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गुलाम नबी: जम्मू- कश्मीर में क्या सियासी गुल खिला पाएंगे ?


अजय बोकिल 
                     उम्र के आखिरी दौर में अपनी मूल पार्टी कांग्रेस छोड़ने के बाद वरिष्ठ राजनेता गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस के बारे में दिलचस्प टिप्पणी की वह ‘डाॅक्टर के बजाय कंपाउंडर से दवा ले रही है।‘ मतलब साफ है कि कंपाउंडर की दवा से कांग्रेस के लाइलाज मर्ज का ठीक होना लगभग नामुमकिन है। लेकिन क्या खुद गुलाम नबी के पास हकीम लुकमान जैसी कोई दवा है, जिसके बूते पर वो अपने नए राजनीतिक अवतार में कुछ चमत्कार दिखा सकेंगे?  कांग्रेस में बरसों बिताने और तमाम अोहदों पर सत्ता सुख भोगने के बाद गुलाम नबी ने अगर कांग्रेस छोड़ी है तो इसके पीछे कुछ ठोस कारण और पर्दे के पीछे जम्मू कश्मीर में बीजेपी की दूरगामी रणनीति दिखाई पड़ती है। कहा जा रहा है कि गुलाम नबी अब अपनी नई पार्टी बनाएंगे। उनके समर्थन में जम्मू-कश्मीर के कई कांग्रेस नेताअों और कार्यकर्ताअों ने भी पार्टी छोड़ने का सिलसिला शुरू कर ‍िदया है। लेकिन सवाल यह है कि नई पार्टी बनाने के बाद भी क्या गुलाम नबी आगामी विधानसभा चुनाव में कोई करिश्मा कर पाएंगे? भले वो जम्मू-कश्मीर के तीन साल तक मुख्‍यमंत्री रहे हों और कश्मीर की सियासत से जुड़े हों, लेकिन खुद उन्होंने अपने गृह राज्य में कोई चुनाव आज तक नहीं जीता है। ऐसे जम्मू-कश्मीर की राजनीति में आजाद की वास्तव में क्या भूमिका रहेगी, रहेगी भी या नहीं, यह देखने की बात है। क्या वो भाजपा की केसरिया शतरंज में ‘गेम चेंजर’ साबित होंगे या फिर पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह अपने सियासी वजूद का आखिरी किला लड़ाते लड़ाते धराशायी हो जाएंगे? 
                           इन सवालों का जवाब तलाशने के पहले हमे समझना होगा कि जम्मू-कश्मीर के इस बार के विधानसभा चुनाव में क्या बदला हुआ होगा और पूर्व में राजनीतिक पार्टियों का ट्रेंड क्या रहा है। पिछले तीन विधानसभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करें तो एक बात साफ है कि जम्मू-कश्मीर में मतदान का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है, बावजूद कश्मीर घाटी में  पाक ‍समर्थित हुर्रियत जैसे अलगाववादी और अन्य आतंकी संगठनो द्वारा चुनाव बहिष्कार के आह्वानों के। इसका अर्थ यह है कि आज मतदाता तमाम मुश्किलों के बाद भी लोकतंत्र के यज्ञ में भाग ले रहा है। वर्ष 2002 में हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में महज 43.70 फीसदी वोटरों ने वोट डाले तो 2009 के विधानसभा चुनावों में यह प्रतिशत बढ़कर 61.16 हो गया। 2014 के विधानसभा चुनावों में मतदान का प्रतिशत और बढ़कर 65.91 हुआ। हालांकि आतंकवादी गतिविधियां जारी थीं। लेकिन धारा 370 नहीं हटी थी। 
                             पिछले विस चुनाव तक जम्मू-कश्मीर में कुल 87 सीटें थीं और बहुमत के लिए 44 सीटों की जरूरत थी। अगर जम्मू कश्मीर की राजनीतिक पार्टियों की चुनावी मतों में हिस्सेदारी की बात करें तो भाजपा और पीडीपी ही ऐसी पार्टियां हैं, जिन्होंने अपना वोट शेयर और सीटें लगातार बढ़ाई हैं। बाकी अन्य प्रमुख सियासी पार्टियों का वोट शेयर निरंतर घटता गया है। उदाहरण के लिए फारूख अब्दुल्ला की जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस पार्टी ने 2002 के चुनाव में सर्वाधिक 28 सीटें जीती थीं और उसका वोट प्रतिशत 28.24 था, जो 2009 के चुनाव में घटकर 23.07 फीसदी हुआ। हालांकि पार्टी ने फिर से 28 सीटें जीतीं। जबकि 2014 के विस चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस की सीटें घटकर 15 रह गई और वोट शेयर और कम होकर 20.8 फीसदी रह गया। 
राज्य की दूसरी बड़ी पार्टी पीपुल्स डेमो‍क्रेटिक पार्टी ( पीडीपी) है। उसकी सीटें और वोट प्रतिशत लगातार बढ़ा है। 2002 के चुनाव में उसे 16 सीटें और 9.28 फीसदी वोट मिले थे। पार्टी ने तब कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। उस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं‍ मिला था। पीडीपी कांग्रेस की गठबंधन सरकार को जम्मू-कश्मीर पैंथर्स पार्टी, सीपीएम और कुछ निर्दलीयों का समर्थन था। इस सरकार में पीडीपी और कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का पद 3-3 साल के लिए बांट लिया था। गुलाम नबी उसी साझी सरकार में तीन साल के लिए सीएम रहे थे। लेकिन उन्होंने तब भी विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा था। इस विधानसभा चुनाव में भीम सिंह की जम्मू कश्मीर पैंथर्स पार्टी को 4 सीटें और 3.83 प्रतिशत वोट मिले थे। 2008 के विस चुनाव में पीडीपी की सीटें बढ़कर 21 हो गईं और वोट शेयर 15.39 प्रतिशत हो गया। इस चुनाव में जम्मू-कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी को भी 3 सीटें और 3. 33 फीसदी वोट मिले।   2014 के विस चुनाव में पीडीपी की सीटें और बढ़कर 28 हुईं और वोट शेयर भी 22.7 प्रतिशत हो गया। उसने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई, जिसे भाजपा ने ही ‍िगरा दिया। अब पीडीपी के माथे पर यह दाग है कि उसने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई।
