इससे लोकतंत्र का बागवां महकेगा
- ललित गर्ग -
देश परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, देश की तरक्की उसके शासक की नीति एवं नियत पर आधारित होती है। कोई भी बड़ा बदलाव प्रारंभ में तकलीफ देता ही है, लेकिन उसके दूरगामी परिणाम सुखद एवं स्वस्थ समाज निर्माण के प्रेरक बनते है। विमुद्रीकरण के ऐतिहासिक फैसले के बाद अब मोदी सरकार चुनाव सुधार की दिशा में भी बड़ा निर्णय लेने की तैयारी में है। संभव है सारे राष्ट्र में एक ही समय चुनाव हो- वे चाहे लोकसभा हो या विधानसभा। इन चुनाव सुधारों में दागदार नेताओं पर तो चुनाव लड़ने की पाबंदी लग ही सकती है, वहीं शायद एक व्यक्ति एक साथ दो सीटों पर भी चुनाव नहीं लड़ पाएगा? ऐसी व्यवस्था समेत कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव केंद्रीय चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को भेजकर सिफारिश की है। चुनाव आयोग के प्रस्तावों और विधि आयोग की सिफारिशों पर देश में चुनाव सुधार के लिए यदि सरकार ने ऐसे सख्त निर्णय लिये, तो नोटबंदी के बाद मोदी सरकार का लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव सुधार की दिशा में यह भी एक नीतिगत ऐतिहासिक फैसला बनकर सामने आएगा।
एक महत्वपूर्ण बिन्दु प्रसिद्ध लोकोक्त्ति से मिलता है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’। प्रजा राजा के आचरण को अपने में ढ़ालती है। आदर्श सदैव ऊपर से नीचे आते है। लोकतंत्र में जनमत ही सर्वोच्च है। मत का अधिकार गिना गया है, वह भी सबको बराबर। जब मत देने वाला एक बार ही अपने मताधिकार का उपयोग कर सकता है तो उम्मीदवार कैसे दो या दो से अधिक स्थानों पर चुनाव लड़ने की पात्रता पा सकता है? यह हमारे चुनाव प्रक्रिया की एक बड़ी विसंगति चली आ रही है। चुनाव आयोग ने इस बड़ी खामी को दूर करने के लिये एक बार फिर सरकार से राजनेताओं को एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ने से रोकने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव की सिफारिश की है। लोकतंत्र की मजबूती एवं चुनाव प्रक्रिया की विसंगति को दूर करने के लिये इस सिफारिश को लागू करना जरूरी है।
चुनाव आयोग इससे पहले 2004 में भी इस तरह की सिफारिश कर चुका है। मगर उस पर कोई पहल नहीं हो पाई। न्यायमूर्ति ए. पी. शाह की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने भी एक उम्मीदवार के दो सीटों से चुनाव लड़ने पर रोक लगाने संबंधी सिफारिश की थी। चुनाव आयोग ने 2004 में सुझाव दिया था कि अगर कोई उम्मीदवार विधानसभा के लिए दो सीटों से चुनाव लड़ता और जीतता है, तो खाली की गई सीट के लिए उससे पांच लाख रुपए वसूले जाएं। इसी तरह लोकसभा की खाली की जाने वाली सीट के लिए दस लाख रुपए जमा कराए जाएं। अब चुनाव आयोग ने कहा है कि 2004 में प्रस्तावित राशि में उचित बढ़ोतरी की जानी चाहिए। आयोग का मानना है कि इस कानून से लोगों के एक साथ दो सीटों से चुनाव लड़ने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। चुनाव आयोग ने जब एक उम्मीदवार के दो या उससे अधिक स्थान पर चुनाव लड़ने पर ही रोक का सुझाव दिया है तो खाली हुई सीट के लिये राशि वसूले जाने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिये दो या अधिक स्थानों पर चुनाव लड़ना- एक तरह की अनैतिकता ही है। अपने स्वार्थ की सोचना एवं येन-केन-प्रकारेण जीत को सुनिश्चित करने की यह तरकीब चुनाव प्रक्रिया की बड़ी खामी रही है, जिस पर रोक का सुझाव लोकतंत्र की मजबूती का सबब बनेगा और चुनाव सुधार की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।
