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अपना एमपी गज्जब है..17 पितृपक्ष में "गाली" खाते और मुद्दा बनते-बनाते बामन....


अरुण दीक्षित, वरिष्ठ पत्रकार
                    वैसे तो एमपी आदिवासियों का राज्य कहा जाता है लेकिन यहां ज्यादातर गैर आदिवासी सामंतों का राज रहा है। हर इलाके में राजाओं और  रियासतों की अच्छी खासी तादाद थी।कुछ रजवाड़े और ठिकाने तो आजादी के 75 साल बाद भी अपनी ठसक बनाए हुए हैं।यह अलग बात है कि आजकल सरकार आदिवासी राजाओं और देवताओं को खोज कर उन्हें स्थापित करने में लगी है।
                   पर इन दिनों एमपी में बामन खासे चर्चा में हैं।भाजपा हो या कांग्रेस..दोनों ही खेमे बामनों को गरियाने में लगे हैं।मजे की बात यह है कि कांग्रेस के तो बामन नेता ही यह काम कर रहे हैं।वे पुरानी कहावत - बामन कुत्ता नाऊ,जात देख गुर्राउ - को चरितार्थ कर रहे हैं।
 एक जमाना था जब मध्यप्रदेश में बामनों का अच्छा खासा प्रभाव था।लेकिन धीरे धीरे वे हर क्षेत्र में हाशिए पर पहुंचते गए।आज चाहे राजनीति हो या नौकरशाही, उनका प्रतिनिधत्व लगातार कम हुआ है।साथ ही अहमियत भी गिरी है।
                  बामनों को गाली देने का ताजा मामला कांग्रेस से जुड़ा है।कांग्रेस के मीडिया प्रभारी,जो कि खुद बामन हैं,एक वीडियो में ब्राह्मणों को गाली देते नजर आ रहे हैं। इससे पहले भाजपा के एक लोधी नेता ने ब्राह्मण कथावाचकों को लेकर अशालीन टिप्पणी की थी।चूंकि वह नेता उमाभारती के समर्थक थे इसलिए भारी हंगामा हो गया।और तो और कांग्रेस भी बामनों के "सम्मान" में मैदान में आ गई थी।कहते हैं कि भाजपा नेतृत्व ने भी मौके का पूरा फायदा उठाया!  लिखित माफी मांगे जाने के बाद भी बाहुबली लोधी नेता को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।एक जमाने में शिवराज की पुलिस के निशाने पर रहे नेता जी अब अपने समाज को साथ लेकर सड़कों पर अपनी ताकत दिखा रहे हैं।
                अब कांग्रेस के प्रवक्ता  द्वारा अपने ही समाज को भाजपा से जोड़कर गाली दिए जाने के बाद भाजपा हमलावर है।उसने कमलनाथ को ज्ञापन भी दिया है।लेकिन कमलनाथ अपने प्रिय प्रवक्ता को "अनाथ" करने के मूड में नहीं हैं।इसलिए उन्होंने भाजपा अध्यक्ष की तर्ज पर कोई कदम नहीं उठाया है।
 आगे उम्मीद भी कम है।क्योंकि अगर कमलनाथ ने ऐसा कोई कदम उठा लिया तो उनका मीडिया विभाग जो थोड़ी उछल कूद करता है ,वह भी बंद हो जायेगी। दरअसल बात भाजपा और कांग्रेस की नही है!एमपी में बामन लगातार अपनी हैसियत खो रहे हैं।अगर सत्तारूढ़ भाजपा की बात करें तो भले ही उसे बामन बनियों की पार्टी कहा जाए पर वे दशकों से हाशिए पर हैं।कैलाश जोशी आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे।फिलहाल विष्णु दत्त शर्मा प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर हैं।लेकिन सत्ता में बामनों की भागीदारी वे भी नही बढवा पाए हैं।
                 2003 में सत्ता पाने के बाद भाजपा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पिछड़े वर्ग के लिए लगभग आरक्षित कर दी है। उमा भारती (लोधी)बाबूलाल गौर(यादव) और शिवराज सिंह चौहान (किरार) सभी पिछड़े वर्ग से हैं।भविष्य में भी बामनों के लिए कोई उम्मीद नहीं है।
                   इस बार शिवराज मंत्रिमंडल में भी बामन दो ही हैं।गोपाल भार्गव और नरोत्तम मिश्रा मंत्री तो हैं।लेकिन इसलिए नही कि वे बामन हैं।उन्हें इसलिए मंत्री बनाना पड़ा है क्योंकि वे हर दृष्टि से "ताकतवर" हैं!उनकी अनदेखी करना भाजपा को भारी पड़ सकता है।अब तक किसी भी सरकार में इतने कम ब्राह्मण मंत्री नही रहे।खुद शिवराज की कैबिनेट में पहले ज्यादा मंत्री रहे हैं।
