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प्रेम और आनंद से देश और समाज का निर्माण – सुश्री सोनल मानसिंह



राष्ट्र निर्माण के लिये जीवन मूल्यों का बोध जरूरी – श्री कपिल तिवारी
कला-संस्कृति के बिना देश की कल्पना अधूरी – सुश्री कलापिनी कोमकली
“राष्ट्र निर्माण में कला, संस्कृति और इतिहास की भूमिका” सामूहिक सत्र संपन्न
लोक-मंथन के वैचारिक सत्रों की श्रंखला में आज ''राष्ट्र निर्माण में कला, संस्कृति और इतिहास की भूमिका'' विषयक सामूहिक सत्र में व्याख्यान देते हुए पद्मविभूषण डॉ. (सुश्री) सोनल मानसिंह ने कहा कि प्रेम और आनंद जीवन के दो पहिए हैं। इनसे समाज और देश का निर्माण होता है।

सुश्री मानसिंह ने कहा कि भारत के ऋषि-मुनि तथा गुरुओं ने जो दृष्टांत हमें दिए उनमें उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि यह उनकी उक्ति है बल्कि उन्होंने हमेशा अपने दृष्टांत में कोट किया कि ऐसा उन्होंने सुना है। समाज की रीतियों, परंपराओं को ऋषियों ने आगे बढ़ाया है। वर्तमान दौर में हम सामाजिक कुरीति के रूप में स्त्री और पुरूष में बढ़ते हुए भेद को पाते हैं। इस भेदभाव के कारण कला, संस्कृति सहित अन्य क्षेत्रों में कार्य करने वाली महिला विदुषियों को वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जिसकी वह हकदार हैं। उन्होंने कहा कि हमें स्त्री-पुरूष के बीच के भेद को खत्म करना होगा। तभी हम समानता की बात कह सकेंगें। डॉ. सोनल मानसिंह ने नृत्य और संगीत को जीवन का आधार बताते हुए कहा कि नृत्य ही वो सर्वश्रेष्ठ योग है, जो जीवन में प्रवाह उत्पन्न करता है। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के दशावतार का प्रसंग भी सुनाया। उनका कहना था कि कला,संस्कृति को सुदृढ़ करने का मार्ग सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् से होकर गुजरता है। जिसमें समानता, सौन्दर्य-बोध एवं कला- संस्कृति की झलक दिखती है। उन्होंने मीडिया जगत में संचालित टीवी चैनलों, समाचार-पत्रों में धर्म, कला, संस्कृति से ओत-प्रोत संस्कार देने वाले समाचारों की कमी पर चिंता जताई तथा कहा कि यदि भारत के सवा सौ करोड़ नागरिकों में से एक करोड़ नागरिक भी धर्म, कला, संस्कृति को अपनाते हैं तो समाज में आमूल-चूल परिवर्तन संभावी है।

प्रसिद्व नृत्यांगना सुश्री सोनल मानसिंह ने मंदिरों में भारतीय वेशभूषा के साथ प्रवेश करने की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए कहा कि अन्य समुदाय के लोग अपने मस्जिद और गुरुद्वारों में वेशभूषा का विशेष ध्यान रखते हैं जबकि हिन्दू समुदाय मंदिरों में पूजा-अर्चना के लिए जाते वक्त इस ओर उदास रहते हैं। इसे हमें ठीक करना होगा।

चर्चा में भाग लेते हुए मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला परिषद के पूर्व निदेशक डॉ. कपिल तिवारी ने मानव-जीवन में संस्कार, अनुशासन, आध्यात्मिकता और ज्ञान को महत्वपूर्ण तत्व बताया।

उन्होंने कहा कि भारत की ज्ञान परंपरा का क्षेत्र सनातन और विस्तृत है। ज्ञान जीवन दृष्टि है और इसी से मनुष्य की जीवन रचना होती है। ज्ञान कभी प्राचीन नहीं हो सकता, वह सनातन है। उन्होंने कहा कि कला का अर्थ मानव सृजना से पूरे जीवन को सुन्दर कैसे बनाया जाए, यह सीखना है। आदमी ने अपनी काया को सजाने के लिए जिस तरह अलग-अलग तरीके अपनाए और भूख को मिटाने के लिए रोटी का प्रबंध किया। उसी तरह हमें राष्ट्र के निर्माण के लिए कला, संस्कृति और जीवन मूल्यों का बोध करना होगा। उन्होंने समय की कमी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि आज हर आदमी कहता है कि उसके पास समय नहीं है। उसने समय को खो दिया है, जबकि समय पूर्ववत् है। हम भगवान के मंदिर भी मनोकामना के लिए जाते हैं। यदि मनोकामना न हो तो शायद मंदिर भी खाली रहे। हम उधारी के सपने देखते हैं, जबकि हमारी परंपरा अपनी आँखों से सपने देखती हैं। उन्होंने कहा कि यदि बाहरी लोगों को देखोगे तो भारतीय परंपरा पराई हो जाएगी। उन्होंने ज्ञान, इतिहास, कला-संस्कृति एवं धर्म से युक्त समाज की स्थापना पर बल दिया।

कुमार गंधर्व की बेटी एवं प्रसिद्ध कला विदुषी सुश्री कलापिनी कोमकली ने कहा कि उनका पूरा जीवन कला और संस्कृति में रचा-बसा है। बचपन से ही उन्हें यही शिक्षा मिली है। उनका मानना है कला-संस्कृति के बिना भारत देश की कल्पना ही नहीं की जा सकती। विश्व में हम जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ संस्कृति और कला की ही बात होती है। हमारे देश की संस्कृति सौभाग्यशाली और गौरवशाली है, जिस पर हमें गर्व है। उन्होंने कहा कि व्यक्तित्व विकास और देश का विकास एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। लोक संगीत और लोक नाट्य को जहाँ से उर्जा प्राप्त होती है वह आध्यात्म का ही क्षेत्र है। उन्होंने कहा कि व्यक्ति के निर्माण से ही राष्ट्र का निर्माण होता है। इसलिए हमें शिक्षा और संस्कार के माध्यम से व्यक्तियों का निर्माण करना होगा।

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