संसद भवन: ये सवाल तो भावी इतिहास हमेशा पूछेगा...
अजय बोकिल,वरिष्ठ पत्रकार
सार
कांग्रेस व अन्य दलों का तर्क है कि चूंकि संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति व लोकसभा व राज्यसभा के दोनों सदन मिलकर ही संसद कहलाती है, इसलिए संसद भवन के शुभारंभ का नैसर्गिक अधिकार राष्ट्रपति का है। अगर हम इसे अधिकार न भी मानें तो भी पहला सम्मान उन्हीं का है, क्योंकि वो देश की सर्वोच्च पदाधिकारी हैं।
विस्तार
इसमें दो राय नहीं कि 28 मई 2023 को नवनिर्मित संसद भवन का उद्घाटन प्रसंग एक साथ कई इतिहास बनाने वाला है। ये इतिहास वैचारिक संकल्पबद्धता का, उसे दरकिनार करने का, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का, क्षुद्र और दीर्घकालीन राजनीति का, श्रेय न लेने-देने का और ऐसा करने न देने का श्रेय लेने का, हिंदुत्व की परिभाषा में सभी समुदायों के फिट होने का, स्वतंत्र भारत के एक और अनूठे वास्तुशिल्प के लोकार्पित होने का और इस बात को पुनर्परिभाषित करने का कि लोकतंत्र का वास्तुशिल्पीय स्वरूप क्या हो तथा यह भी क्या नई वास्तु भारत के डेढ़ सौ करोड़ नागरिकों के मनोभाव को प्रतिबिंबित करने में सक्षम है?
बेशक सवाल कई हैं। नए संसद भवन का उद्घाटन महज एक रस्म अदायगी नहीं है, जिसे किसी ने भी निभा दिया। यह भावी पीढ़ी को सौंपी जाने वाली लोकतांत्रिक विरासत है, जिसके राजनीतिक और सामाजिक पहलुओं को लेकर आने वाली नस्लें सवाल करती रहेंगी। यह उन चुनिंदा वास्तु शिल्पों में से है, जिसे हमने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अंगीकार करने के बाद बनाया है।
संसद भवन के लोकार्पण का बहिष्कारअब यह लगभग तय है कि लोकतंत्र में निहित असहमति के सम्मान के मूल्य के बरखिलाफ नए संसद भवन के लोकार्पण समारोह में कांग्रेस और उसके नेतृत्व में 20 विपक्षी दल इस ऐतिहासिक आयोजन का बहिष्कार करेंगे। हालांकि नए संसद भवन के औचित्य, आवश्यकता वास्तुशिल्प को लेकर पहले भी सवाल उठते रहे हैं, लेकिन फिलहाल जिस बात को विरोध का मुद्दा बनाया जा रहा है, वो है देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों इसका लोकार्पण कराना।
कांग्रेस व अन्य दलों का तर्क है कि चूंकि संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति व लोकसभा व राज्यसभा के दोनों सदन मिलकर ही संसद कहलाती है, इसलिए संसद भवन के शुभारंभ का नैसर्गिक अधिकार राष्ट्रपति का है। अगर हम इसे अधिकार न भी मानें तो भी पहला सम्मान उन्हीं का है, क्योंकि वो देश की सर्वोच्च पदाधिकारी हैं।
इसके जवाब में भाजपा और मोदी सरकार का तर्क है कि पहले भी ऐसे कई मौके आए हैं, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ( मुख्य रूप से जवाहरलाल नेहरू) ने कई भवनों व एनेक्सी आदि का लोकार्पण किया है। इसलिए मोदी भी ऐसा ही कर रहे हैं, तो गलत क्या है? वैसे भी मोदी, नेहरू की उस परंपरा को दोहराने जा ही रहे हैं, जिसके तहत 15 अगस्त 1947 की रात देश में सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक स्वरूप नेहरू ने ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि लाॅर्ड माउंटबैटन से सेंगोल ग्रहण किया था।
मोदी बनाम नेहरू, आखिर कब तक?