                  चूंकि अब नेतृत्व ने बामनों को मुख्यधारा से बाहर कर दिया है इसलिए उनकी ओर कोई ध्यान ही नही दे रहा है। पार्टी के 18 विधायक बामन हैं।लेकिन मंत्री कुल दो हैं।पिछले दरवाजे से मिलने वाली सत्ता में भी उनकी भागीदारी नगण्य है।
                  उधर कांग्रेस का भी यही हाल है।चाहे आजादी के बाद बना भोपाल राज्य हो या फिर दस साल बाद बना मध्यप्रदेश!दोनों ही राज्यों में मुख्यमंत्री बामन ही थे।डाक्टर शंकर दयाल शर्मा भोपाल के पहले और आखिरी मुख्यमंत्री थे। जबकि नए बने मध्यप्रदेश की कमान पंडित रविशंकर शुक्ल ने संभाली थी।बाद में कैलाश नाथ काटजू,द्वारिका प्रसाद मिश्र,भगवंत राव मंडलोई,श्यामाचरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बने।मोती लाल वोरा के बाद कांग्रेस में भी बामनों का दबदबा खत्म हो गया।दिग्विजय के दस साल और अलग छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के बाद बामन ऐसे ठिकाने लगे कि पार्टी में में नाम के लिए बचे हैं।
                 15 साल के बाद कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी थी।लेकिन उन्होंने भी बामनों को ज्यादा महत्व नही दिया।कहने को उनकी सरकार में बामन मंत्री थे।लेकिन उनमें एक भी ऐसा नही था जिसकी प्रदेशव्यापी पहचान हो ! राजनीति के खेल भी निराले होते हैं।जब एक लोधी नेता ने कथावाचक बामनों के चरित्र का बखान अपने समाज में किया तो कांग्रेस "बामन सम्मान" की दुहाई देते हुए मैदान में कूद पड़ी।भाजपा ने बामनों के सम्मान की आड़ में उमा भारती को एक सबक और सिखा दिया।साथ ही अपने बामन प्रेम पर "सील सिक्का" भी लगवा दिया।लोधी नेता पार्टी से बाहर हुआ पर बामनों को क्या मिला ? यह सवाल अनुत्तरित है।
                 लेकिन कांग्रेस तो यह भी नही कर पाई।दरअसल कमलनाथ की कांग्रेस पौरुष के हाथियों की फौज की तरह हो गई है। सब घूम फिर के एक दूसरे को ही कुचल रहे हैं।और कमलनाथ..वे तो पराजित पौरुष की तरह अपने सम्मान की भी बात नही कर पा रहे हैं।
 जो हालात हैं उनमें कमलनाथ खुद को बचाने में ज्यादा व्यस्त हैं।बामनों की चिंता वे कब और कैसे करें।
               कुल मिला कर हाल यह है कि राजनीति के मेले में बामन अब सिर्फ शोभा की वस्तु बन कर रह गए हैं।भाजपा हो या कांग्रेस ,दोनों ही वोट के गणित को देख रही हैं।इस गणित में अब बामन कहीं फिट नहीं बैठ रहे।इसकी एक बड़ी वजह वे खुद भी हैं।पहले वे सबको साथ लेकर चलते थे।योग्य को आगे बढ़ाते थे।अब खुद के आगे की सोच नही पा रहे हैं।
                 यूं तो आज भी प्रदेश में 28 विधायक और 5 सांसद ब्राह्मण हैं।लेकिन इनमें दो चार को छोड़ किसी की प्रदेश व्यापी पहचान नहीं है।जो बड़े नेता थे उन्हें घर बैठा दिया गया है। चाहे वे भाजपा के हों या कांग्रेस के। ऐसे में बामनों को कनागत में भी "खीर -पूड़ी" की उम्मीद नही करनी चाहिए।अभी तो दोनों दलों में गालियां मिल रही हैं!अगर ऐसा ही हाल रहा तो कुछ और भी मिल सकता है।क्योंकि अब दोनो ही दलों में पांव छुआने वाले नही बल्कि पांव छूने वाले बामनों के लिए ही जगह बची है।
                आखिर अपना एमपी गज्जब जो है।

                                                            ...000...

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