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बैरंग चिट्ठी!


अरुण दीक्षित

                        आज के युग में चिट्ठी न जाने किस कोने में दब गई है। ईमेल,एसएमएस,व्हाट्सऐप,ट्विटर,इंस्टाग्राम,फेसबुक,सिगनल,मैसेंजर और न जाने ऐसे कितने ऐप हैं जिन्होंने चिट्ठी का अस्तित्व ही मिटा दिया है।ये ऐप चिट्ठी हत्यारे कहे जा सकते हैं।
 निजी चिट्ठियों की बात छोड़ भी दें,अब तो सरकार की भी चिट्ठियां आनी बंद हो गई हैं।सब कुछ ऑनलाइन हो रहा है।अब जो पीढ़ी बड़ी हो रही है उसके लिए हाथ से लिखना ही बड़ा काम है।ऐसे में वह चिट्ठी के बारे में सोच भी नही सकती है।जब सोच नही सकती है तो फिर लिखेगी कैसे?
आइए पहले चिट्ठी की प्रजातियों के बारे में बात करते हैं।एक जमाने में चिट्ठी के बहुत रंग होते थे।जैसी खबर लाई वैसा रंग मिला।पोस्टकार्ड,अंतर्देशीय,लिफाफा और रजिस्ट्री। ये आम चिट्ठियों के नाम होते थे।तब इनसे लिखने वाले और पाने वाले की हैसियत का अंदाजा भी लगाया जाता था।लेकिन चिट्ठियों की एक और प्रजाति होती थी!वह थी बैरंग चिट्ठी!यह वह चिट्ठी होती थी जो डाक विभाग के लिफाफे या पोस्टकार्ड पर नहीं भेजी जाती थी।यह बिना टिकट के लिफाफों में आती थी।कई बार लिखे हुए कागज़ को सफाई से मोड़ कर लिफाफा बना दिया जाता था।उसी पर पाने वाले का नाम पता तो होता था।लेकिन भेजने वाले का नहीं।
                       शहरों की तो हम नही जानते लेकिन अगर गांव में किसी की बैरंग चिट्ठी आ जाए तो पूरे गांव में सनसनी फ़ैल जाती थी।बैरंग चिट्ठी के बारे गांव को खबरदार करने का काम भी डाकिया साहब ही करते थे। डाकिया साहब इसलिए.. क्योंकि वे सप्ताह या पखबा ड़े में एक बार गांव आते थे।गांव की एकमात्र परचून की दुकान पर बैठ कर उन सबको खबर करा देते थे,जिनके नाम की चिट्ठियां उनके थैले में रहती थीं।लोग आकर अपनी चिट्ठियां ले जाते।ज्यादातर चिट्ठियां रिश्तेदारों के यहां हुई घटनाओं की सूचना लाती थीं।फौज में तैनात जवानों की चिट्ठियां दूर से पहचानी जाती थीं!उनके पाने वाले पहले ही झपट कर अपनी चिट्ठियां उठा लेते थे।कभी कभार आने वाली सरकारी चिट्ठियां लोगों को बहुत डराती थीं।क्योंकि बंद खाकी लिफाफे में आई ये चिट्ठियां खुशी और गम दोनों ही लाती थीं।
                    पोस्टकार्ड के जरिए आई चिट्ठी भले ही किसी एक के नाम पर आई हो लेकिन उसका मजमून पूरे गांव को तत्काल पता लग जाता था।अगर पोस्टकार्ड का एक कोना कटा हुआ है तो वह गमी की खबर वाला होता था।जिसमें सूचना के साथ उन लोगों के नाम लिखे होते थे जिन्हें तेरहवीं में बुलाया जाता था। अंतर्देशीय पत्र थोड़ा गोपनीय माना जाता था।यह ज्यादातर फौजी लिखते थे या फिर ससुराल गई बेटियां।ससुराल जाते समय उन्हें कोरे कागज और लिफाफे भी दिए जाते थे ताकि वे चिट्ठी भेज सकें।नई ब्याही बहुओं के लिए भी अंतर्देशीय लिफाफा ही आता था।ऐसी चिट्ठियों को बिना खोले पढ़ लेना एक बड़ी कला मानी जाती थी।कुछ ऐसे भी उस्ताद लोग थे जो लिफाफे के मोड़ों को बाहर करके ,उसे आड़ा टेढ़ा कर अंदर लिखा मजमून पढ़ लेते थे।फिर चटखारे लेकर दूसरों को उसके बारे में बताते थे।
                        लेकिन अगर किसी का बंद लिफाफा आता था तो पूरे गांव को खबर हो जाती थी कि फलाने के घर बंद लिफाफे में डाक आई है।बाद में लोग महीनों तक उस बंद लिफाफे की टोह लेते रहते थे।कई बार तो ऐसा भी होता था कि लोग संबंधित व्यक्ति तक पहुंचाने के नाम पर डाकिया साहब से लिफाफा ले लेते।लेकिन गंतव्य तक पहुंचाने से पहले लिफाफे को सावधानी से खोल कर , खत पढ़कर,फिर उसी सावधानी से बंद करके पहुंचाया जाता था।ऐसे मामलों में बंद लिफाफे की बात गांव में फैलते ही हंगामा हो जाता था।कई बार इस मुद्दे पर लट्ठ भी चल जाते थे।
 लेकिन इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती थी बैरंग चिट्ठी!बैरंग चिट्ठियों पर भेजने वाले का नाम पता नही होता था।उसे बहुत ही सलीके से बंद किया जाता था ताकि कोई उसे पढ़ न ले !
