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भारत जोड़ो यात्रा : टी शर्ट-निक्कर की राजनीति के बजाए राहुल के नेतृत्व की प्रामाणिकता पर ध्यान देना ज्यादा अहम


अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार
सार
              यह सही है कि राहुल बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई जैसे शाश्वत मुद्दे उठा रहे हैं, लेकिन इन्हें चुनावी मुद्दों में बदलना टेढ़ी खीर है। अगर वो ऐसा कर पाए तो बहुत बड़ी बात होगी।  भारतीय राजनीति में जनता के जीवन से जुड़े मुद्दे कभी चुनाव जिताऊ मुद्दों में तब्दील नहीं हो पाते। केवल एक बार 1971 में ऐसा हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का लुभावना नारा देकर भारी बहुमत से लोकसभा चुनाव जीता, लेकिन उसके पीछे और भी दूसरे बहुत से कारण थे। 

विस्तार
             कांग्रेस सांसद राहुल गांधी भारत को जोड़ने और देश की आत्मा के अन्वेषण के जिस मकसद से कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा पर निकले हैं, उसके बीच कपड़ों की घटिया राजनीति समूची यात्रा को लक्ष्य से भटकाएगी है। हालांकि इसकी शुरूआत भी भाजपा ने ही राहुल की कथित मंहगी टी शर्ट को लेकर की थी, तो जवाबी हमले में कांग्रेस ने भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस का गणवेश रही निक्कर पर ही हमला बोल दिया। हालांकि खुद आरएसएस ने अब उसे पहनना छोड़ दिया है, लेकिन लगता है कि कांग्रेस के मानस में अभी भी उसकी छह साल पुरानी छवि कायम है।

             कांग्रेस के अधिकृत ट्विटर हैंडल से जलती हुई खाकी निक्कर की तस्वीर वायरल करना संघ और भाजपा को भड़काने वाला था, वही हुआ भी। कांग्रेस ने कमेंट किया कि संघ देश को जलाने का काम करता रहा है। इसका ठेठ जवाब यह आया कि कांग्रेसियों के बाप-दादा भी संघ को नहीं रोक पाए तो ये क्या रोकेंगे। भाजपा ने पलटवार में कांग्रेस से सवाल किया कि- क्या वो देश में हिंसा चाहती है?

               भारतीय राजनीति में अगर सत्ता में मिले तो हर पार्टी हिंसा का औचित्य भी ढूंढ लेती है। इसलिए यह कहना कि फलां पार्टी ही हिंसा की नसैनी पर सत्ता की सीढ़ी चढ़ना चाहती है, अर्द्ध सत्य होगा, लेकिन यहां असल मुद्दा राहुल गांधी की महंगी टी शर्ट अथवा आरएसएस की निक्कर नहीं है। अगर इसे फोकस में लाया जाता है तो इसका संदेश यही जाएगा कि यात्रा अपने मूल उद्देश्य से भटक रही है।
 
              इसमें दो राय नहीं कि वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले देश में लड़खड़ा रही कांग्रेस को फिर से खड़ा करना, पार्टी में राहुल गांधी की सत्ता को पुनर्स्थापित करना और संभव हुआ तो अगले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ राहुल के चेहरे को प्रोजेक्ट करना इस चार माह की यात्रा का राजनीतिक उद्देश्य है। इसमें भावना भी है और पार्टी की भाग्य रेखा को बांचना भी है। 

                 इस अर्थ में यह यात्रा अपने लक्ष्य की प्राप्ति में कितनी सफल होती है, यह यात्रा को मिलने वाले जनसमर्थन और स्वयं राहुल के एटीट्यूड पर निर्भर करता है। यह अपने आप में विरोधाभासी है कि वो एक तरफ पैदल यात्रा भी कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उन्हें क्या करना है या भविष्य में वो करने वाले हैं, इसके पत्ते खोलने में भी झिझक रहे हैं। हो सकता है यह उनकी रणनीति का हिस्सा हो या फिर उनके अस्थिर मानस की एक और दुविधा हो, लेकिन जब तक वो इस महत्वाकांक्षी यात्रा में साफ-साफ अपने इरादों को संकल्प को व्यक्त नहीं करेंगे, देश का जनमानस इस यात्रा को बहुत संजीदगी से शायद ही लेगा।