भाजपा अमूमन नेहरू के हर काम को गलत ठहराती है और उसे तुष्टिकरण तथा आत्ममुग्धता से जोड़कर देखती है। लेकिन वर्तमान संदर्भ में इसके दो अर्थ हैं। या तो पं. नेहरू ने जो ‘गलतियां’ की थीं, भाजपा भी अब उसी राह पर चल पड़ी है या फिर नेहरू ने जो किया ( जिसमें सेंगोल ग्रहण भी शामिल है) उसे भाजपा अब सही मान रही है।
दूसरे, धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र के कट्टर समर्थक नेहरू ने सी. राजगोपालाचारी के आग्रह पर ही तमिलनाडु के ऐतिहासिक गौरव काल, चोल साम्राज्य के समय के सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक (जो राज और धर्मदंड जैसा था) को सार्वजनिक रूप से ग्रहण करना स्वीकार किया। चोल काल वह समय है, जब तमिलनाडु में शैव सम्प्रदाय का नए सिरे से उत्थान हुआ। यानी यह उस विचार का स्वीकार भी था, जिससे नेहरू स्वयं बहुत इत्तफाक नहीं रखते थे। फिर भी नेहरू ने इसे इसलिए माना कि राजगोपालाचारी तथा कुछ और लोगों की ऐसी इच्छा थी कि 'सर्वधर्म समभाव' वाले भारत में भी हिंदू परंपराओं की महत्ता बनी रहे। यह दूसरे विचार को तात्कालिक ही सही, मानने का भाव था। हालांकि सत्ता हस्तांतरण के बाद वही सेंगोल इलाहाबाद के संग्रहालय में रखवा दिया गया। राजशाही से भारत के लोकशाही में परिवर्तन का वह प्रतीक 75 सालों तक उपेक्षित पड़ा रहा। यह बात अलग है कि कुछ लोग आज भी सेंगोल को राजदंड यानी राजशाही का प्रतीक मानते हैं।
यह हो सकता था कि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लोकसभा स्पीकर ने जब नए संसद भवन के लोकार्पण का अनुरोध किया तो स्वयं मोदी यह पुनीत कार्य राष्ट्रपति से कराने का उदात्त भाव प्रदर्शित करते और इस समारोह में विशेष अतिथि के तौर पर शामिल होते। लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। वैसे मोदी इस भवन का शिलान्यास स्वयं कर ही चुके थे और जनता में यह संदेश साफ था कि नया संसद भवन, काशी में विश्वनाथ काॅरिडोर की तरह मोदीजी का ही ड्रीम प्रोजेक्ट है। अर्थात स्वयं लोकार्पण न करने के बाद भी श्रेय उन्हीं के खाते में लिखा जाता।
लोकार्पण का बहिष्कार- क्षुद्र राजनीति नए संसद भवन के लोकार्पण का बहिष्कार प्राथमिक तौर पर क्षुद्र राजनीति लगती है, लेकिन इसका संदेश गहरा और दूरगामी होगा। इसे केवल विपक्षी एकता की एक और कोशिश अथवा कर्नाटक चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस की बढ़ती आक्रामकता के तौर पर ही देखना सही नहीं होगा।
विपक्ष ने राष्ट्रपति को मुद्दा इसलिए भी बनाया है, क्योंकि वो एक महिला हैं और उस आदिवासी समाज से हैं, जिस समाज से पहला राष्ट्रपति बनाने का श्रेय लेने में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी। यह सही भी था कि जिन्हें देश का मूल निवासी माना जाता है, उस वर्ग का कोई देश का राष्ट्रपति भी बने, यह मानने में 75 साल लग गए। कांग्रेस चाहती तो खुद ऐसा कर सकती थी, लेकिन तब उसकी निगाह में क्षेत्रीय अथवा धार्मिक संतुलन ही ज्यादा महत्वपूर्ण रहा। लेकिन इस समय वो यह दिखाना चाहती है कि भाजपा और मोदी का आदिवासी प्रेम महज दिखावा और वोटसापेक्ष है। जब वास्तव में श्रेय लेने की बात आती है तो बड़ी आसानी से आदिवासियों को किनारे कर दिया जाता है। इसे सही ठहराने के तर्क भी गढ़ लिए जाते हैं।
