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वट सावित्री पूर्णिमा : पति के सौभाग्‍य और लम्‍बी आयु के लिए महिलाऐं करेंगी वट की पूजा


रविवार, 16 जून को है। ज्येष्ठ मास की इस पूर्णिमा वट सावित्री व्रत किया जाता है। महिलाएं अपने पति के सौभाग्य और लंबी उम्र के लिए ये व्रत करती हैं। वट सावित्री व्रत स्कन्द और भविष्योत्तर के अनुसार, ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को और निर्णयामृतादि के अनुसार, अमावस्या को किया जाता है। ज्येष्ठ मास के व्रतों में 'वट सावित्री व्रत" एक प्रभावी व्रत है। इसमें वट वृक्ष की पूजा की जाती है। महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य एवं कल्याण के लिए यह व्रत करती हैं।

वट सावित्री एक ऐसा व्रत जिसमें हिंदू धर्म में आस्था रखने वाली स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र और संतान प्राप्ति की कामना से करती हैं। उत्तर भारत में तो यह व्रत काफी लोकप्रिय है। वट सावित्री पूर्णिमा व्रत दक्षिण भारत में किया जाता है, वहीं वट सावित्री अमावस्या व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से किया जाता है।

इस व्रत की तिथि को लेकर पौराणिक ग्रंथों में भी भिन्ना-भिन्ना मत मिलते है। दरअसल इस व्रत को ज्येष्ठ माह की अमावस्या और इसी मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। एक और जहां निर्णयामृत के अनुसार वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को किया जाता है तो वहीं स्कंद पुराण एवं भविष्योत्तर पुराण इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा पर करने का निर्देश देते हैं।

वट सावित्री व्रत कथा 
वट सावित्री व्रत की यह कथा सत्यवान-सावित्री के नाम से उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित हैं। इस कथा के अनुसार एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा का राज था। उनकी कोई भी संतान नहीं थी। राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।

विवाह योग्य होने पर सावित्री ने अपने लिए द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया। सत्यवान वैसे तो राजा का पुत्र था लेकिन उनका राज-पाट छिन गया था और अब वह बहुत ही द्ररिद्रता का जीवन जी रहे थे। उसके माता-पिता की भी आंखों की रोशनी चली गई थी। सत्यवान जंगल से लकड़ियां काटकर लाता और उन्हें बेचकर जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहा था।

जब सावित्री और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्री के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं और विवाह के एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। हालांकि राजा अश्वपति सत्यवान की गरीबी को देखकर पहले ही चिंतित थे और सावित्री को समझाने की कोशिश में लगे थे। नारद की बात ने उन्हें और चिंता में डाल दिया लेकिन सावित्री ने एक न सुनी और अपने निर्णय पर अडिग रही।

अंतत: सावित्री और सत्यवान का विवाह हो गया। सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु का जो दिन बताया था, उसी दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई। वन में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया।

कुछ देर बाद उनके समक्ष अनेक दूतों के साथ स्वयं यमराज खड़े हुए थे। जब यमराज सत्यवान के जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे, पतिव्रता सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी। आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, 'हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम लौट जाओ।" इस पर सावित्री ने कहा- 'जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए।

यही सनातन सत्य है।" यमराज सावित्री की वाणी सुनकर प्रसन्ना हुए और उसे वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा- 'मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें।"यमराज ने 'तथास्तु" कहकर उसे लौट जाने को कहा और आगे बढ़ने लगे। किंतु सावित्री यम के पीछे ही चलती रही। यमराज ने प्रसन्न होकर पुन: वर मांगने को कहा। सावित्री ने वर मांगा-'मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए।"यमराज ने 'तथास्तु" कहकर पुन: उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अपनी बात पर अटल रही और वापस नहीं गयी।

सावित्री की पति भक्ति देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री से एक और वर मांगने के लिए कहा। तब सावित्री ने वर मांगा-'मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं, कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें।" सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्ना हो इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान की जीवात्मा को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गए।

सावित्री जब उसी वट वृक्ष के पास आई तो उसने पाया कि वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हो रहा है। कुछ देर में सत्यवान उठकर बैठ गया। उधर सत्यवान के माता:पिता की आंखें भी ठीक हो गईं और उनका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया।

वट सावित्री व्रत पूजा विधि 
वट सावित्री व्रत में वट यानि बरगद के वृक्ष के साथ-साथ सत्यवान-सावित्री और यमराज की पूजा की जाती है। माना जाता है कि वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देव वास करते हैं। अत: वट वृक्ष के समक्ष बैठकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। वट सावित्री व्रत के दिन स्त्रियां

सुबह ाान करके के पश्चात रेत से भरी एक बांस की टोकरी में ब्रहमदेव की मूर्ति के साथ सावित्री की मूर्ति की स्थापना करती हैं। इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्तियां स्थापित करती हैं। दोनों टोकरियों को वट के वृक्ष के नीचे रखकर पहले ब्रहमदेव और सावित्री की मूर्तियों की और फिर सत्यवान और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करती हैं और वट वृक्ष को जल देती हैं।

वट-वृक्ष की पूजा हेतु जल, फूल, रोली-मौली, कच्चा सूत, भीगा चना, गुड़ इत्यादि चढ़ाएं जाते हैं और और जलाभिषेक किया जाता है। वट वृक्ष के तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेट कर तीन बार परिक्रमा कर वट सावित्री व्रत की कथा सुनी जाती हैं। दक्षिण में महिलाएं अपने रिश्तेदार और पड़ोसी महिलाओं की भीगे चने और आम से गोद भरती हैं।

वट वृक्ष का महत्व
वट देव वृक्ष है। वट वृक्ष के मूल में भगवान ब्रह्मा, मध्य में जनार्दन विष्णु तथा अग्रभाग में देवाधिदेव शिव स्थित रहते हैं। देवी सावित्री भी वट वृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं। इसी अक्षय वट के पत्रपुटक पर प्रलय के अन्तिम चरण में भगवान श्रीकृष्ण ने बालरूप में मार्कण्डेय ऋषि को प्रथम दर्शन दिया था।

प्रयागराज में गंगा के तट पर वेणीमाधव के निकट अक्षय वट प्रतिष्ठित है। इस तरह की परंपराओं का एक लक्षय स्त्रियों में पर्यावरण और वृक्षों के प्रति जागरूकता फैलाना है। वृक्षों की पूजा का विधान इसलिए है ताकि हम अपने इर्द-गिर्द पेड़ रखें।

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