क्या खुद को सुभाषचंद्र बोस जैसा साबित कर पाएंगे थरूर?
अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार
सार
कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव यूं तो 17 अक्टूबर को होना है। वो भी तब यदि 8 अक्टूबर तक दो में से एक प्रत्याशी शशि थरूर ने नाम वापस नहीं लिया तो। वरना गांधी परिवार का आशीर्वाद लेकर चुनाव में उतरने वाले कर्नाटक के वयोवृद्ध नेता मल्लिकार्जुन खडगे का जीतना तय है।
शशि थरूर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए उम्मीदवार के तौर पर खड़े हुए हैं
विस्तार
अब जबकि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव महज एक औपचारिकता ही रह गया है, दिलचस्पी का विषय सिर्फ इस चुनाव में गैर गांधी खेमे के प्रत्याशी शशि थरूर का घोषणा पत्र है। थरूर ने वादा किया है कि वो अगर अध्यक्ष चुने गए तो कांग्रेस में हाई कमान कल्चर खत्म करेंगे। यह वादा कुछ-कुछ वैसा ही है कि मछली यह कहे कि वो पानी में रहना छोड़ देगी। जाहिर है कि थरूर जिस तरह की बातें कर रहे हैं, उससे लगता है कि उन्हें अहसास हो गया है कि चुनाव में हारना तो है ही, क्यों न तब तक सुर्खियां ही बटोर ली जाएं।
चुनाव 17 अक्तूबर को
काफी कुछ ‘हाई प्रोफाइल ड्रामे’ में तब्दील हो चुका कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव यूं तो 17 अक्तूबर को होना है। वो भी तब यदि 8 अक्टूबर तक दो में से एक प्रत्याशी शशि थरूर ने नाम वापस नहीं लिया तो। वरना गांधी परिवार का आशीर्वाद लेकर चुनाव में उतरने वाले कर्नाटक के वयोवृद्ध नेता मल्लिकार्जुन खडगे का जीतना तय है। खडगे और थरूर में कांग्रेसी होने, दोनो के दक्षिण भारत से होने की समानता के साथ-साथ कुछ बुनियादी फर्क भी है।
मसलन खडगे दलित कन्नड परिवार से आते हैं तो थरूर एक कुलीन मलयाली नायर परिवार से हैं। उनका तो जन्म भी विदेश में हुआ। हालांकि बाद में शिक्षा दीक्षा भारत में हुई। वे मेधावी छात्र रहे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी अच्छीव पहचान है। उन्होंने बरसों संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टाफ में काम किया। अंगरेजी पर उनका असाधारण अधिकार है। लेकिन चुनाव का दबाव कहें कि पहली बार मीडिया के सामने थरूर हिंदी बोलते नजर आए।
थरूर संरासं की नौकरी छोड़कर कांग्रेस में आए और अपने गृह राज्य केरल से लगातार 2009 से सांसद का चुनाव जीत रहे हैं। उनकी जिद कांग्रेस को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की है। 66 वर्षीय थरूर, 80 वर्षीय खडगे की तुलना में युवा ही हैं। पढ़े-लिखे और सम्पन्न युवा वर्ग में उनकी पहचान है। हालांकि कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ताओं से उनका रिश्ता कितना है, कहना मुश्किल है।
मल्लिकार्जुल खड़गे पर एक नजर
दूसरी तरफ मल्लिकार्जुन खडगे पेशे से वकील हैं। दलित समाज से हैं। वो 1972 से लगातार दस चुनावो तक कर्नाटक की गुरमीतक्कल विधानसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतते रहे। मंत्री भी रहे। फिर राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष रहे। यह बात अलग है कि कांग्रेस ने उन्हें कभी कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाने के बारे में नहीं सोचा।
खडगे की गांधी परिवार के प्रति निष्ठा असंदिग्ध है। अध्यक्ष चुने जाने के बाद भी आला कमान का निर्देश मानने में कोई कोताही वो शायद ही करें। खडगे हिंदी भी अच्छी जानते हैं। इसलिए कार्यकर्ताओं से संपर्क रखने में दिक्कत नहीं होगी। लेकिन ढलती उम्र में वो पार्टी में जान डालने में कितने कामयाब होंगे, कहना मुश्किल है। हालांकि खडगे अध्यक्ष बने तो दक्षिण भारत से कांग्रेस अध्येक्ष बनने वाली सातवीं शख्सियत होंगे।
देश के 9 हजार से ज्यादा मतदाता कांग्रेस डेलीगेट्स में यह संदेश साफ है कि गांधी परिवार का हाथ खडगे की पीठ पर है। उनके नाम पर ही ठप्पा लगाना है। अध्यक्ष चुनाव में खडगे के नामजदगी पर्चे के 30 वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रस्तावक बने। जबकि थरूर को मुश्किल से आधा दर्जन प्रस्तावक मिले। ये भी वो लोग हैं, जो कांग्रेस में सिर पर कफन बांध कर खड़े हैं। इनमें से कई तो बागी जी 23 समूह से जुड़े हैं।
