युवा पीढ़ी को जीवन-बीमा से ज्यादा जल-बीमा की आवश्यकता है- पद्मश्री उमाशंकर पांडेय अखिल भारतीय सद्भावना व्याख्यानमाला के तीसरे दिन पर्यावरणविदों ने रखे अपने विचार
उज्जैन- जीवन बीमा अपने भविष्य को आर्थिक रूप से सुरक्षित करता होगा, लेकिन यह सुरक्षा किस काम की, जब हमारे अस्तित्व और आपसी सद्भावना का आधार अर्थात् जल ही सुरक्षित नहीं रहेगा ? आज की युवा पीढ़ी को विरासत में जीवन-बीमा की जगह जल-बीमा देने की आवश्यकता है। जल-बीमा का अर्थ है जल के संरक्षण, संचयन और विवेकपूर्ण उपयोग की दिशा में सशक्त प्रयास करना। जल न केवल जीवन का आधार है, बल्कि यह समाज में सद्भावना और एकता का भी प्रतीक है। जलाशय कभी किसी धर्म, जाति या वर्ग को देखकर पानी नहीं देते, वे सभी के लिए समान रूप से खुले होते हैं। यह समाज को जोड़ने का सबसे प्रभावी माध्यम है। सनातन परमपरा में गंगा जल की पवित्रता से लेकर कुरान ,बाइबल और अन्य धर्मंग्रंथों में जल को संजीवनी के रूप में देखा गया है। हमारे देश में जल का विश्वविद्यालय नहीं है, जबकि इसकी सख्त जरूरत है। हमें गांव-गांव में जल पाठशालाएं लगाकर लोगों को जल के संरक्षण और इसके महत्व के प्रति जागरूक करना चाहिए। उक्त विचार जल योद्धा के रूप में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् पद्मश्री उमाशंकर पांडेय ने भारतीय ज्ञानपीठ ( माधव नगर ) में कर्मयोगी स्व. कृष्ण मंगल सिंह कुलश्रेष्ठ की प्रेरणा एवं पद्मभूषण डॉ. शिवमंगल 'सुमन' की स्मृति में आयोजित 22 वीं अ.भा.सद्भावना व्याख्यानमाला के तृतीय दिवस पर प्रमुख वक्ता के रूप में व्यक्त किए । " जल संरक्षण में सामाजिक सद्भावना " विषय पर व्यक्त अपने विचारों में पद्मश्री पांडेय जी ने कहा कि जल न केवल सजीवों को जोड़ता है, बल्कि निर्जीव वस्तुओं को भी एक सूत्र में बांधता है। इंट, चूना, पत्थर के साथ मकान का जोड़ तब तक मजबूत नहीं हो सकता, जब तक उसमें जल का उपयोग न हो। पानी में यह शक्ति है कि वह हर वस्तु को जोड़ता और सहेजता है। यही कारण है कि इसे जीवन का आधार कहा गया है। हमारे जीवन के हर चरण में जल की उपस्थिति इसका प्रमाण है—मां के गर्भ में जल से घिरा जीवन, जन्म के समय पानी से नहलाने की परंपरा, और मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार की क्रियाओं में जल का उपयोग। जल के बिना न तो जीवन संभव है, न ही मृत्यु की पूर्णता। यह सद्भावना और समर्पण का प्रतीक है, जो हमें आपस में जोड़कर समाज की संरचना को मजबूत करता है। लेकिन आधुनिक जीवनशैली ने जल संकट को जन्म दिया है। महानगरों में पानी की स्थिति गंभीर हो चुकी है। बेंगलुरु और चेन्नई जैसे शहर जल संकट से जूझ रहे हैं। गांवों में जलाशय सूख रहे हैं, और खेतों का पानी खेत में नहीं रह पा रहा। हमें जल के विवेकपूर्ण उपयोग की परंपराओं को पुनर्जीवित करना होगा। खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में और जंगल का पानी जंगल में रोकने के उपाय करने होंगे। पद्मश्री उमाशंकर पांडेय ने कहा कि जल संरक्षण के साथ न्याय भी जुड़ा है। हमारे समाज में गंगाजल को पवित्र और सत्य का प्रतीक माना जाता है, और इसे हाथ में लेकर शपथ लेने की परंपरा हमारे मूल्यों की गवाही देती है। यदि गंगा और अन्य जल स्रोत प्रदूषित होंगे, तो क्या हम सत्य और न्याय के प्रतीक को सुरक्षित रख पाएंगे? जल संरक्षण का अर्थ केवल पानी बचाना नहीं, बल्कि अपनी आस्था, संस्कृति और भविष्य को संरक्षित करना भी है। पद्मश्री पांडेय ने कहा कि उज्जैन नगरी से लिया गया संकल्प हमेशा पूर्ण होता है। आइए, हम सब मिलकर जल संरक्षण का संकल्प लें, शिप्रा मैया को स्वच्छ करें और जल स्रोतों को पुनर्जीवित करें। यही हमारी युवा पीढ़ी के लिए सबसे बड़ी विरासत होगी। समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्राचार्य, माधव विज्ञान महाविद्यालय, उज्जैन के माननीय डॉ.