श्रीकृष्ण ने कुरूक्षेत्र की रणभूमि में दिया था अर्जुन को गीता का ज्ञान
गीता जयंती हर वर्ष मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी (इस वर्ष 18 दिसंबर) को मनाई जाती है। इस दिन कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के उपदेश दिए थे। महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने जो उपदेश दिए थे, इनमें आज के मैनेजमेंट के मंत्र छिपे हुए हैं। मैनेजमेंट संस्थानों में जिस मैनेजमेंट की बात आज होती है वह कहीं न कहीं महाभारतकालीन गीता के उपदेशों से प्रेरित है। हेड, स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और गीता पर शोधकर्ता डॉ.पीएन मिश्रा से जानते हैं गीता के कुछ चुनिंदा प्रबंधन सूत्र जो जीवन में काम आते हैं।
गीता के उपदेश
अवगुण छोड़ना
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तरमादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
अर्थ- काम, क्रोध व लोभ। यह तीन प्रकार के नरक के द्वार अर्थात अधोगति में ले जाने वाले हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
मैनेजमेंट सूत्र : काम यानी इच्छाएं, गुस्सा व लालच ही सभी बुराइयों के मूल कारण हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इन्हें नरक का द्वार कहा है। अगर हमें किसी लक्ष्य को पाना हैं तो ये 3 अवगुण छोड़ देना चाहिए। ये अवगुण हमारे मन में रहेंगे, हमारा मन अपने लक्ष्य से भटकता रहेगा।
इंद्रियों पर वश
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
अर्थ- श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्यों को चाहिए कि वह संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके दृढ़तापूर्वक स्थित हो, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।
मैनेजमेंट सूत्र : जो मनुष्य इंद्रियों पर काबू रखता है उसकी बुद्धि स्थिर होती है। जिसकी बुद्धि स्थिर होगी, वह अपने क्षेत्र में बुलंदी की ऊंचाइयों को छूता है और जीवन के कर्तव्यों का निर्वाह पूरी ईमानदारी से करता है।
कर्तव्य केंद्रित
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
अर्थ- हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।
मैनेजमेंट सूत्र : धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य पर टिकाकर काम करना चाहिए।
भावनात्मक रहना
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।
अर्थ- योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि और भावना नहीं होती। ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।
मैनेजमेंट सूत्र : सुख का मूल तो उसके अपने मन में स्थित होता है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, आलस्य आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना (आत्मज्ञान) नहीं होती। और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भी प्रकार से शांति नहीं मिलती। अत: सुख प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है।
इच्छाओं पर नियंत्रण
विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
अर्थ- जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है।
मैनेजमेंट सूत्र : मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। शांति प्राप्त करने के लिए इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कर्म करते हैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर करती है।
क्षमतानुसार कार्य
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।
अर्थ- कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है।
मैनेजमेंट सूत्र : परिणामों के डर से अगर कुछ नहीं करेंगे, तो ये मूर्खता है। खाली बैठना भी कर्म ही है, जिसका परिणाम आर्थिक और समय की हानि के रूप में मिलता है। सारे जीव प्रकृति के अधीन हैं, वो हमसे अपने अनुसार कर्म करवा ही लेगी। हमें क्षमता और विवेक के आधार पर कर्म करते रहना चाहिए।
श्रेष्ठ का अनुसरण
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थ- श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं।
मैनेजमेंट सूत्र : श्रेष्ठ पुरुष को सदैव पद व गरीमा के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए, वह जैसा करेंगे, सामान्य मनुष्य उसकी नकल करेंगे। उदाहरण के तौर पर अगर कोई अधिकार पूरी मेहनत से काम करते हैं तो उसके कर्मचारी भी वैसे ही काम करेंगे।
व्यवहार का प्रतिफल
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम व्रत्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।
अर्थ- हे अर्जुन। जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं।
मैनेजमेंट सूत्र : संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं। जो लोग भगवान का स्मरण मोक्ष के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष मिलता है। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं, उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है।