                सांकेतिक शब्दावली में मनोभाव और संकल्प जताने का जमाना गया। अब तो झूठ भी इतने जोर से बोला जाता है कि उसकी ध्वनि तरंगे सच की तरह महसूस होने लगती हैं। इस डीजे का वाॅल्यूम ऐसे सेट किया जाता है कि लोग झूठ या अर्द्धसत्य पर भी मदहोशी में नाचने लगते हैं। ऐसे में राहुल को अपनी भारत यात्रा और स्वयं के राजनीतिक रोड मैप को भी जनता के सामने खुलकर सामने रखना होगा। 

सत्य और अर्द्ध सत्य

                आज देश बंट रहा है, यह सत्य है, लेकिन देश टूट रहा है, यह अर्द्ध सत्य है। कुछ लोगों का मानना है देश का मानसिक बंटवारा ही उसके भौगोलिक बंटवारे की बुनियाद बनेगा, लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि यह 1947 नहीं है, जब देश पर विदेशी सत्ता काबिज थी और गुलाम देश का भविष्य उसी के हाथ में निहित था। इसलिए स्वतंत्र भारत की कोई सी भी राजनीतिक पार्टी या समूचा समाज देश के बंटवारे को सपने में भी स्वीकार नहीं करेगा।

                अब रहा सवाल देश में प्रतिरोध के स्वर दबाने का, तो इसमें कुछ सच्चाई है, लेकिन ऐसा पहले कभी नहीं हुआ यह कहना भी सही नहीं है। केवल उसका तरीका बदल गया है। 

अब सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की यात्रा से देश सच में जुड़ पाएगा?
                  उनकी यात्रा के नक्शे को देखें तो जिन 12 राज्यों और दो केन्द्र शासित प्रदेशों से यह यह गुजरने वाली है, उनमें से पांच राज्य भाजपा शासित हैं और एक  केन्द्रशासित और एक पूर्ण राज्य में आम आदमी पार्टी का शासन है। कांग्रेस शासित राज्य केवल राजस्थान है, जहां से होकर यह यात्रा निकलेगी। इस हिसाब से यह यात्रा दक्षिण से उत्तर को तो जोड़ेगी। लेकिन पश्चिम से पूर्व को जोड़ने का इसमें प्रावधान नहीं है (शायद आगे हो)। 

                   बेशक सुदीर्घ यात्राएं भारत को समझने में हर किसी की मददगार रही हैं। राजनेताओं से लेकर संतों तक और कलाकारों से लेकर यायावरों तक। महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने के पहले समूचे भारत की यात्रा की। स्वामी विवेकानंद ने की। हाल के वर्षों में चंद्रशेखर और बाबा आमटे ने भी कीं। इस अर्थ में राहुल गांधी को ऐसी यात्रा पर बहुत पहले ही निकल जाना था।

                   पिछला लोकसभा चुनाव हारने के बाद उनके लिए जनता से जुड़ने और देश की आत्मा से साक्षात्कार का बेहतरीन मौका था। तब उसके राजनीतिक उद्देश्यों पर सवाल भी कम उठते। लेकिन उस वक्त उन्होंने केवल पद से इस्तीफा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, जबकि राजनीतिक रण में हार-जीत चलती रहती है, लेकिन अर्जुन की तरह कुरूक्षेत्र में आपको लड़ते ही रहना पड़ता है।

                सेनापति की संघर्षशीलता सैनिकों में भी जोश भरती है, लेकिन राहुल गांधी तब भी इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं थे कि उन्हें क्या और कैसे करना है और अभी भी इस बात का कोई साफ संकेत वो नहीं दे रहे कि यह यात्रा अंतत: उनकी निजी छवि को उजली करने के लिए है या फिर दिशाहीनता और मुद्दों के जंजाल में भटकती कांग्रेस के लिए दृढ़ संकल्प मशाल की तरह है। 

हिंदी भाषी राज्यों में क्या होगा असर?