हरिश व्यास ने कहा कि हमारे जीवन के पांच मुख्य तत्वों में जल एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जहां एक ओर हम लगातार सीमेंट की सड़कों का निर्माण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हम कई सौ फीट के बोरवेल खोदने को हम हमारी शान समझते हैं। कहने का तात्पर्य कि पृथ्वी के अंदर जल जाने के सारे रास्ते हम बंद करते जा रहे हैं और पृथ्वी के अंदर के बचे हुए जल को हम पृथ्वी की छाती में छेद करके निकालते जा रहे हैं , तो फिर यह सवाल उठता है कि अंततः यह जल स्तर बचेगा कैसे? डॉ. व्यास ने कहा कि विज्ञान के अनुसार, कोई भी पदार्थ अपना स्वरूप बदल सकता है, वह समाप्त नहीं होता। पानी भी विद्यमान रहेगा, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह पानी पीने योग्य रहेगा? यदि हम जल के संरक्षण की दिशा में गंभीर प्रयास नहीं करते, तो पानी का स्तर घटने से इसका स्वरूप बदल सकता है। आजकल हम औद्योगिककरण की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन क्या हम जल को बचाने की दिशा में भी उतने ही प्रयास कर रहे हैं ? प्रकृति ने हमें जल मुफ्त में दिया, लेकिन अब हम उसे व्यावसायिक बना चुके हैं। पानी को अब हम खरीदते और बेचते हैं। डॉ. व्यास ने कहा कि मालवा क्षेत्र में ‘पग पग नीर’ की कहावत कही जाती है, जो हमें पानी की महत्ता और उसकी उपलब्धता की याद दिलाती है। लेकिन क्या हम इस कहावत से दूर होते जा रहे हैं? वर्तमान में जल संकट एक गहरी समस्या बन चुका है, और यह केवल पानी की कमी से नहीं, बल्कि पीने योग्य पानी की कमी से संबंधित है। आज, उपलब्ध जल का सिर्फ तीन प्रतिशत ही पीने योग्य है, और हम उसे भी घटाते जा रहे हैं। यह कोई सामान्य समस्या नहीं है। डॉ. व्यास ने कहा कि जल संकट एक पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि यह हमारे अस्तित्व और सामाजिक समरसता का संकट बन चुका है। यदि जल का वितरण समान रूप से नहीं हुआ, तो सामाजिक सद्भाव की भावना समाप्त हो सकती है। जल संकट को समझना, इसे सहेजना और सभी के लिए जल की समान उपलब्धता सुनिश्चित करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। व्याख्यानमाला के आरंभ में संस्थान की शिक्षिकाओं द्वारा सद्भावना गीतों की प्रस्तुति दी गई। वरिष्ठ शिक्षाविद श्री दिवाकर नातु, संस्थान प्रमुख श्री युधिष्ठिर कुलश्रेष्ठ , श्रीमती अमृता कुलश्रेष्ठ सहित संस्थान के पदाधिकारियों द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, कविकुलगुरु डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन और कर्मयोगी स्व. श्री कृष्णमंगल सिंह कुलश्रेष्ठ के प्रति सूतांजलि अर्पित कर दीप प्रज्वलित किया गया। भारतीय ज्ञानपीठ के सद्भावना सभागृह में डिजिटल व्याख्यानमाला को सुनने के लिए वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी श्री प्रेम नारायण नागर, एडवोकेट रशीद उद्दीन, सुश्री शीला व्यास, श्री प्रदीप जैन, सुनील भट्ट, अनिल दास, दिलीप चौधरी, डॉक्टर विनोद बैरागी, महावीर जैन, संतोष व्यास, सुशीला जैन सहित विभिन्न पत्रकारगण, शिक्षकजन एवं बौद्धिकजन उपस्थित थे।