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संगम का पहला स्नान, उमड़ रहा जनसैलाब


कुंभनगर। भारतीय संस्कृति, संस्कार, धर्म, आस्था, भावनाओं और मान्यताओं का करिश्मा ही है कि गागर (कुंभ) में जन-सागर समाता जा रहा है। मंगलवार को कुंभ का पहला शाही स्नान है। पल-पल श्रद्धा की लहरों का उफान बढ़ता जा रहा है। ये देश-दुनिया के छोर से चले हैं और किनारा एक ही है- संगम तट। मगर, इसकी अमृत बूंदों से प्रयागराज का चप्पा-चप्पा सराबोर है या यूं कहें कि पूरा शहर पावन गंगा के विस्तारित तट की ही शक्ल ले चुका है।

रेलवे स्टेशन हो या बस अड्डा, वहां से जो कतार शुरू होती है, वह न तो कहीं टूटती है और न ही कहीं संकरी होती है। रेला है, जो चला जा रहा है मेला की ओर। वाहन हर्षवर्धन चौक तो जा रहे हैं, लेकिन ऐसों की भीड़ बहुतायत में है, जो ई-रिक्शा का किराया नहीं दे सकते। खैर, कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें जरूरत भी नहीं। आस्था जुनून की हद तक है तो कई किलोमीटर का फासला जैसे उनके लिए कुछ मीटर में तब्दील हो चुका है।यह गंगा दर्शन की बेताबी नहीं तो क्या है कि थक जाने के बाद भी पल भर को बैठकर सुस्ता लेना गवारा नहीं है।
परिवार सहित झारखंड के गढ़वा से आए वृद्ध गोपीचंद कुरवा को ही देख लीजिए। उम्र लगभग 80 बरस। ऊंची-मैली धोती, मटमैली सी अचकन पर झूल रही फटेहाल शॉल उनकी माली हालत बता रही थी। चल नहीं पा रहे थे। एक ओर पत्नी मनबसिया देवी तो दूसरी ओर बहू चंद्रवती बैसाखी के माफिक सहारा दिए चल रही थी और गोपीचंद पैर घसीटते चल रहे थे। पूछने पर बताया कि पूरे परिवार के साथ आए हैं। वैसे ही ट्रेन के टिकट में पैसा काफी खर्च हो गया। अब कहां-कहां किराया दें, इसलिए पैदल चल रहे हैं। चला नहीं जा रहा है, लेकिन थोड़ी देर यूं सहारा लेकर चल लेंगे। वैसे भी संगम तट आ ही गया, जबकि हकीकत में उन्हें अभी कम से कम ढाई किलोमीटर का फासला तय करना बाकी था।

एक गोपीचंद ही क्या, यह आस्था का मेला है तो ऐसे बुजुर्गों की संख्या का आप अंदाजा लगा ही सकते हैं। जो गंगा मां की पुकार पर बच्चे से मचलते चले जा रहे हैं। फिर आप संगम के रास्ते पर पड़ने वाले नंदी द्वार से नजारा देखेंगे तो कुंभ की 'दिव्य-भव्य' झांकी और भी विहंगम होती नजर आएगी। हां, एक बात और। संगम तट पर पहुंचते ही अथाह आस्था का समंदर देखने को मिलता है। गंगा का शीतल जल, वहां बह रही शीतलहर। ठीक है, नागा बाबा बिना वस्त्र धारण किए यूं बैठे रह सकते हैं, क्योंकि उनके पास साधना-तपस्या का ताप है। मगर, इन साधारण गृहस्थों के पास कौन सा तप-ताप है। लाखों-करोड़ों की भीड़ है। रहने, रात बिताने का ठिया सबको मिल जाए, यह संभव नहीं। हजारों श्रद्धालु खुले आसमान के नीचे गंगा तट पर पड़े हैं।
कानपुर देहात जिले के रूरा से आए बुजुर्ग दंपती ध्यान खींचते हैं। 75 वर्षीय महावीर प्रसाद कपड़े की गठरी को सिरहाना बनाए संगम तट पर लेटे थे। हाथ की टेक लिए उनकी पत्नी विद्यावती कुछ सोती, कुछ जागती सी मुद्रा में बैठी थीं। पूछने पर बताया कि तीन दिन से आए हैं। यहां रुकने का कोई इंतजाम नहीं है। भोजन तो भंडारों में हो जाता है और बाकी वक्त ऐसे ही बिता रहे हैं।

धूप निकलती है तो संगम के किनारे बालू पर आराम कर लेते हैं और रात को सर्दी बढ़ती है तो नदी से थोड़ा दूर सड़क की ओर जाकर आराम कर लेते हैं। क्या परेशानी नहीं होती, सर्दी नहीं लगती? सवाल पर विद्यावती कहती हैं कि परेशानी हो तो होती है, मकर संक्रांति पर संगम स्नान करना है तो इतना सहना कौन सी बड़ी बात है।
खैर, फिर हम अपने शिविर की ओर रवानगी डालते हैं। यादों के फ्लैशबैक में गोपीचंद, चंद्रावती, मनबिसयादेवी, महावीर, विद्यावती की शक्लें चलती रहती हैं। सामने लगातार बढ़ती जा रही भीड़ का उसमें रीमिक्स होता है और दिमाग में एक फिल्मी गीत की अंग्रेजी लाइन घूमने लगती है- इट्स हैपेन ओनली इन इंडिया...।

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