कॉकलियर मशीन लगाने के बाद पहली बार “मम्मी” बोला लावेश
विज्ञान का चमत्कार व शासन की मदद रंग लाई
उज्जैन । प्रताप नगर पंवासा में रहने वाली रेखा सिसौदिया के घर साढ़े चार वर्ष पहले लावेश का जन्म हुआ, घर में खुशियां छा गई। किन्तु डेढ़ वर्ष का होते होते घर वालों को लगा कि कुछ गड़बड़ है। बच्चा सुनने में कमजोर है। पिता जीवन सिंह और माँ रेखा चिन्ताओं में डूब गए। यहाँ वहां डाक्टरों के चक्कर लगाने लगे। बचत करके सुनने की मशीन भी लगाई। कुछ खास फर्क नहीं पड़ा।
जीवनसिंह सिसोदिया बच्चे को लेकर अलग-अलग अस्पतालों में जाने लगे। तमाम इलाज और मन्नतें बेकार हो गईं। माँ को लगने लगा यह बच्चा ऐसे ही मूक-बधिर रह जाएगा। जीवनसिंह को डॉक्टरों ने सलाह दी कि ऐसे बच्चे के कान के पास से ऑपरेशन कर अत्याधुनिक मशीन कॉकलियर इम्पलांट कर दी जाती है तो बच्चा सुन सकता है और बाद में बोलना भी सीख जाता है। इस ऑपरेशन व मशीन का खर्च 06 से 07 लाख रुपये होना था। इतनी बड़ी राशि जीवनसिंह के पास नहीं थी। इसी बीच जीवनसिंह जिला चिकित्सालय उज्जैन के शीघ्र हस्तक्षेप केन्द्र के प्रभारी श्री दिनेश मालवीय के सम्पर्क में आए। जिला चिकित्सालय में सिविल सर्जन की देखरेख में बालक लावेश की विशेषज्ञ डॉक्टरों ने जांच की और पाया कि बच्चे को कॉकलियर इम्पलांट किया जा सकता है। इन्दौर के आकाश हॉस्पिटल में सर्जरी करने की तिथि तय की गई। 17 सितम्बर 2017 को लावेश की सर्जरी की गई और सफलता पूर्वक कॉकलियर मशीन इम्पलांट कर दी गई। इसमें 6 लाख 50 हजार का व्यय आया। खर्च की गई समस्त राशि का भुगतान मुख्यमंत्री बाल श्रवण योजना से किया गया।
सफल ऑपरेशन के बाद लावेश की स्पीच थैरेपी चालू की गई। लावेश धीरे-धीरे कुछ ध्वनियों को समझने लगा। माता-पिता को उम्मीद बंधने लगी। मम्मी-पापा की पहचान इशारों में करने लगा। फिर भी लावेश की माँ का हृदय बेटे के मुँह से मम्मी सुनने को अभी भी तरस रहा था। जनवरी 2018 का महीना माँ के लिए अपार खुशियां लेकर आया। अचानक एक दिन लावेश ने मम्मी कह कर पुकारा। मां की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा। रेखा को लगा उसका जीवन सफल हो गया। यह पूछने पर कि मशीन को लेकर बच्चे की क्या प्रतिक्रिया रही तो बच्चे की मां रेखा बताती है कि "पहले तो लावेश झुंझलाता था, पर अब उसको मशीन रास आ गई है। अब तो वह मशीन की बैटरी खत्म होने पर खुद ही बता देता है। मशीन की लाइट बन्द हेने पर भी इशारा करता है।" रेखा उत्साह से बताती है कि अब लावेश "मम्मी मुझे चाय दे दो" भी बड़े आराम से कह लेता है। चिकित्सा विज्ञान के इस चमत्कार से लावेश के माता-पिता अभिभूत तो हैं ही वे मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान का धन्यवाद करना भी नहीं भूलते हैं, जिनकी वजह से आज उनका लाड़ला बोलने और सुनने योग्य हुआ है।
बच्चों के लिए बेहद कारगर है कॉकलियर
उल्लेखनीय है कि जन्मजात बहरे बच्चों के कान में कॉकलियो नर्व से जुड़ी नसें नष्ट हो जाती हैं। ऐसे बच्चों का अगर तीन से चार वर्ष की उम्र में कॉकलियर इम्प्लांट लगाया जाता है, तो उसके लिए बेहद कारगर होता है। यह अधिकतम 7 वर्ष की उम्र में भी लग जाता है तो परिणाम सार्थक होते हैं, क्योंकि इस उम्र में ही बच्चा बोलना सीखता है। ऐसे में सुनने के साथ बोलना सीखने में आसानी होती है। इम्प्लांट की यूनिट दो भाग में लगाई जाती है। इनमें एक भाग कान के पीछे की हड्डी (मेस्टोइड बोन) में छेद कर लगाया जाता है। इसके इलेक्ट्रोड कॉकलियो नर्व से जोड़े जाते हैं। हड्डी के ऊपर इसी भाग पर चुंबक की तरह बाहर की यूनिट लगती है।
ईएनटी डॉक्टरों की मानें तो इम्प्लांट लगाने से पहले मरीज की जांच में पता लगाया जाता है कि इम्प्लांट उसके लिए कितना कारगर साबित होगा। इसके लिए कान से मस्तिष्क तक जाने वाली आठवीं नस (वेस्टब्लो कॉकलियर नर्व) का दुरुस्त होना जरूरी है। क्योंकि इम्प्लांट के माध्यम से कॉकलिया में लगने वाले इलेक्ट्रोड के सक्रिय होने के बाद इसी नस के माध्यम से मस्तिष्क तक ध्वनि संकेत पहुंचते हैं।