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होली के सातवें दिन किया जाता है शीतला सप्‍तमी का व्रत, बासा खाना खाने से होता है ऋतु परिवर्तन के साथ अनुकूलन



होली के सात दिन बाद चैत्र मास में कृष्ण पक्ष की सप्तमी को और कहीं-कहीं अष्टमी को शीतला व्रत किया जाता है। मालवा-निमाड़ में सप्तमी और उत्तर-प्रदेश में अष्टमी के दिन देवी शीतला की पूजा करने के बाद रात का बना खाना खाकर इस व्रत को किया जाता है।

सर्दी के जाने और गर्मी के आने से पहले की ऋतु वसंत संक्रमणकालीन ऋतु कहलाती है। इसमें प्रकृति भी अनुकूलन करने के लिए परिस्थिति मुहैया कराती है और हमारी परंपराएं भी। होली और शीलता सप्तमी ऐसे ही त्योहार हैं।

शीतला सप्तमी, शीतला सातम, शीतला अष्टमी, बसोड़ा, ठंडा-बासी और राधा-पुआ कई नामों से जाने वाले इस अनूठे त्योहार के दिन पारंपरिक रूप से घरों में चूल्हा नहीं जलाया जाता है। चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी और कहीं-कहीं अष्टमी को यह त्योहार मनाया जाता है। शीतला देवी की पूजा और उपासना का यह त्योहार हमारे खान-पान को मौसमानुकूल करने की परंपरा के पालन के लिए है। शीतला माता की पूजा बहुत विधि-विधान से की जाती है और इसमें साफ-सफाई और शुद्धता का बहुत ध्यान रखा जाता है।

पूजा विधि
शीतला सप्तमी या अष्टमी की तैयारी एक दिन पहले से की जाती है। अलग-अलग जगह अलग-अलग तरह के भोजन की परंपरा है। लेकिन दही इस दिन के नेवैद्य का मुख्य पदार्थ होता है।

सप्तमी की पूजा करने वाले परिवारों में छठ की शाम और अष्टमी की पूजा करने वाले परिवारों में सप्तमी की शाम को मीठे चावल, खाजा, चूरमा, नमक पारे, शकर पारे, बेसन चक्की, पुए, पकौड़ी, पूरी, रबड़ी, बाजरे की रोटी, सब्जी आदि बना ली जाती है।

खाना बनाए जाने वाली रात को खाना बना लेने के बाद रसोईघर की साफ-सफाई फिर से की जाती है और फिर पूजा की जाती है। रोली, मौली, पुष्प, वस्त्र आदि अर्पित कर रसोई घर की पूजा करें और फिर उसके बाद अगले दिन चूल्हा नहीं जलाएं।

पूजा वाले दिन ठंडे पानी से स्नान किया जाता है। यह इस बात का भी संकेत हैं कि अब गर्मी आ चली है, इसलिए नहाने के लिए ठंडे पानी का इस्तेमाल शुरू किया जा सकता है। पूजन सामग्री में रोली, चावल, मेंहदी, काजल, हल्दी, मौली, वस्त्र, माला, फूल और सिक्के के साथ नेवैद्य भी पूजा की थाली में रखे जाते हैं।

लोटे में पानी रखकर बिना नमक डाले गूंथे आटे से एक छोटा दीपक बनाया जाता है। शीतला माता के मंदिर में पूजा की जाती है। दीपक पूरी तरह से तैयार तो किया जाता है, लेकिन इसे जलाया नहीं जाता है। ऐसे ही देवी के समक्ष अर्पित कर दिया जाता है।

मान्यता है कि इस दिन के बाद से अब रात का बचा हुआ भोजन ग्रहण करना बंद कर दिया जाना चाहिए। इस दिन से शीतल प्रकृति वाले खाद्य पदार्थ खासतौर पर दही को अपने भोजन में शामिल किया जाना चाहिए। पारंपरिक मान्यता के अनुसार इस व्रत को करने से देवी प्रसन्ना होती है और व्रती के कुल में समस्त शीतलाजनित दोष जैसे दाहज्वर, पीतज्वर, चेचक, दुर्गंधयुक्त फोड़े, नेत्र विकार आदि दूर होते हैं।

स्वच्छता है प्रतीक
शीलता माता असल में गर्मियों के मौसम में अतिरिक्त साफ-सफाई रखने का संकेत देती है। क्योंकि इन्हीं दिनों तरह-तरह की बीमारियों के पनपने का डर रहता है। शीतला माता के चित्र को देखेंगे तो पाएंगे कि गर्दभ पर सवार देवी अपने हाथ में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते ध्ाारण किए हुए है। पारंपरिक मान्यता है कि शीतला माता का पूजन करने से चेचक, खसरा आदि रोगों से बचाव होता है। शीतला माता भगवती दुर्गा का ही एक रूप मानी जाती है। इसी दिन गणगौर पूजा के लिए जवारे बोए जाते हैं।

