कलायें सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मरंजन और ईश आराधना का माध्यम होती है- डॉ. सच्चिदानंद जोशी सद्भावना व्याख्यानमाला की सप्त दिवसीय वैचारिक यात्रा का हुआ समापन
उज्जैन- भारत में कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मरंजन और ईश्वर आराधना रहा है। दुर्भाग्यवश, औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति ने हमारे कला के प्रति दृष्टिकोण को विकृत कर दिया। आज, वे लोग अत्यंत दुर्भाग्यशाली हैं जो महंगे कपड़े, उत्पाद, और उपकरणों की चकाचौंध में कला से दूर हो गए हैं, और जीवन को तनाव एवं अस्वस्थता की ओर ले जा रहे हैं। यदि हम सुबह उठते ही मोबाइल पर संदेश पढ़ने लगते हैं, तो रात्रि की मीठी निद्रा से मिलने वाली ऊर्जा से वंचित रह जाते हैं। यदि हम कानों में ईयरफोन से संगीत को सुनकर सुबह टहलने जाते हैं, तो मानकर चलिए की आप प्रकृति के संगीत को अनसुना कर रहे हैं। जो व्यक्ति प्रकृति के नाद—जैसे पक्षियों का चहचहाना, गाय का रंभाना, पत्तों की खड़खड़ाहट और हवा की सरसराहट—को न सुन पाए, वह मन की सच्ची शांति और आनंद कैसे प्राप्त करेगा? सूर्योदय की पहली किरण के साथ प्रकृति जो दिव्य दृश्य प्रस्तुत करती है, उसे आज तक कोई चित्रकार सजीव नहीं कर पाया है। तनाव जनित बीमारियों के इलाज के लिए दवाइयों और यंत्रों का सहारा लेना पड़ता है। विडंबना यह है कि यंत्र ने बीमारी उत्पन्न की और यंत्र से उसका उपचार भी किया जा रहा है। यदि आपके पास कला की सच्ची अभिव्यक्ति है, तो आप बिना किसी यंत्र या दवाई के स्वस्थ और प्रसन्नचित्त रह सकते हैं। उक्त विचार इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के कार्यकारी और अकादमिक प्रमुख डॉ.सच्चिदानंद जोशी ने भारतीय ज्ञानपीठ (माधव नगर) में कर्मयोगी स्व. कृष्णमंगल सिंह कुलश्रेष्ठ की प्रेरणा एवं पद्मभूषण डॉ. शिवमंगल 'सुमन' की स्मृति में आयोजित 22 वीं अ.भा.सद्भावना व्याख्यानमाला के समापन दिवस पर प्रमुख वक्ता के रूप में व्यक्त किए । "व्यक्तित्व विकास और मानसिक स्वास्थ संतुलन में कलाओं का योगदान" विषय पर व्यक्त अपने विचारों में डॉ .सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि वर्तमान तकनीक में हमें तैयार चित्र, गीत और संगीत आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे में क्या हमारी रचनात्मकता समाप्त नहीं हो रही है? क्या हम उन अनुभवों और प्रक्रियाओं को भूलते जा रहे हैं, जो हमें सच्चा आनंद दिया करती थीं? यह सब चिंतन का विषय है। डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि यह जीवन तनाव, प्रतिस्पर्धा और अनावश्यक होड़ से भरा हुआ है, जो हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालता है। परिवार के बीच रहते समय हम प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, लेकिन जैसे ही प्रतिस्पर्धा या व्यावसायिक क्षेत्र में कदम रखते हैं, तनाव हम पर हावी हो जाता है। अनावश्यक सुविधाओं के सुख के लिए हमने बहुत सारा मानसिक दुख खरीद लिया है। डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि हमारी शैक्षणिक संस्थाएँ विद्यार्थियों को कला से परिचय केवल तब तक ही कराती हैं, जब तक उनका वार्षिक उत्सव आयोजित न हो जाए। ऐसी सोच एक बेहतर नागरिक बनाने में बहुत बड़ी चूक है, क्योंकि कला हमारे भीतर संवेदना, संयम, और करुणा का भाव जागृत करती है। डॉ. जोशी ने कहा कि हम यह अवश्य कहते हैं कि हम बुद्ध, राम और कृष्ण की भूमि हैं, किंतु यदि हम अपने विद्यार्थियों में बुद्ध, राम और कृष्ण जैसे संस्कार उत्पन्न नहीं कर पाए, तो यह न केवल चिंतनीय है, बल्कि विचारणीय भी है। हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक कलाकार है। इसके बावजूद, समाज यह भूल करता है कि उस व्यक्ति के भीतर छिपी हुई नैसर्गिक प्रतिभा को बाहर लाने का प्रयास नहीं करता। कला का आनंद उसके प्रदर्शन में नहीं होता, बल्कि उसका परम आनंद तब होता है जब कलाकार को अपनी अभिव्यक्ति का सर्वोच्च सुख प्राप्त हो जाता है।