया। विष के प्रभाव से महादेव का कंठ नीला पड़ गया और इसी कारण उनका नाम नीलकंठ पड़ा। कहते हैं रावण शिव का सच्चा भक्त था। वह कांवर में गंगाजल लेकर आया और उसी जल से उसने शिवलिंग का अभिषेक किया और तब जाकर भगवान शिव को इस विष से मुक्ति मिली।
श्रावण माह का महत्व:
दरअसल दक्ष पुत्री सती ने अपने जीवन को त्याग कर दोबारा हिमालय राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया। पार्वती भगवान शिव को पति के रूप में पाना चाहती थी और इसके लिए उन्होंने पूरे श्रावण माह में कठोर तप किया। पार्वती की भक्ति से शिवजी प्रसन्ना हुए और उनकी मनोकामना पूरी की। अपनी भार्या के पुन: मिलन के कारण शिवजी को श्रावण मास अत्यंत प्रिय है।
श्रावण के सोमवार का महत्व:
सोमवार का प्रतिनिधि ग्रह चंद्रमा है, जो कि मन का कारक है। चंद्रमा भगवान शिव के मस्तक पर विराजित है। भोलेबाबा स्वयं साधक और भक्त के मन को नियंत्रित करते है। यही कारण है कि सोमवार का दिन शिवजी की पूजा के लिए विशेष माना जाता है। जिसमें श्रावण के सोमवार पर शिवलिंग की पूजा करने पर विशेष फल की प्राप्ति होती है। इस दिन स्त्री, पुरूष तथा खासकर कुंवारी लड़कियां भगवान शिव को प्रसन्ना करने के लिए व्रत रखती है।
शिव पूजा में रखें ध्यान :
शिव पूजा में कुछ चीजें वर्जित हैं, इनका खासतौर पर ध्यान रखा जाता है :
1. सिंदूर या कुमकुम: शिवपूजा में शास्त्रों में शिवलिंग पर कुमकुम और रोली चढ़ाना निषेध माना गया है। क्योंकि महादेव त्रिदेवों में विनाशक है। जबकि भोलेनाथ वैरागी है ऐसे में संहारकर्ता की सिंदूर से पूजा करना अशुभ माना जाता हैै। बल्कि चंदन से उनकी पूजा की जाती है।
2. तुलसी: यूं तो तुलसी अत्यधिक पवित्र मानी जाती है लेकिन भगवान शिव पर तुलसी चढ़ाना निषिद्ध है। दरअसल ऐसी मान्यताएं है कि शिवजी ने तुलसी के पति असुर जालंधर का वध किया था, ऐसे में तुलसी शिवजी को नहीं चढ़ाई जाती। वहीं एक अन्य कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने तुलसी को पत्नी रूप में स्वीकार किया। इस कारण तुलसी दल शिव को अर्पित नहीं किया जाता।
3. शंख: भगवान शिव ने शंखचूड़ नामक असुर का वध किया था। शंख को उसी असुर का प्रतीक माना जाता है। इसी कारण शिव को शंख से जल अर्पित नहीं किया जाता।