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महाकाल सवारी की परम्परा और स्वरूप, क्यों निकाली जाती है भादौं मास में सवारी


उज्जैन - महाकाल सवारी को भगवान महाकाल के प्रति भक्तों की श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है। महाकाल की सवारी शहर की समृद्ध संस्कृति और विरासत को दर्शाता है, इसे भगवान महाकाल की महिमा का प्रतीक भी कहा जा सकता है। हर साल सावन-भादौं मास में महाकाल मंदिर से सवारी निकाले जाने की परम्परा दशकों पहले से चली आ रही है, जिसने अब भव्य स्वरूप ले लिया लिया है। एक मान्यता ये भी है कि भगवान महाकाल को अवंतिका नगर का राजा माना गया है, इसलिए ये भी कहा जाता है कि राजा अपनी प्रजा का हाल जानने और उन्हें दर्शन देने के लिए मंदिर से बाहर निकलते हैं। सावन माह के प्रत्येक सोमवार का अपरान्ह चार बजे मंदिर से सवारी आरंभ होती है, जो पुराने शहर के मुख्य मार्गों का भ्रमण करते हुए संध्या सात बजे तक मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है।
क्यों है भादौं मास में सवारी की परम्परा
          श्रावण मास के साथ ही भादौं मास में भी बाबा महाकाल की दो सवारियां निकाली जाती है। इसकी एक वजह तो ये है कि भगवान महाकाल किसी जाति या संप्रदाय के नहीं होकर सभी के हैं, इसलिए मराठा दक्षिणी ब्राह्मण के मतानुसार अमावस्यान्त मास की मान्यता होने से श्रावण मास में शुक्लपक्ष की प्रथमा तिथि से भाद्र मास की अंतिम तिथि अमावस्या तक श्रावण माह मान्य होने से भाद्रपद में भी बाबा महाकाल की दो सवारियां निकालने का विधान वर्षों से चला आ रहा है। सवारी में भगवान के सभी मुखारविंद निकाले जाते हैं, जो सवारी को और भी दिव्यता और भव्यता प्रदान करते हैं।
इसमें एक जानकारी ये भी मिलती है कि भगवान महाकाल के आंगन में शैव और वैष्णव दोनों संप्रदाय के प्रमुख पर्वों को मनाया जाता है। विशेष तौर पर श्रावण-भादौं मास में निकलने वाली महाकाल की सवारी में इन दोनों संप्रदाय की तिथियों का समावेश देखने को मिलता है। यही नहीं बाबा महाकाल के नित्य होने वाले श्रृंगार में भी दोनों संप्रदायों की परंपराएं दिखाई पड़ती हैं।
अंतिम सवारी होती है शाही सवारी
          श्रावण-भादौं मास में निकाली जाने वाली अंतिम सवारी को शाही सवारी कहा जता है। अन्य सवारियां की अपेक्षा इस दिन न सिर्फ सवारी का रूट बड़ा होता है, बल्कि इसकी भव्यता भी अधिक होती है। शाही सवारी में भजन मंडलियों के अलावा अखाड़े, बैंड बाजे भी अपना प्रदर्शन करते हुए प्रभू की भक्ति में लीन हो जाते हैं। शाही सवारी की लंबाई सवा से डेढ़ किलोमीटर होती है। सवारी आरंभ होने से एक दिन पहले और समापन तक पूरी नगरी ही शिवमय दिखाई पड़ती है। सवारी मार्ग पर कई स्थानों से भगवान का पूजन कर प्रसादी का वितरण किया जाता है। शाही सवारी में सम्मिलित होने के लिए देशभर से लोग उज्जैन नगरी में आते हैं।
कभी 6, कभी 7, कभी कभी 10-11 सवारियां भी निकली
          सावन भादौं मास में निकाली जाने वाली सवारियों का क्रम उस मास में पड़ने वाले सोमवार पर निर्धारित होता है। जिस वर्ष श्रावण मास में चार सोमवार पड़ते हैं, उस साल छहः बार सवारियां निकाली जाती हैं और जिस वर्ष श्रावण माह में पांच सोमवार पड़ते हैं, उस वर्ष भादौं की मिलाकर सात सवारियां निकाली जाती हैं। किन्तु जब कभी भी श्रावण मास अधिक मास के रूप में आता है, तो उस वर्ष सवारियों की संख्या 10 या 11 भी हो जाती है।
हर एक सवारी में बढ़ता है एक स्वरूप
          श्रावण भादौं मास के दौरान जितनी बार भगवान महाकाल नगर भ्रमण के लिए मंदिर से निकलते हैं, प्रजा को भगवान के उतने ही स्वरूपों के दर्शन का लाभ मिलता है। प्रत्येक सवारी के साथ एक स्परूप की वृद्धि होती जाती है। जितनी प्रतिमाएं सवारी में निकाली जाती हैं, वे सभी भगवान शिव के ही साकार स्वरूप होते हैं। यदि भक्त अपने मन में किसी भी प्रकार का अंतर न रखे, तो उन्हें किसी भी प्रतिमा में बाबा महाकाल के दर्शन हो सकते हैं।
कब शुरू हुई परम्परा
          महाकाल मंदिर में सवारी निकाले जाने की परम्परा कब की है, ये जानकारी तो किसी के पास भी नहीं है। लेकिन यहां के पंडे, पुरोहित और शहर के वरिष्ठजन भी बताते हैं कि वे तो अपने बाल्यकाल से ही सवारी देखते आ रहे हैं। ज्ञात इतिहास अनुसार यह माना जाता है कि सवारी की परम्परा सिंधिया राजवंश द्वारा प्रारभ की गई थी और इसी कारण भादौं पक्ष में भी सवारी की परम्परा शुरू की गई थी। पहले और अब में इसके स्वरूप में जबरदस्त बदलाव हुआ है, लेकिन आस्थावानों की संख्या न तो पहले कम भी और न अब कम हुई है।
मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने बढ़ाया सवारी का वैभव
          डा. मोहन यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद भगवान महाकालेश्वर की सवारी का वैभव और बढ़ा। इस साल निकाली गई सवारियों के दौरान पहले भव्य पुलिस बैंड की आकर्षक प्रस्तुति और उसके बाद एक साथ डमरू वादन का विश्व रिकॉर्ड बनना, जो अपने आप में अनूठी आयोजन था। सवारी की भव्यता को बढ़ाने के लिए जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद के माध्यम से प्रदेश के विभिन्न अंचलों से जनजातीय समूहों के कलाकारों का बुलाया गया, जिन्होंने अपने नृत्य से सभी को आकर्षित किया। सवारी में भगवान महाकाल के सुगम दर्शन के लिए पहली बार चलित रथ भी निकले, जिन पर लगी बड़ी स्क्रीन से श्रद्धालुओं ने अपने आराध्य के दर्शन किए।
अब प्रदेश के कई हिस्सों में शुरू हुई परम्परा
          श्री महाकालेश्वर मंदिर में सवारी निकाले जाने की परम्परा और भव्यता को देखकर, अब इसकी नकल प्रदेश के दूसरे शहरों और कस्बों में भी देखने को मिलती है। उज्जैन के आसपास की ही बात करें, इंदौर, देवास, आगर, जैसे जिलों के अलावा नागदा, खाचरौद, बड़नगर आदि कई क्षेत्रों में भी सवारी निकाले जाने की परम्परा शुरू हो चुकी है। वहां भी भगवान के किसी स्वरूप को महाकाल सवारी की तरह ही नगर भ्रमण करवाया जाता है।

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