                                    विस चुनाव में भाजपा के ग्राफ को देखें तो 2002 के ‍चुनाव में भाजपा को केवल 1 सीट और 8.57 प्रतिशत वोट मिले थे। वो एक अलग थलग पार्टी थी। लेकिन 2009 के विधानसभा चुनाव में उसे 11 सीटें और 12. 45 फीसदी वोट मिले। इसके बाद भारतीय राजनीति में मोदी युग के उदय के बाद 2014 में हुए विस चुनाव में भाजपा 25 सीटें जीतकर प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। उसे 25 फीसदी वोट मिले। इस चुनाव तक जम्मू कश्मीर पैंथर्स पार्टी का असर बहुत कम हो गया। अब तो उसके मुख्‍य नेता भीम सिंह का निधन हो चुका है। उसका वोट भी मोटे तौर पर भाजपा की अोर खिसक गया है।  
                                  बहरहाल गुलाम नबी कांग्रेस के नेता रहे हैं और राज्य में कांग्रेस की सीटें और वोट शेयर पिछले तीन चुनावों में लगातार घटा है। 2002 में कांग्रेस को 20 सीटें और 24.24 प्रतिशत वोट मिले थे तो 2009 के चुनाव में उसकी सीटे 17 रह गईं और वोट शेयर भी घटकर 17.7 प्रतिशत रह गया। 2014 के चुनाव में पार्टी को 12 सीटें ही मिलीं हालांकि वोट प्रतिशत मामूली बढ़त के साथ 18 फीसदी रहा।
गुलाम नबी अपनी नई पार्टी बनाकर कांग्रेस के इसी वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं। आजाद के चुनाव लड़ने का बड़ा नुकसान कांग्रेस को ही होगा। जबकि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस के लिए वो घाटी में वोट कटवा साबित हो सकते हैं। हालांकि अपने दम पर चुनाव लड़ने और लड़वाने की यह गुलाम नबी की अग्नि परीक्षा है। भाजपा से नजदीकी उनके लिए घाटी में घातक भी साबित हो सकती है। अगर नाकाम रहे तो उनका राजनीतिक कॅरियर भी खत्म हो जाएगा।
                              इस बार के आसन्न विधानसभा चुनाव में पिछले चुनावों में बहुत फर्क है। पहली बात तो राज्य से अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म होना है, जिसको लेकर आम कश्मीरी में अभी भी नाराजी है। ऐसे में वो मतदान में कितने उत्साह से भाग लेता है, यह देखने की बात है। दूसरे परिसीमन के बाद राज्य की कुल सीटें अब 90 हो गई हैं और बहुमत के लिए अब 46 सीटें चाहिए। कुल सीटों में हिंदू बहुल जम्मू क्षेत्र में 43 और कश्मीर घाटी में 47 सीटें होंगी। सबसे अहम बात राज्य में पहली बार चुनाव में संवैधानिक आरक्षण लागू किया जाना है। राज्य में 7 सीटें अनुसूचित जाति के लिए और 9 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होंगी। इस आरक्षण से जम्मू कश्मीर का सामाजिक और राजनीतिक समीकरण बदलेगा। धार्मिक लामबंदी को जातीय गोलबंदी तड़का सकती है। इसका राजनीतिक लाभ किस पार्टी को मिलता है, यह दिलचस्पी की बात होगी। राज्य में ( हालांकि ये आंकड़े 2011 की जनगणना के हैं,जब जम्मू-कश्मीर अविभाजित राज्य था) अनुसूचित जनजाति की आबादी 11.91 प्रतिशत तथा अनुसूचित जाति की 7.38 फीसदी है। दोनो मिलाकर यह कुल आबादी का करीब 19 फीसदी होता है। इतने वोट राजनीतिक समीकरण बदलने की ताकत रखते हैं। माना जा रहा है ‍िक भाजपा इससे फायदे में रह सकती है। भाजपा की रणनीति यह लगती है कि वह जम्मू क्षेत्र से अधिकतम सीटे जीते और कश्मीर घाटी में किसी छोटे दल  के साथ हाथ मिलाकर सत्ता में आए। गुलाम नबी की पार्टी अगर पांच सात सीटें जीतने में कामयाब हो रहती है तो वो भाजपा को टेका लगा सकती है।  
                          कश्मीर की घाटी की अन्य विपक्षी पार्टियां गुपकार एकता के तहत अगर मिलकर चुनाव लड़ीं तो गुलाम नबी उनके कुछ वोट काट सकते हैं। हालांकि उन दलों में पूरी तरह एकता बहुत मुश्किल है, क्योंकि कश्मीर घाटी में सबका वोट बैंक लगभग एक ही है। दूसरे जम्मू-कश्मीर के चुनाव राज्य से धारा 370 हटाने के फैसले पर अघोषित जनमत संग्रह भी होंगे। खासकर कश्मीर घाटी में। यह कोई छिपी बात नहीं है कि गुलाम बनी सार्वजनिक तौर पर भले भाजपा का विरोध करें, भीतर से उनके मन में साॅफ्ट कार्नर है। अगर वो कांग्रेस का वोट बैंक खींचने में कामयाब हो गए तो कुछ बात बन सकती है। वरना उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा ज‍ोखिम मोल लिया है। 

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