क्यों मनाया जाता है मोहर्रम, रमजान के बाद दूसरा सबसे पाक महीना
मोहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना है जो चांद के हिसाब से चलता है। इस्लामी साल का यह महीना दुनिया भर के मुस्लिमों के लिए ऐतिहासिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है।
मुस्लिम समाज में सुन्नी और शिया दोनों मिलकर मोहर्रम मनाते हैं। हालांकि दोनों के तरीकों में फर्क होता है। इस्लाम धर्म में रमजान के बाद मोहर्रम के महीने को दूसरा सबसे पाक महीना माना जाता है।
क्यों मनाते हैं मोहर्रम
आज से तकरीबन 1400 साल पहले की बात है, सन् 61 हिजरी के मोहर्रम का महीना था, जब हजरत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उनके 72 साथियों के साथ बहुत बेदर्दी से कर्बला इराक के बयाबान में जालिम यजीदी फौज ने शहीद कर दिया था।
इमाम हुसैन की शहादत की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। यह कोई त्योहार नहीं बल्कि मातम का दिन है।
इमाम हुसैन को इस वजह से थी यजीद से नाइत्तेफाकी
इस्लाम में सिर्फ एक ही खुदा की इबादत करने के लिए कहा गया है। छल-कपट, झूठ, मक्कारी, जुआ, शराब, जैसी चीजें इस्लाम में हराम बताई गई हैं। हजरत मोहम्मद ने इन्हीं निर्देशों का पालन किया और इन्हीं इस्लामिक सिद्घान्तों पर अमल करने की हिदायत सभी मुसलमानों और अपने परिवार को भी दी।
दूसरी तरफ इस्लाम का जहां से उदय हुआ, मदीना से कुछ दूर 'शाम' में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, जिसमें सभी अवगुण मौजूद थे, वह शाम की गद्दी पर बैठा।
यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है।
यजीद जैसे शख्स को इस्लामी शासक मानने से हजरत मोहम्मद के घराने ने साफ इन्कार कर दिया था क्योंकि यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि वहां अमन कायम रहे।
इस हाल में तय हुई थी जंग
इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे। लेकिन करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने उनके सामने शर्तें रखीं जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से साफ इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के एवज में यजीद ने जंग करने की बात रखी।
यजीद से बात करने के दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर ठहर गए। लेकिन यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फुरात नदी के किनारे से हटाने का आदेश दिया और उन्हें नदी से पानी लेने की इजाजत तक नहीं दी।
ऐसे शुरू हुई जंग
इमाम जंग का इरादा नहीं रखते थे क्योंकि उनके काफिले में केवल 72 लोग शामिल थे। जिसमें छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। यह तारीख एक मोहरर्म थी, और गर्मी का वक्त था। गौरतलब हो कि आज भी इराक में (मई) गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है। सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और खासकर पानी था वह खत्म हो चुका था।
इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन उनके परिवार के मेंबर और अनुनायी भूखे प्यासे रहे।
10 मुहर्रम को इमाम हुसैन की तरफ एक-एक करके गए हुए शख्स ने यजीद की फौज से जंग की। जब इमाम हुसैन के सारे साथी मारे जा चुके थे तब असर (दोपहर) की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वह भी मारे गए। इस जंग में इमाम हुसैन का एक बेटे जैनुलआबेदीन जिंदा बचे क्योंकि 10 मोहर्रम को वह बीमार थे और बाद में उन्हीं से मुहमम्द साहब की पीढ़ी चली।
इसी कुरबानी की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। करबला का यह वाकया इस्लाम की हिफाजत के लिए हजरत मोहम्मद के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी है। इमाम हुसैन और उनके पुरुष साथियों व परिजनों को कत्ल करने के बाद यजीद ने हजरत इमाम हुसैन के परिवार की औरतों को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया।
इमाम हुसैन की मौत के बाद
यजीद ने खुद को विजेता बताते हुए हुसैन के लुटे हुए काफिले को देखने वालों को यह बताया कि यह हश्र उन लोगों का किया गया है जो यजीद के शासन के खिलाफ गए। यजीद ने मुहमम्द के घर की औरतों पर बेइंतहा जुल्म किए। उन्हें कैदखाने में रखा जहां हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की (सीरिया) कैदखाने में ही मौत हो गई।
शिया करते हैं मातम
शिया समुदाय के लोग 10 मोहर्रम के दिन तक काले कपड़े पहनकर खूनी मातम करते है। मातम के दौरान इमाम हुसैन को याद करते हुए अपने शरीर पर बार करते हैं। 10 मोहर्रम को आशूरा भी कहा जाता है।
10 मोहर्रम के दिन मुस्लिम समाज के लोग इमाम हुसैन की याद में बने ताजिए को कर्बला पर लेजाकर शहीद कर देते हैं। इस इस्लामी महीने में मुस्लिम समुदाय के लोग शादी- विवाह में शिरकत नहीं करते।
सुन्नी रखते हैं रोज़ा
वहीं मुस्लिम समाज में सुन्नी समुदाय के लोग इस इस्लामी महीने में 10 मोहर्रम के दिन तक रोज़ा रखते हैं। सुन्नी समुदाय के लोग शिया समुदाय के लोगों की तरह मातम नहीं करते।
इमाम हुसैन के साथ कर्बला में शहीद हुए लोगों को याद किया जाता है और उनकी आत्मा का शांति के लिए दुवा की जाती है। 61 हिजरी में शहीद हुए लोगों को एक तरह से यह श्रद्धांजलि देने का तरीका है।