इस दुखती रग पर भाजपा और उसे बड़बोले प्रवक्ता मौन हैं। जवाब में वो कांग्रेस की ‘गलतियों’ को वैधानिक ठहराने में अपना बचाव मान रहे हैं। कांग्रेस व अन्य दलों का विरोध इसलिए भी है, क्योंकि उद्घाटन का मुहूर्त किसी राष्ट्रीय उत्सव दिवस के बजाय हिंदुत्व विचार के जनक वीर सावकर की जन्म जयंती को चुना गया। यह परोक्ष रूप से भारत के हिंदू राष्ट्र बनने का संकेत है। फर्क इतना है कि कांग्रेस ‘हिंदुओं’ को चाहती है, ‘राष्ट्र’ को भी चाहती है, लेकिन ‘हिंदू राष्ट्र’ को नहीं चाहती।
जहां तक तकनीकी तौर पर संसद भवन के उद्घाटन की बात है तो प्रधानमंत्री को उतना ही अधिकार है। वैसे भी जब मोदीजी हर वंदे मातरम् ट्रेन को हरी झंडी दिखा रहे हैं तो ये तो संसद भवन का मामला है, उस संसद का, जिसके वो नेता हैं और करोड़ों हिंदुओं के आदर्श हैं। लिहाजा यह उद्घाटन इस मायने में भी ऐतिहासिक है क्योंकि यह भव्य भवन एक हिंदू राजपुरुष द्वारा देखे गए सपने, एक हिंदू वास्तुशिल्पकार द्वारा डिजाइनीकृत, हिंदुत्व विचारधारा के पुरोधा की जयंती पर उद्घाटित, हजारों हिंदू श्रमिकों (जिनमें कुछ दूसरे धर्मों के भी हो सकते हैं) के हाथों निर्मित व भारत के विश्व गुरू बनने के मंगलाचरण का महाघोष करता स्थापत्य है। ऐसे स्थापत्य के लोकार्पण के लिए मोदी से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता।
जहां तक कांग्रेस की बात है तो संसद भवन के लोकार्पण के बहाने वो जो मोदी विरोध का नरेटिव खड़ा करना चाहती थी, उसमें उसे आंशिक सफलता ही मिली है। क्योंकि 17 ऐसे विरोधी दल इस समारोह में शामिल हो रहे हैं, जिनके लिए मोदी समर्थन से ज्यादा कांग्रेस विरोध महत्वपूर्ण है तथा जो लोकतंत्र के इस नए मंदिर के उद्घाटन को दलीय दुराग्रहों से ऊपर उठकर देख रहे हैं। यानी विपक्ष भी पूरी तरह एक नहीं है। साथ ही इससे 2024 में संभावित राजनीतिक समीकरणों की झलक मिलती है। आगामी चुनावों में मुकाबला त्रिकोणीय हो सकता है।
कई सवालों का जवाब भविष्य की गोद में
एक और सवाल कि क्या नया संसद भवन एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की आत्मा का वास्तुशिल्पीय प्रतिबिंब है या नहीं? अमूमन शिल्पशास्त्र का सीधा सम्बन्ध मानव सभ्यताओं और संस्कृति के उत्थान पतन, राजनीतिक विचारों और राजशैलियों के विकास व सामाजिक परिवर्तनों से रहा है। वास्तु शिल्प इन प्रवृत्तियों का भौतिक उद्घोष माने जाते हैं। अमूमन माना जाता है कि राजशाही अथवा औपनिवेशिक वास्तुशिल्प में अधिनायकवादी प्रवृत्ति हावी होती है। वह मंत्रमुग्ध करने के साथ स्थापत्य की किसी हद तक आतंकित करने वाली विराटता, भव्यता, उत्कृष्टता और अप्रतिमता आम आदमी को उसके बौने पन और अजनबीपन का अहसास भी कराती है। जबकि लोकतांत्रिक वास्तु शिल्प में संवाद, परस्पर गरिमा और सहज भव्यता पर जोर रहता है। ऐसी भव्यता जिसमें देश का नागरिक खुद को सहज महसूस करे, उसे अपने राजनीतिक दर्शन का स्वाभाविक वास्तुशिल्पीय बयान मानें। यहां संवाद, गरिमा और न्याय अनिवार्य तत्व हैं।
नए संसद भवन के वास्तुशिल्प पर भी इन मुद्दों से सवाल उठे थे। लेकिन अभी जो वीडियो देखने में आए हैं, उससे यह वास्तु भव्य तो लगती है। यह अलग बात है कि अभी भी पुराने वास्तु शिल्पों की उद्दम भव्यता नए स्थापत्यों पर कई बार भारी पड़ती है। जो सवाल इस प्रसंग पर उठे हैं, उनमें से कुछ के जवाब आने वाले समय में मिल भी सकते हैं, लेकिन एक सवाल भाजपा के लिए फांस बना रह सकता है कि उसने इस ऐतिहासिक क्षण का सेहरा एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति के सिर क्यों नहीं बंधने दिया ठीक उसी तरह कि जैसे खुद को दलितों का खैरख्वाह मानने वाली कांग्रेस ने संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर को लोकसभा में चुनकर क्यों नहीं जाने दिया?