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प्रशासनिक अधिकारियों और डाक्टरों का होता है चोली दामन का साथ


रविवारीय गपशप ———————-

लेखक डॉ आनंद शर्मा रिटायर्ड सीनियर आईएएस अफ़सर हैं और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी हैं।

  अमूमन स्वास्थ्य विभाग में सरकार की हर योजना में प्रशासनिक अधिकारियों का सहकार रहता है , इसलिए कहा जा सकता है कि प्रशासनिक अधिकारियों और डाक्टरों का चोली दामन का साथ होता है । राजनांदगाँव ज़िले में जब मैं खैरागढ़ का अनुविभागीय अधिकारी बना , तब खैरागढ़ ब्लॉक के मेडिकल ऑफ़िसर हुआ करते थे डाक्टर चांदवानी । मेहनती और ख़ुशमिज़ाज डाक्टर साहब की धर्मपत्नी भी डाक्टर थीं और स्त्रीरोग विशेषज्ञ के रूप में उनकी बड़ी ख्याति थी । उन दिनों परिवार नियोजन के टार्गेट छत्तीसगढ़ क्षेत्र के ज़िलों से पूरे होते थे , सो इसी विषय पर हुई बैठक की समाप्ति के बाद जब हम साथ बैठे चाय पी रहे थे , तो मैंने यूँ ही चाँदवानी साहब को छेड़ा “डाक्टर साहब ये बताओ कि आपकी प्रेक्टिस ज्यादा चलती है या मैडम की “? डॉक्टर साहब बोले “क्या बताएँ साहब इन सरकारी योजनाओं के प्रचार और समीक्षा के चलते बस टारगेट पूरा करने में ही समय निकल जाता है , प्रेक्टिस करने का मौक़ा ही कहाँ मिल पाता है”। कल की ही बात है , रात दस बजे किसी ने डोर बेल बजाई तो मैंने दरवाजा खोला । देखा तो दो तीन लोग खड़े थे , साथ में कोई महिला भी थी , उनमें से एक बोला मैडम को दिखाना है । मैंने कहा अच्छा अंदर आ जाओ , वे अंदर आये तो मैंने पूछा , बताओ क्या बात है ? साथ आये बुजुर्ग ने मुझसे कहा “ हमें तो मैडम को दिखाना है । मैं बोला हाँ भाई पर मैं भी डॉक्टर ही हूँ बताओ तो सही । बुजुर्ग बोला “आप तो बस पानी पिला दो और मैडम को बुला दो । अब बताओ आप हमारी हैसियत घर में पानी पिलाने की रह गयी है ?
राजगढ़ में जब मैं कलेक्टर था तो ज़िला अस्पताल में सिविल सर्जन थे डाक्टर भटनागर जो काबिल फ़िजीसियन थे पर ग़ज़ब के शिल्पकार भी थे । मरीज़ों के देखने के बाद मिले समय में वे अपने हाथों पत्थर से बेहतरीन मूर्तियाँ गढ़ते थे । याददाश्त के बतौर उन्होंने मुझे अपने हाथों से बनाया संगमरमर का कछुआ दिया था , जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है । उज्जैन में डॉक्टर रावत भी मेडिसन के बड़े होनहार और दिलचस्प डाक्टर थे । डॉक्टर साहब जितने उदार , उतनी ही उनकी डॉक्टर पत्नी दुनियादारी वाली । कभी कोई गरीब मरीज़ आ जावे और उसके पास फीस के पैसे नहीं हों तो डॉक्टर साहब उसे मुफ्त देखते , दवाई मुफ़्त देते और यदि उन्हें लगता कि उसे स्त्रीरोग विशेषज्ञ की भी जरूरत है तो उसे जेब से पैसे निकाल कर देते और कहते मैंने तो नहीं लिए पर मेरी बीबी नहीं छोड़ेगी तो उसे फीस दे देना ।
कटनी के डॉक्टर नेमा भी ऐसे ही उदारमना थे । तब हम कालेज में पढ़ा करते थे , पैसे रहा नहीं करते थे । ऐसे में खुद की या दोस्तों की तबीयत खराब हो जाय तो डॉक्टर नेमा फ्री में इलाज करते और पास रखी दवाइयां भी दे देते , पर जो वाकया कटनी के हमारे मित्र श्री रविन्द्र मसुरहा के साथ हुआ वो अनोखा था । हुआ कुछ यूँ की रविन्द्र के पैर के अंगूठे में ठोकर से चोट लग गई और खून निकलने लगा । रवींद्र ने सोचा , कुछ ख़ास तकलीफ तो है नहीं , तो डाक्टर नेमा के यहाँ लाइन लगाने के बजाय पुरानी बस्ती के बंगाली डॉक्टर से ही ड्रेसिंग करा ली जाए । मोटे चश्मे वाले बंगाली डाक्टर के क्लिनिक में पहुंच कर मसुरहा जी बोले " यार डॉक्टर पैर में पट्टी कर दो" । डॉक्टर ने उन्हें बैठाया , मोटे चश्मे से घाव को देखा फिर उस पर मरहम लगा के पट्टी बांधी । पट्टी को बांधने के बाद गठान लगा कर पट्टी के बचे सिरे को काटने के प्रयास में उसने बैलबॉटम ( उस समय फैशन में चलने वाला पेंट ) के पाँयचे को ये समझ के पकड़ा की ये पट्टी है और जब तक रविन्द्र कुछ कह पाए , कोने को कैंची से काट दिया । रविन्द्र चिल्लाया "ये क्या कर दिया तुमने"? उसने बड़ी मासूमियत से कहा "चलने में फंसेगा नहीं न" । दरअसल बंगाली डॉक्टर ने पट्टी का सिरा समझ पतलून का पांयचा काट दिया था ।

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