                      ऐसी चिट्ठियां ज्यादातर वे लड़कियां लिखती थीं जो अपने ससुराल में खुश नहीं रहती थीं।वे अपनी प्रताड़ना का किस्सा बैरंग चिट्ठी में लिख भेजती थीं। बैरंग चिट्ठी का सबसे खास पहलू यह था कि जिसके नाम आती थी उसे तत्काल डाकिया साहब को सामान्य लिफाफे का दोगुना भुगतान करना पड़ता था।जिन बेटियों की लिखावट मां बाप पहचानते थे उनकी चिट्ठियां तो बिना किसी झंझट के ले ली जाती थीं।लेकिन जो लड़कियां दूसरों से लिखवाकर चिट्ठी भेजती थीं उनकी चिट्ठियां कई बार स्वीकार नही की जाती थीं।उन्हें डाकिया साहब वापस ले जाते थे।वे अपनी किताब में तफसील से इस बात का जिक्र करते थे कि फलाने के नाम आई बैरंग चिट्ठी स्वीकार नहीं की गई है।इसके लिए वे उस दुकानदार को गवाह बनाते जिसकी दुकान पर बैठकर वे चिट्ठियां बांटते थे।
                    कहा जाता है कि "बैरंग लौटने" का मुहावरा ऐसी ही चिट्ठियों की वजह से बना था। कई बार डाकिया साहब उन बैरंग चिट्ठियों को नष्ट करने से पहले खुद पढ़ लेते थे।अगर जरूरी हुआ तो अगली यात्रा पर संबंधित व्यक्ति को उसका मजमून बता भी देते थे।
                    बैरंग चिट्ठियां आमतौर पर गंभीर सूचनाओं की वाहक होती थीं लेकिन कुछ लोग उनका भरपूर मजा भी लेते थे।उदाहरण के लिए अगर किसी के बेटे की शादी तय हुई है तो उसे उटकाने के लिए बैरंग चिट्ठी भेज दी जाती थी।उसमें होने वाली बहू के बारे में उल्टी सीधी बातें लिख दी जाती थीं।ऐसी चिट्ठियां शादी तुड़वाने में अहम भूमिका निभाती थीं।लड़कियों के होने वाले ससुराल में भी ऐसी ही चिट्ठियां भेजी जाती थीं।मजे की बात यह है कि इन काम बिगाड़ू बैरंग चिट्ठियों को लेने से कोई मना नही करता था।ऐसा डाकिया साहब का अनुभव था।
                     कुछ लोग बैरंग चिट्ठियों की आड़ में भरपूर हरामीपन भी करते थे।मसलन चिट्ठी के भीतर कुछ नही होता था।लेकिन एक जगह किसी लड़की का नाम इस तरह लिख देते कि जिसके नाम आई है वह तपाक से पैसे देता और चिट्ठी ले भागता।लेकिन थोड़ी ही देर बाद वह गाली देता हुआ लौटता।अच्छा तमाशा होता।साथ ही भरपूर मनोरंजन भी।महीने दो महीने में किसी न किसी के नाम बैरंग चिट्ठी आ ही जाती थी।
 बैरंग चिट्ठियां महत्वपूर्ण इसलिए मानी जाती थीं क्योंकि वे आमतौर पर सामान्य सूचनाएं नही लाती थीं।
                    हां कुछ लोगों के प्रेमपत्र भी बैरंग चिट्ठियों में आते थे।ऐसे लोग पहले से ही डाकिया साहब को पटा कर रखते थे।वे चुपचाप ,बिना जिक्र किए चिट्ठियां उन तक पहुंचा देते थे।ऐसे लोगों में वे युवा ज्यादा होते थे जिनकी शादी तो हो गई थी पर गौना नही हुआ था।इनकी पत्नियां बैरंग चिट्ठी में अपना बिरह गान लिखा करती थीं।सबसे मजे की बात यह है कि इन गोपनीय चिट्ठियों का मजमून जल्दी ही सब मित्रों तक पहुंच जाता था।बाद में जिंदगी भर उसी वजह से वह बेचारी महिला मजाक का पात्र बनी रहती थी।
                 झूठी बैरंग चिट्ठी कई बार बड़े संघर्ष का कारण भी बन जाती थी। अब बैरंग चिट्ठियों की प्रजाति लुप्त हो गई है।वैसे तो डाकखाने खुद लुप्त हो रहे हैं लेकिन बैरंग चिट्ठी तो पूरी तरह से ही लुप्त हो गई है। आज की पीढ़ी तो बैरंग चिट्ठी के कांसेप्ट को ही नही समझेगी।उसे बैरंग चिट्ठियों से जुड़े अनुभवों,व्याकुलताओं और रहस्य का अहसास ही नही होगा। एक जमाने में गांवों में चिट्ठी लिखने वाले और पढ़ने वाले लोग भी होते थे।ज्यादातर स्कूल मास्टर यह काम करते थे।
                 पहले चिट्ठियों का महत्व और गंभीरता ऐसी होती थी कि उन पर किताबें छपा करतीं थीं।कई प्रमुख नेताओं के पत्र आज भी किताबों की शक्ल में मौजूद हैं। पर अब कोई चिट्ठी नही लिखता।स्क्रीन पर उंगलियां चलाने से काम हो जाता है तो कलम क्यों पकड़ी जाए।लेकिन हाथ से लिखे हुए शब्द जो अहसास कराते थे वह इन शब्दों में नही मिलता।मुझे तो लगता है कि चिट्ठियों के साथ बहुत तरह के अहसास भी लुप्त हो रहे हैं,हो गए हैं।इस बात को आज की पीढ़ी नही समझेगी।

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