व्रत कथा
शीतला सप्तमी के व्रत की कई कथाएं प्रचलित हैं एक कथा के अनुसार एक बार शीतला सप्तमी के दिन एक बुढ़िया व उसकी दो बहुओं ने व्रत रखा। उस दिन सभी को बासी भोजन ग्रहण करना था। इसलिये पहले दिन ही भोजन पका लिया गया था। लेकिन दोनों बहुओं को कुछ समय पहले ही संतान की प्राप्ति हुई थी।

कहीं बासी भोजन खाने से वे व उनकी संतान बीमार न हो जाएं इसलिये बासी भोजन ग्रहण न कर अपनी सास के साथ माता की पूजा अर्चना के पश्चात पशुओं के लिए बनाए गए भोजन के साथ अपने लिए भी रोट सेंक कर उनका चूरमा बनाकर खा लिया। जब सास ने बासी भोजन ग्रहण करने की कही तो काम का बहाना बनाकर टाल गई।

उनके इस कृत्य से माता कुपित हो गई और उन दोनों के नवजात शिशु मृत मिले। जब सास को पूरी कहानी पता चली तो उसने दोनों को घर से निकाल दिया। दोनों अपने शिशु के शवों को लिये जा रही थी कि एक बरगद के पास रुक विश्राम के लिए ठहर गई। वहीं पर ओरी व शीतला नामक दो बहनें भी थी जो अपने सर में पड़ी जुओं से बहुत परेशान थी।

दोनों बहुओं को उन पर दया आयी और उनकी मदद की सर से जुएं कम हुई तो उन्हें कुछ चैन मिला और बहुओं को आशीष दिया कि तुम्हारी गोद हरी हो जाए उन्होंने कहा कि हरी भरी गोद ही लुट गई है इस पर शीतला ने लताड़ लगाते हुए कहा कि पाप कर्म का दंड तो भुगतना ही पड़ेगा।

बहुओं ने पहचान लिया कि साक्षात माता हैं तो चरणों में पड़ गई और क्षमा याचना की, माता को भी उनके पश्चाताप करने पर दया आयी और उनके मृत बालक जीवित हो गये। तब दोनों खुशी-खुशी गांव लौट आयी। इस चमत्कार को देखकर सब हैरान रह गये। इसके बाद पूरा गांव माता को मानने लगा।

एक अन्य कथा के अनुसार प्राचीन समय में एक साहूकार था, जिसके सात पुत्र थे। साहूकार ने समय के अनुसार सातों पुत्रों की शादी कर दी, परंतु कई वर्ष बीत जाने के बाद भी सातों पुत्रों में से किसी के घर संतान का जन्म नहीं हुआ। पुत्र वधुओं की सूनी गोद को देखकर साहूकार की पत्नी दुखी रहती थी।

एक दिन एक वृद्ध स्त्री साहूकार के घर से गुजर रही थी और साहूकार की पत्नी को दुखी देखकर उसने दुख का कारण पूछा। साहूकार की पत्नी ने उस वृद्ध स्त्री को अपने मन की बात बताई। इस पर स्त्री ने कहा कि आप अपनी सातों पुत्र वधुओं के साथ मिलकर शीतला माता का व्रत और पूजन करें, इससे शीतला माता प्रसन्ना हो जाएंगी और आपके सातों पुत्रों के यहां संतान जन्म लेगी।

साहूकार की पत्नी तब माघ मास की शुक्ल पक्षी की षष्ठी तिथि को अपनी सातों बहुओं के साथ मिलकर उस वृद्धा के बताए विधान के अनुसार माता शीतला का व्रत किया। माता शीतला की कृपा से सातों बहुएं गर्भवती हुईं और समय आने पर सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। समय का चक्र चलता रहा और माघ शुक्ल षष्ठी तिथि आई लेकिन किसी को भी माता शीतला के व्रत का ध्यान नहीं आया।

इस दिन सबने गर्म पानी से स्नान किया और गर्म भोजन किया। माता शीतला इससे कुपित हो गईं और साहूकार की पत्नी के स्वप्न में आकर बोलीं कि तुमने मेरे व्रत का पालन नहीं किया इसलिए तुम्हारे पति का स्वर्गवास हो गया। स्वप्न देखते ही साहूकार की पत्नी पागल हो गई और भटकते-भटकते घने वन में चली गई।

वन में साहूकार की पत्नी ने देखा कि जिस वृद्धा ने उसे शीतला माता का व्रत करने के लिए कहा था वह अग्नि में जल रही है। उसे देखकर साहूकार की पत्नी चौंक गई उसे अहसास हो गया कि यह शीतला माता है। अपनी भूल का पश्चाताप करते हुए उसने माता से क्षमायाचना की। देवी ने उससे कहा कि मेरे शरीर पर दही का लेपन करो इससे तुम्हारे पर जो दैविक ताप है वह समाप्त हो जाएगा। साहूकार की पत्नी ने तब शीतला माता के शरीरपर दही का लेपन किया। साहूकार के प्राण लौट आए।

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