मप्र में सबकी नजरें दिल्ली पर... मतदाता सूचियों पर किसी का ध्यान नही है...
ना काहू से बैर
राघवेंद्र सिंह,वरिष्ठ पत्रकार
भोपाल- दिल्ली में नया संसद भवन वैदिक मंत्रोचार और आधे विपक्ष के कर्कश विरोध के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकार्पण कर इतिहास रच दिया है। इस बीच सौ सौ चूहे खाकर हज करने वाले नेताओं और दलों ने अपने अपने चम्पूओं के साथ सुविधानुसार अनैतिकता और नैतिकता का भोंपू लगाकर पठन पाठन किया। जिसे देश ने सुना। जनता जनार्दन समय आने पर उनके बारे में सब कुछ तय भी करेगी। अभी तो हम आते हैं सूबे की सियासत पर। दिसम्बर में होने वाले विधानसभा चुनाव की दस्तक कुछ दिनों बाद तेज हो जाएगी। नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक के रूठने के साथ मनाने का दौर शुरू होने वाला है। लेकिन वोटर लिस्ट,जो सबसे खास है उस पर किसी दल, उनके आदमकद से लेकर गमलों में लगे होनहार नेताओं का ध्यान नही है। पार्टियों के भाग्य विधाता बने प्रभारियों ने भी अपने ज्ञान की गंगा नही बहाई है। मतदाता सूचियों में कथित असली और फर्जी नामों लेकर किसी दिग्गज का दिमाग काम नही कर रहा है। ग्राउंड ज़ीरो कोई तैयारी नजर नही आ रही है। नगरीय निकायों के चुनावों में वोटर लिस्ट में गड़बड़ी की चर्चाएं हुई थीं। सूची में मतदाताओं के नाम कटने और योजना के तहत नामों के जुड़ने की बातें सामने आई थी। पहले बकायदा पार्टियां अपनी वार्ड इकाइयों को सक्रिय कर अपने स्तर पर निरीक्षण - परीक्षण करती थी। बड़े पैमाने पर ब्लाक स्तर पर अनुभवी नेताओं को इसका जिम्मा सौंपा जाता था। कई बार बड़ी संख्या में जाने अनजाने में हुई चूक या षड्यंत्रों को पकड़ कर सुधार कराया जाता था। वोटर लिस्ट में गड़बड़ी को रोकना भी चुनावी प्रबंधन का महत्वपूर्ण हिस्सा होता था। वर्ष 1993- 1998 में हुए विधानसभा में वोटर लिस्ट मैनेजमेंट की खूब चर्चा हुई थी। उस दौर में कांग्रेस में दिग्विजय सिंह चुनावी प्रबंधन के लिए यह कहते हुए खूब मशहूर थे कि चुनाव केवल विकास करने से ही नही जीते जाते इसमें मैनेजमेंट का रोल भी बहुत अहम होता है। इसके बाद भाजपा के अनुभवी, चुनावी चाल में पारंगत और घुटे हुए शीर्ष नेताओं में शरीक सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी, विक्रम वर्मा के साथ समूचा प्रदेश कार्यालय, सम्भाग से लेकर मंडल तक कार्यकर्ताओं की टीम बोगस वोटर्स के नाम खोज कर उन्हें हटवाने के साथ सही नामों को जुड़वाने में लगी रहती थी। कांग्रेस में भी ब्लॉक लेवल पर कांग्रेस और युवक कांग्रेस की टीम सक्रिय रहती थी। समय रहते गड़बड़ियों की चुनाव आयोग से शिकायत और उनका विधि सम्मत निराकरण कराया जाता था। तब कहीं कांटे के मुकाबले में कुछ सौ वोट से हारजीत होती थी।
एक जमाना था जब एक- एक वोट के लिए नेता - कार्यकर्ताओं को जान लगाते देखा जाता था। अब सब कुछ सोशल मीडिया की असली- नकली दुनिया पर आश्रित है। इसी के चलते पार्टियों ने कार्यकर्ताओं की इज्जत दो कौड़ी कर दी है। अब विचारधारा वाला कार्यकर्ता नही बल्कि कारपोरेट कल्चर का मैनेजर चाहिए। यही वजह है कि सोशल मीडिया एक्सपर्ट ने नाम आई फ़ौज ने मैदानी टीम को हाशिए पर कर दिया है। चुनाव प्रबंधन की ये एक लंबी कहानी है। जिस पर 2003 के बाद आए चापलूस और गणेश परिक्रमा करने वाले आधारहीन अचम्भों ने कब्जा कर लिया है। ऐसी दुर्गति भाजपा - कांग्रेस दोनों ही दलों में लगभग एक जैसी है। कांग्रेस में इस बुराई की खाई को पाटने के लिए एक अकेले नेता के रूप में दिग्विजय सिंह जुटे हैं। पिछले 2018 के विधानसभा चुनाव में भी उनकी मेहनत रंग लाई थी।
दूसरी तरफ सत्ता के बल पर चल रही भाजपा में 2013 तक यह काम शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर की जोड़ी ने किया था। इसके बाद क्रमशः साल दर साल संगठन शिथिल होता गया। अब सत्ता की चाह में संगठन एक तरह से लकवाग्रस्त हो गया। जो भी अध्यक्ष बनता उसके शुभचिंतक कम चम्पूओं की टीम पदारूढ़ होने के पहले घण्टे से ही अगला सीएम होने का सपना दिखाने लगती। इस महत्वाकांक्षा के चलते पहले दिन से सत्ता संगठन में टकराव शुरू हो जाता। इस वजह से भाजपा में सम्भावनाशील अध्यक्षों का राजनीतिक पराभव हो गया और वे असमय ही सियासी बियाबान में खो गए।
बात शुरू हुई थी वोटर लिस्ट में बोगस वोटर के नामों में सुधार और कथित कांटछांट को लेकर अभी तो भाजपा में कांग्रेस के अनुभवी नेताओं जिन्हें बुजुर्ग कह कर उपहास उड़ाया जा रहा है। इन्ही बूढ़े नेताओं ने 2018 में भाजपा से बढ़त बना सरकार बना ली थी। यदि कमलनाथ थोड़ा विनम्र रहते तो आज हालात शायद दूसरे होते। लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से भाजपा दुर्घटनावश सरकार में आ गई। इसमें सिंधिया के अहसान तले दबी और सत्ता की गर्राहट में डूबी युवाओं की टोली ने इतने नवाचार किए कि उसे कार्यकर्ताओं की चादर सरकने का भी पता नही चला। नगर निगम चुनाव के नतीजे बिलबिला कर आंखें खोलने वाले थे लेकिन पावर के हैंगओवर ने थोड़ा गड़बड़ कर दिया। ना काहू से बैर में पहले भी लिखा था कि हर घण्टे नुकसान हो रहा है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि देवदुर्लभ भाजपा संगठन लम्बे समय से विधायकों के पास गिरवी जो है। ऊपर से करेला और नीम चढ़ा ये कि प्रभारी कहते हैं उनकी एक जेब में पण्डित तो दूसरी जेब मे बनिए रखे हैं। जिनके जिम्मे बीमारी का इलाज है वे ही मर्ज बढ़ा रहे हैं। जो कार्यकर्ता मिट्टी को सोना बनाने का हुनर जानते हो उन्हें लोहा पीटने वाले ज्ञान दें तो कैसा लगेगा...कुल मिलाकर सियासत की हर शाख पर कबूतर, बाज,उल्लू बैठे हैं... इसके बाद सबकी नजरें दिल्ली नेतृत्व पर लगी है उसी के बाद कुछ सीन साफ होगा...
अभी तो सबकी जय जय...