इस चुनाव का रोचक पक्ष यही है कि थरूर ने अध्यक्ष चुनाव के बहाने ही सही, आला कमान संस्कृति पर सवाल उठाने की हिम्मत तो दिखाई।
उधर खडगे अपने प्रतिद्वंद्वी थरूर के साथ किसी भी तरह के विवाद या बहस से बच रहे हैं। वैसे भी जब ज्यादातर वोट उनके पक्ष में ही पड़ना है तो बेवजह किसी विवाद में क्यों पड़ना। हालांकि दोनो प्रत्याशी चुनाव प्रचार के लिए राज्यों में भी जाने वाले हैं। लेकिन वहां भी सारी स्क्रिप्ट पहले से तय है।
खडगे और थरूर के बीच इस मुकाबले को लोग अलग अलग नजरों से देख रहे हैं। कुछ लोगो का मानना है कि यह कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी और प्रियंका की लड़ाई है तो कुछ लोग नई और पुरानी पीढ़ी के द्वंद्व के रूप में इसे देख रहे हैं।
दलित होना कांग्रेस के लिए एक प्लस प्वांइट
माना यह भी जा रहा है कि थरूर की संभावित हार कांग्रेस के बागी जी 23 ग्रुप के हौसलों में आखिरी कील होगी। जहां थरूर कांग्रेस के चरित्र में आमूल बदलाव की बात रहे हैं वहीं खडगे का रोड मैप अभी साफ नहीं है, लेकिन वो यथास्थितिवाद पर ही ज्यादा भरोसा करेंगे। उनका दलित होना कांग्रेस के लिए एक प्लस प्वांइट हो सकता है, लेकिन खडगे ने दलितों की राजनीति कभी की नहीं। इसलिए जातीय समीकरण से उनको बहुत फायदा होगा, ऐसा नहीं लगता।
खडगे कर्नाटक से हैं, लेकिन उस उत्तर भारत में उनकी कोई खास पहचान नहीं है, जहां कांग्रेस को सबसे ज्यादा मजबूती की दरकार है और जहां से ज्यादा सीटें जीतना ही दिल्ली में सरकार बनाने की चाबी है। वैसे थरूर भी कोई जन नेता नहीं हैं, लेकिन उनका अपना एक विजन और आकर्षण है। लेकिन उनका ऊंची जाति से होना पार्टी को जातिगत रूप से फायदेमंद साबित नहीं होगा।
दिग्विजयसिंह अच्छा विकल्प हो सकते थे ?
कुछ जानकारों का मानना है कि कांग्रेस को मैदानी लड़ाई के लिए तैयार करने की दृष्टि दिग्विजयसिंह एक अच्छा विकल्प हो सकते थे। लेकिन पार्टी में उनके दुश्मनों ने आला कमान को भर दिया कि दिग्विजय को आगे करने का सीधा मतलब है िक हिंदू विरोध का झंडा हाथ में लेना। दरअसल, दिग्विजय सिंह के समय समय पर दिए गए गैर जिम्मेदाराना बयान ही उनके खिलाफ गए बावजूद इसके कि जमीनी राजनीति की उनकी समझ गहरी है।
उधर मीडिया से बातचीत में थरूर ने दावे के साथ कहा कि वे पार्टी के ‘हाईकमान कल्चर को बदलेंगे। अगर वो अध्यंक्ष बने तो पार्टी एक वाक्य में यह कहते हुए प्रस्ताव पारित नहीं कर सकती है कि कांग्रेस अध्यक्ष फैसला करेंगे। मैंने पार्टी कार्यकर्ताओं से बात की थी और मैंने ही विकेंद्रीकरण के विचार उठाया था।
इस बयान को जरा राजस्थान में विधायकों की आला कमान के प्रति बगावत के संदर्भ में समझें। वहां अशोक गहलोत अभी भी आला कमान को निर्णय के सर्वाधिकार देने का प्रस्ताव पारित न करवा पाने के लिए माफी भले मांग रहे हों, लेकिन सब किया कराया उन्हीं का था। यह भी आला कमान को परोक्ष रूप से चुनौती थी। थरूर उसी बात को खुले रूप में कह रहे हैं।
इस चुनाव का रोचक पक्ष यही है कि थरूर ने अध्यक्ष चुनाव के बहाने ही सही, आला कमान संस्कृति पर सवाल उठाने की हिम्मत तो दिखाई। लेकिन यह हिम्मत भी खुद के दम पर ही है। ऐसे में अध्यक्ष के चुनाव में भी उन्हें ‘शहादत’ मिलनी लगभग तय है। आश्चर्य नहीं कि इस तरह दम दिखाने का खमियाजा उन्हें अगले लोकसभा चुनाव में टिकट गंवाकर भुगतना पड़े। वैसे थरूर कोई सुभाषचंद्र बोस तो हो नहीं सकते, जिन्होंने 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव महात्मा गांधी के प्रत्याशी डाॅ. पट्टाभि सीतारमैया को हराकर जीता था। लेकिन तब कांग्रेसियो में भी उतना साहस था।
पट्टाभि की हार से दुखी गांधीजी ने इसे निजी पराजय माना था। हालांकि शीर्ष नेतृत्व से असहयोग और अहिंसा पर अपने अलग विचार के कारण नेताजी काम नहीं कर पाए और उन्होंने अगले ही साल पद से इस्तीफा देकर देश सेवा की नई राह पकड़ी। वैसा कोई चमत्कार अब देखने को मिलेगा, इसकी संभावना दूर तक नहीं है। दिलचस्पी की बात इतनी है कि इस चुनाव में थरूर कितने कांग्रेसियों के वोट हासिल कर पाते हैं। ताकि सनद रहे।
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