                 राहुल गांधी की 12 राज्यों और दो केन्द्र शासित प्रदेशों में साढ़े तीन हजार किमी की यह यात्रा फिलहाल दक्षिणी राज्यों से गुजरी है, जिनमें से केरल में ही कांग्रेस बेहतर स्थिति में है। लग रहा है कि लोग इस यात्रा से जुड़ रहे हैं, क्योंकि आज की तारीख में कोई भी नेता देश जोड़ने की बात नहीं कर रहा है। लेकिन इस यात्रा का असल प्रभाव उन हिंदी भाषी राज्यों में देखा जाएगा, जहां कांग्रेस अभी भी दूसरी बड़ी सियासी ताकत है।

                  उधर भाजपा भी इस यात्रा को बहुत बारीकी से देख और बूझ रही है कि क्या राहुल देश की राजनीतिक धारा को बदल पाते हैं या नहीं। क्योंकि उनके अलावा बाकी विपक्ष देश के बजाए दलो को जोड़ने की बात कर रहा है। हालांकि समूचे विपक्ष का एका बहुत दूर की कौड़ी है, जिसे विश्वसनीयता की कागजी आंच पर पकाने की कोशिश हो रही है। अगले लोकसभा चुनाव के पहले कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन चुनावों के नतीजे भी सत्तापक्ष और विपक्ष के राजनीतिक हौसलों पर असर डालेंगे।  

                यह सही है कि राहुल बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई जैसे शाश्वत मुद्दे उठा रहे हैं, लेकिन इन्हें चुनावी मुद्दों में बदलना टेढ़ी खीर है। अगर वो ऐसा कर पाए तो बहुत बड़ी बात होगी।  भारतीय राजनीति में जनता के दैनंदिन जीवन से जुड़े मुद्दे कभी चुनाव जिताऊ मुद्दों में तब्दील नहीं हो पाते। केवल एक बार 1971 में ऐसा हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का लुभावना नारा देकर भारी बहुमत से लोकसभा चुनाव जीता, लेकिन उसके पीछे और भी दूसरे बहुत से कारण थे। 

                 दुर्भाग्य से यह हकीकत है कि जनता जिस पीड़ा को भोग रही होती है, वह वोट में बहुत कम अनूदित होता है। इसका कारण शायद यह है कि बहुसंख्य भारतीय वोटर वोट देते समय कई दूसरे तत्वों और आग्रहों को भी ध्यान में रखता है या बहकता है। भाजपा और आरएसएस यह बात बखूबी जानते हैं। लिहाजा अगले लोकसभा चुनाव का कोर मुद्दा क्या होगा और उसे कौन तय करेगा, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
 
                 राहुल और कांग्रेस के पास ऐसा कोई गेम चेंजर मुद्दा दिखाई नहीं पड़ रहा। भाग्यवश ऐसा कोई मुद्दा हाथ लग जाए तो बात दूसरी है। देश के बहुसंख्यकों का बड़ा वर्ग मोदी और उनकी कार्यशैली का समर्थक है। इस स्थिति में जल्द कोई बदलाव होगा, ऐसा नहीं लगता। 

                  ‘भारत जोड़ने’ का  राहुल गांधी का राजनीतिक लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है, जब बहुसंख्यक वोट मोदी मोह से टूटे और कांग्रेस के पास आए। केवल सदिच्छा राजनीतिक पथ पर बैटरी का काम तो कर सकती है, इंजन नहीं बन सकती। राहुल के पास उम्र का मार्जिन है, लेकिन वो देश का नेतृत्व पूरी प्रामाणिकता, संजीदगी और निरंतरता के साथ करना चाहते हैं, यह स्थापित हुए बगैर यह यात्रा अपने अभीष्ट को शायद ही प्राप्त कर पाए। इस  यात्रा को अपने लक्ष्य से भटकाने की खुद कांग्रेस को जरूरत नहीं है। लोगों को जो और जितना समझना है, वो समझ रहे हैं। 

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