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अयोध्या में कैसे बची जान


30 नवंबर 1992। उज्जैन से करीब 200 कारसेवकों का जत्था ट्रेन से फैजाबाद के लिए रवाना हुआ। 1 दिसंबर को हम फैजाबाद पहुंचे। यहां गाड़ियों से कारसेवक पहुंच रहे थे। शहर की हर गली, लोगों से भर चुकी थी। सोने के लिए कोई कोना नहीं मिला तो कारसेवक दो-तीन रात सड़क पर सोए।

5 दिसंबर की सुबह मुझे और जत्थे में शामिल सभी 500 कारसेवकों को बुलाया गया। मुझे हथौड़ा दिया गया। बाकी कारसेवकों के हाथ में भी पत्थर तोड़ने वाले कुछ-न-कुछ हथियार थमाए गए। हमारे जत्थे को काम मिला विवादित ढांचे पर चढ़कर गुंबद को तोड़ने का। 6 दिसंबर 1992 की सुबह जब हम सभी सोकर उठे तो देखा कि शहर में सुबह से भारी भीड़ जमा है। सभी विवादित ढांचे की ओर बढ़ रहे थे।

अशोक सिंघल, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता वहां मौजूद थे। इस बीच कुछ ही देर में लाखों की तादाद में भीड़ जमा हो गई। जत्थे को विवादित ढांचा गिराने का इशारा मिला। मैं अंदर जाने लगा तो पुलिसवाले ने मुझे पकड़ लिया। मैंने उसे राम का वास्ता दिया। कहा- भगवान श्री राम के लिए मुझे वहां तक जाने दो, वो नहीं माना। तभी कारसेवकों की भीड़ ने जोरदार धक्का दिया। पुलिसवाले ने भी ना सिर्फ मुझे जाने दिया, बल्कि विवादित ढांचे तक पहुंचने का रास्ता भी बताया।

वीआईपी स्थल के पास तैनात पुलिस ने कुछ देर कारसेवकों को विवादित ढांचे की तरफ जाने से रोकने की कोशिश की, लेकिन कुछ ही मिनटों में एक-एक करके कई कारसेवक गुंबद पर पहुंच गए। इसके बाद नीचे की ओर रस्सी फेंकी गई, जिसे पकड़कर मैं भी ऊपर चढ़ गया। तभी जोर-जोर से नारे लगने लगे 'एक धक्का दो और ढांचा तोड़ दो' इसके बाद मैंने हथौड़े की मदद से ढांचे को तोड़ना शुरू कर दिया।

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