जन प्रतिनिधित्व कानून में यह अधिकार दिया गया है कि कोई व्यक्ति लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव या फिर उप चुनाव में एक साथ दो सीटों पर अपनी किस्मत आजमा सकता है। 1996 से पहले दो से अधिक स्थानों पर चुनाव उम्मीदवारी की छूट थी। कोई व्यक्ति कितनी भी सीटों से चुनाव लड़ सकता था। मगर देखा गया कि कुछ लोग सिर्फ अपनी जीत कोे सुनिश्चित करने की मंशा से कई सीटों से चुनाव लड़ जाते थे। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के मकसद से 1996 में जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके अधिकतम दो सीटों से चुनाव लड़ने का नियम बनाया गया। मगर इससे भी निर्वाचन आयोग को छोड़ी गई सीटों पर दुबारा चुनाव कराने के लिए बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इससे दुबारा वही प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती है। उसी प्रकार फिर पैसे खर्च करने पड़ते हैं। प्रशासन को नाहक अपना तय कामकाज रोक कर चुनाव प्रक्रिया में भाग-दौड़ करनी पड़ती है। यह एक तरह की पैसों की बर्बादी तो है ही, साथ ही प्रशासन को भी भारी दुविधा झेलनी पड़ती है। आम जनता भी इससे परेशान होती ही है। इसलिए लंबे समय से मांग की जाती रही है कि लोगों के कर से जुटाए पैसे को दो बार चुनाव पर खर्च करने एव एक सीट के लिये दो बार चुनाव प्रचार पर उम्मीदवारों का भी दूबारा पैसें खर्च करने का कोई तुक नहीं, इस नियम में बदलाव होना चाहिए।
अब तक देखने में यही आता रहा है कि बड़े दल और बड़े राजनीतिक चेहरे ही एक साथ दो सीटों से चुनाव लड़ते रहे हैं। इसकी बड़ी वजह असुरक्षा की भावना होती है। वर्तमान लोकसभा के लिए हुए चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो सीटों से चुनाव लड़ा था। समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी दो सीटों से चुनाव लड़ा। कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी को भी दो सीटों से चुनाव लड़ाया जाता रहा है। विधानसभा चुनाव में भी पार्टियों के प्रमुख चेहरे अक्सर दो सीटों से चुनाव लड़ना सुरक्षित समझते हैं। राजनीतिक दल या उसके उम्मीदवार के लिये इस तरह दो जगह से चुनाव लड़ना जायज हो सकता है लेकिन नीति एवं नियमों की दृष्टि से इसे किसी भी सूरत में जायज नहीं माना जा सकता है। प्रश्न यह भी है कि अगर कोई उम्मीदवार दो में से किसी एक सीट पर चुनाव हार जाता है, तो उसे सरकार में किसी अहम पद की जिम्मेदारी सौंपना कहां तक उचित है?
विश्व के सबसे बड़ा लोकतंत्र में इस तरह की कमजोरियों एवं विसंगतियों पर नियंत्रण करना जरूरी है। क्योंकि चुनाव लोकतंत्र का प्राण है। लोकतंत्र मंे सबसे बड़ा अधिकार है- मताधिकार। और यह अधिकार सबको बराबर है। पर अब तक देख रहे हैं कि अधिकार का झण्डा सब उठा लेते हैं, दायित्व का कोई नहीं। अधिकार का सदुपयोग ही दायित्व का निर्वाह है। इसलिये मतदाताओं को भी जागरूक होना होगा।
लोकतंत्र में चुनाव संकल्प और विकल्प दोनों देता है। चुनाव में मुद्दे कुछ भी हों, आरोप-प्रत्यारोप कुछ भी हांे, पर किसी भी पक्ष या पार्टी को मतदाता को भ्रमित नहीं करना चाहिए। दो स्थानों पर चुनाव लड़ना मतदाता को भ्रमाने की ही कुचेष्टा है।”युद्ध और चुनाव में सब जायज़ है“। इस तर्क की ओट में चुनाव प्रक्रिया की खामियों पर लगातार पर्दा डालना हितकारी नहीं कहा जा सकता। अपने स्वार्थ हेतु, प्रतिष्ठा हेतु, राजनीति की ओट में नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहा और भीड़ आरती उतारती रही। लेकिन अब पवित्र मत का पवित्र उपयोग पवित्र उम्मीदवार के लिये हो। देश के भाल पर लोकतंत्र का तिलक शुद्ध कुंकुम और अक्षत का हो। सही एवं शुद्ध चुनाव ही चमन को सही बागवां देगा।