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खास किस्‍म के वृक्ष से बनती है भगवान जगन्‍नाथ की मूर्ति



 मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ के स्मरणमात्र से प्राणीमात्र का उद्धार हो जाता है। इनके दर्शन से जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा मिलता है और सुख-समृद्धि पूर्ण जीवन की प्राप्ति के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। जगन्नाथ मंदिर में रहस्यों की कई परतें और संस्कारों के कई आयाम समाए हुए हैं। इसके कारण दूसरों मंदिरों की अपेक्षा इस मंदिर का महत्व काफी बढ़ जाता है। ' रथयात्रा' इस मंदिर सबसे खास महोत्सव है। इसी तरह मंदिर का एक प्रमुख अनुष्ठान 'नवकलेवर' है। नवकलेवर का अर्थ होता है नया शरीर। नवकलेवर के अंतर्गत जगन्नाथ मंदिर में स्थापित भगवान जगन्नाथ, बालभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन की पुरानी मूर्ति को बदलकर नई मूर्तियों को स्थापित किया जाता है।

आषाढ़ के दो मास होने पर होता है नवकलेवर का आयोजन
नवकलेवर का आयोजन उस वक्त किया जाता है जब हिन्दू कैलेंडर के अनुसार एक ही वर्ष में आषाढ़ के दो माह होते हैं। यह संयोग 12 अथवा 19 वर्षों में केवल एक बार ही होता है। पिछली बार नवकलेवर संस्कार 18 जुलाई 2015 में किया गया था। इसके अंतर्गत भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की काष्ठ प्रतिमाएं बनाई जाती है। मूर्तियां विशेष किस्म की नीम की लकड़ी से ही बनाई जाती है और इसको स्थानीय भाषा में 'दारू ब्राह्मण' कहा जाता है।इस विशेष, रहस्यमयी और शास्त्रोक्त अनुष्ठान के दौरान 'ब्रहम शक्ति' भी पुरानी मूर्ति से नई मूर्ति में स्थानांतरित की जाती है। इस संस्कार की शुरुआत जगन्नाथ को दोपहर का भोग लगाने के बाद की जाती है।​

पति महापात्र परिवार करता है नीमवृक्ष की खोज
भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के लिए एक विशेष माला तैयार की जाती है जिसको 'धन्व माला' कहा जाता हैं। धन्व माला 'पति महापात्र परिवार' को सौपी जाती है, पति महापात्र परिवार ही पुरी से 50 किलोमीटर दूर काकतपुर क्षेत्र तक मूर्तियों के लिए लकड़ी खोजने वाले दल का नेतृत्व करता है। वृक्ष की खोज करने वाला दल की यात्रा के दौरान पुरी के राजमहल में ठहरने की व्यवस्था होती है दल का और सबसे बड़ा दैतापति माँ मंगला के मंदिर में रात बिताता है, जो महल के नजदीक स्थित है। मंदिर में सोने वाले दैतापति को सपने में आकर देवी उसको उस नीम वृक्ष के संबंध में बताती है जिसी लकड़ियों से मूर्तियों को बनाया जाना है।​

दुर्लभ नीम वृक्ष की होती है तलाश
जिस नीमवृक्ष से मूर्तियों का निर्माण किया जाना है, उसमें और उसके आसपास कई खास बातों का समावेश होना चाहिए। भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला है इसलिए उनकी मूर्ति के लिए सांवले रंग के नीमवृक्ष की तलाश की जाती है। भगवान बलराम और सुभद्रा गौरवर्णी है इसलिए उनकी मूर्ति के लिए हल्के रंग की लकड़ी वाले नीमवृक्ष की तलाश की जाती है। जिस वृक्ष से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति का निर्माण किया जाना है उसमें भगवान की चार भुजाओं की प्रतीक चार शाखाएं होना आवश्यक हैं। इसके साथ ही वृक्ष में पद्म, शंख, चक्र और गदा के चिन्ह भी होने चाहिए। वृक्ष की शाखाएं क्षतिग्रस्त नहीं होना चाहिए और उसकी डालियों पर कोई घोंसला भी नहीं होना चाहिए। इसके अलावा वृक्ष के आसपास कुछ खास लक्षणों को होना भी जरूरी है। वृक्ष ऐसी जगह पर स्थित होना चाहिए जहां पर नजदीक जलाशय, शमशान और चीटियों का टीला हो।

मंत्रोत्तार के साथ विधि-विधान के साथ काटे जाते हैं वृक्ष
इसके साथ वृक्ष जहां पर स्थित हो वहां पर एक तिराहा या वह स्थान तीन पहाड़ों से घिरा होना चाहिए। उस वृक्ष पर कोई लता न उगी हो, लेकिन उसके नजदीक बेल और सहदा के वृक्ष का भी होना जरूरी है। यदि वृक्ष की तलाश में ये सारी बातें मिल जाती है तो इस दुर्लभ और पवित्र वृक्ष के आसपास शिव मंदिर का होना भी आवश्यक है। वृक्ष की तलाश की सारी प्रक्रिया पूर्ण होने और वृक्ष के मिल जाने पर उन वृक्षों को मंत्रोच्चार के साथ काटा जाता है। वृक्षों की लकड़ियों को रथों पर रखकर दैतापति जगन्नाथ मंदिर लाते हैं और वहां पर उनको तराशकर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा का काष्ठ प्रतिमाएं बनाई जाती हैं।

आंखों पर पट्टी बांधकर ब्रह्मशक्ति को रखा जाता है नई मूर्ति में
मूर्तियां बदलने का शास्त्रोक्त समारोह रथ यात्रा से तीन दिन पहले आयोजित किया जाता है, पुरानी मूर्ति में स्थापित ''ब्रहमा शक्ति' या 'पिंड' को पुरानी मूर्ति से निकालकर नई मूर्ति में लगाया जाता है। मूर्तियां बदलने के लिए कड़े नियमों का पालन करना होता है। वृक्ष की तलाश के लिए चुने गए दल को खोज के पहले दिन से ही नाख़ून, दाढ़ी, बाल आदि काटने की अनुमति नहीं होती। पिंड बदलने से पहले दैतापतियों की आँखों पर पट्टी और हाथों पर कपड़ा बाँधा जाता है। सुबह होने से पहले ही मध्यरात्रि को पुरानी मूर्तियों को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस संस्कार को किसी को भी देखने की अनुमति नहीं होती है। ऐसा कहा जाता है कि यदि कोई इस प्रक्रिया को देख ले तो उसकी मृत्यु हो जाती है, इसलिए इस प्रक्रिया के दौरान पुरे शहर की बिजली भी बंद कर दी जाती है। और इसके अगले दिन नवनिर्मित मूर्तियों को मंदिर के गर्भगृह में सिंहासन पर विराजित किया जाता है।

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