पुस्तक : जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद
‘मीडिया को जो लोग चला रहे हैं, वे दरअसल मीडिया के लोग नहीं हैं’- संत समीर
आजकल आमतौर पर जिस तरह के साक्षात्कार हमें पढ़ने को मिलते हैं, यदि उनके भीतर की परतों को पहचानने की कोशिश करें तो कम ही साक्षात्कार मिलेंगे जो सही मायने में सच का साक्षात् करा पाते हों। आत्मश्लाघा इस दौर के साक्षात्कारों की आम बात है। असुविधाजनक प्रश्नों से बचकर निकल लेना या गोलमोल उत्तरों का आवरण चढ़ाकर उन्हें और उलझाकर छोड़ देना विवादों से बचे रहने का सुविधाजनक तरीक़ा बन गया है। इस प्रवृत्ति से इस बात का भी अन्दाज़ा लगता है कि हमारे तमाम ऊँची ख्याति के लोगों की दृष्टि कितनी साफ़ है या कि उनमें असुविधाजनक सवालों का सामना करने की हिम्मत कितनी है। इसके बरअक्स हाल ही में आई किताब ‘जो कहूँगा सच कहूँगा’ के साक्षात्कार सचमुच आवरणविहीन हैं और वक्ता के व्यक्तित्व और उसके मन की तरंगों का वाणीगत साक्षात् कराते हैं। बेबाकबयानी इन साक्षात्कारों की ख़ासियत है। पूरी पुस्तक में भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी के समय-समय पर लिए गए कुल पच्चीस साक्षात्कार संकलित हैं।
इन साक्षात्कारों में प्रो. संजय द्विवेदी के व्यक्तित्व के कई आयाम एक साथ उभरे हैं। व्यक्तिगत बातें हैं; आस्था-विश्वास-मान्यताएँ हैं; तो पेशागत बातें बारम्बार अलग-अलग सवालों के साथ नए-नए उत्तरों के रूप में उपस्थित रहती ही हैं। अध्ययन के हिसाब से देखें तो साक्षात्कार को कोई रोचक विधा नहीं माना जाता, पर इन साक्षात्कारों की एक विशिष्टता यह भी है कि ये पाठक को बाँधकर रखते हैं। प्रो. द्विवेदी बोलते तो बेधड़क हैं ही, व्यवहार की सहजता भी उतनी ही है; सो, इस पुस्तक के पन्नों में उनके भीतर के लेखक और वक्ता, दोनों का अन्दाज़ एक साथ उभरता दिखाई देता है। विभिन्न मुद्दों पर जो बातें उन्होंने की हैं, उनमें तार्किकता के साथ समग्र सोच की झलक मिलती है। समग्रता और साफ़गोई की बिना पर ही इस पुस्तक के पढ़े जाने का अनुमोदन किया जाना चाहिए। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए ही नहीं, यह उनके भी काम की है, जो अपनी प्रतिबद्धताओं की रक्षा करते हुए भी मौजूदा झंझावातों से बेदाग़ पार निकलने का हौसला चाहते हैं। पत्रकारिता के ‘निगेटिव जोन’ में विचरण करते हुए प्रो. द्विवेदी के इन साक्षात्कारों में आप ‘मोटिवेशन’ के कई ज़रूरी ‘टूल’ तलाश सकते हैं।
बातचीत की इस पुस्तक में पत्रकारिता के गुज़रे ज़माने की बातें हैं, वर्तमान का हाल है और भविष्य की ख़बरनवीसी का तर्कसंगत ख़ाका है। विविधतापूर्ण प्रश्नों के लिए उत्तरों का वैविध्य है। कुछ और आगे की बात करें तो द्विवेदी जी के पास उलझे हुए सवालों के सुलझे हुए जवाब हैं। वे बेलाग और दोटूक बात करते हैं, पर भरपूर शालीनता के साथ। आदर्श और व्यावहारिकता का अकृत्रिम संतुलन साधना उनको आता है। बग़ैर सामाजिक सरोकार के पत्रकारिता की कल्पना वे नहीं करते, पर मीडिया संस्थान चलाने के लिए पूँजी की ज़रूरत का भी उन्हें पता है। द्विवेदी जी स्पष्ट कहते हैं—“सामाजिक सरोकार छोड़कर कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती।” लेकिन इसी के साथ अगले ही पृष्ठ पर वे जवाबनुमा सवाल करते हैं—“इतने भारी-भरकम और ख़र्चीले मीडिया को कॉरपोरेट के अलावा कौन चला सकता है?” वे कहते हैं—“अगर आप सस्ता अख़बार और पत्रिकाएँ चाहते हैं तो उसकी निर्भरता तो विज्ञापनों पर रहेगी। विज्ञापन देने वाला कुछ तो अपनी भी बात रखेगा। यानी अगर मीडिया को आज़ाद होना है, तो उसकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए। ऐसे में पाठक और दर्शक उसका ख़र्च उठाएँ।” कई सवाल उलझन पैदा करने वाले हो सकते हैं, पर द्विवेदी जी को जवाब देने में कोई उलझन नहीं है। सत्ता-नेता और पत्रकारों के आपसी रिश्तों से उन्हें कोई परेशानी नहीं है, वे स्पष्ट करते हैं—“सत्ता या दलों के निकट होना ग़लत नहीं है। मूल बात है ख़बरों के लिए ईमानदार होना। मैं ऐसे अनेक पत्रकारों को जानता हूँ कि वे अनेक नेताओं, अधिकारियों के हमप्याला-हमनिवाला रहे, किंतु जब ख़बरें मिलीं तो उन्होंने उनके साथ कोई रियायत नहीं बरती। यही मीडिया का चरित्र है।”
मीडिया की ताक़त और एक स्वस्थ लोकतंत्र में विभिन्न मोर्चों पर उसकी अपरिहार्यताओं के साथ द्विवेदी जी उसकी सबसे बड़ी विडंबना की भी शिनाख़्त करते हैं—“मेरी मूल पीड़ा है कि मीडिया को जो लोग चला रहे हैं, वे दरअसल मीडिया के लोग नहीं हैं। मीडिया का जो कंटेंट है, मीडिया का जो फॉर्मेशन है, मीडिया की जो प्रेजेंटेशन है, मीडिया की जो नीतियाँ हैं, उन्हें आख़िर कौन तय कर रहा है।...संकट यह आया है कि मीडिया के न जानने वाले लोग आज प्रबंधन की कुर्सियों पर बैठे हुए हैं...।” ज़ाहिर है ऐसे परिदृश्य में यह सवाल भी उठना लाज़िम है कि पत्रकारिता अपने उद्देश्य से भटक गई है। लेकिन द्विवेदी जी मीडिया पर एकतरफ़ा दोष नहीं मढ़ते, वे कुछ अलग बात कहते हैं—“जैसा हमारा समाज होता है, वैसे ही हमारे समाज के सभी वर्गों के लोग होते हैं। उसी तरह का मीडिया भी है। तो हमें अपने समाज के शुद्धीकरण का प्रयास करना चाहिए।”
एक उलझा हुआ सवाल जर्नलिस्ट बनाम एक्टिविस्ट का भी है। द्विवेदी जी कहते हैं—“अभी समस्या यह हो रही है कि जर्नलिस्ट के रूप में एक्टिविस्ट मीडिया में प्रवेश कर गए हैं। एक्टिविस्ट होना बुरा है, ऐसा मैं नहीं मानता, लेकिन मेरा मानना है कि अगर आप एक्टिविस्ट हैं, तो उसी भूमिका में रहिए, जर्नलिस्ट की भूमिका में मत आइए। जर्नलिस्ट बनकर आप जो भारत विरोधी विचारों या अपने निजी विचारों का समर्थन करते हैं, वह एक जर्नलिस्ट का काम नहीं है।”
भाषा के प्रश्न पर द्विवेदी जी ने समाधानपरक बातें की हैं। हिंदी के प्रश्न पर उनकी भावना अपील करती है कि ‘भाषाएँ और माताएँ अपने बच्चों से ही सम्मान पाती हैं’। उर्दू का भविष्य भी वे उज्ज्वल देखते हैं। वास्तव में मीडिया से जुड़ा शायद ही कोई ज़रूरी सवाल होगा, जिस पर द्विवेदी जी ने स्पष्टता के साथ बात न की हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जहाँ हमारे विद्वान् अक्सर किसी विधा के समर्थन या विरोध का कोई एक पक्ष लेकर खड़े हो जाते हैं, तो वहीं द्विवेदी जी किसी भी चीज़ के दोनों पहलुओं पर निष्पक्ष निगाह रखते हैं। मसलन, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामर्थ्य, उसकी पहुँच और अपील को वे स्पष्ट रूप से स्वीकारते हैं, पर साथ ही टीवी मीडिया पर बेबाकी से अपनी तीखी आलोचनात्मक राय भी रखते हैं—“इस समय का संकट यह है कि एंकर या विशेषज्ञ तथ्यपरक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अपनी पक्षधरता को पूरी नग्नता के साथ व्यक्त करने में लगे हैं। ऐसे में सत्य और तथ्य सहमे खड़े रह जाते हैं। दर्शक अवाक् रह जाता है कि आख़िर क्या हो रहा है। कहने में संकोच नहीं है कि अनेक पत्रकार, संपादक और विषय विशेषज्ञ दल विशेष के प्रवक्ताओं को मात देते हुए दिखते हैं।...मीडिया की विश्वसनीयता को नष्ट करने में टीवी मीडिया के इस ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित ज़रूर किया जाएगा।”
पत्रकारिता से इतर प्रो. द्विवेदी स्वदेशी जैसे राष्ट्रीय स्वावलंबन के मुद्दों और नई शिक्षा नीति से लेकर सरकारी रीति-नीतियों के विविध पहलुओं से भी प्रश्नकर्ताओं के विविध प्रश्नों के ज़रिये वाबस्ता होते हैं। स्वदेशी के साथ-साथ अन्यान्य कई मुद्दों पर द्विवेदी जी आज के दौर में भी महात्मा गांधी को उतना ही प्रासंगिक मानते हैं, जितना कि वे पहले थे। नई शिक्षा नीति के सवाल पर उन्हें लगता है कि इससे भारतीय भाषाओं को जो सम्मान मिला है, वह बड़ी बात है। इसके अलावा उनके अनुसार नई शिक्षा नीति में ‘स्किल्ड भारत’ बनाने की जो बात है, वह इस निजाम की एक दूरगामी सोच साबित हो सकती है।
इस पुस्तक को पढ़ते हुए स्पष्ट होता है कि प्रो. संजय द्विवेदी पत्रकारिता के विद्वान् तो हैं ही, उन्होंने लोकजीवन की तमाम परतों को भी अपनी जीवन-यात्रा में उलट-पलट कर महीन दृष्टि से देखा है। साक्षात्कारों की यह पुस्तक इस मायने में भी विशिष्ट हो जाती है कि यह पश्चिमी मूल्यों पर खड़ी पत्रकारिता की बुनियाद में गहरे तक बैठी नकारात्मकता की पहचान करती है और भारत की संस्कृति में पुरातन काल से उपस्थित रहे संचार और संवाद के मूल्य ‘लोकमंगल’ के लिए आधुनिक पत्रकारिता में प्रवेश का मार्ग सुझाती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)