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जेब खर्च की बचत को मिला कर कि बहन की जन्मदिन पार्टी


रविवारीय गपशप ———————-

लेखक डॉ आनंद शर्मा रिटायर्ड सीनियर आईएएस अफ़सर हैं और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी हैं।

  इस बार रविवार रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस के मध्य आया है , तो सभी पाठकों को दोनों पर्वों की ढेर बधाइयाँ । स्वतंत्रता दिवस इस बार आज़ादी की पचहत्तरवीं सालगिरह के साथ अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है । हमारे नौनिहाल बच्चों से लेकर विभिन्न उम्र के लोगों के बीच स्वतंत्रता दिवस का यह पर्व उमंग , उल्लास और गौरव का द्योतक है जिसे हम सब मिलकर बड़े उत्साह से मना रहे हैं । रक्षाबंधन का पर्व भी पारम्परिक रूप से हमारे समाज में भाई बहन के मध्य विश्वास और प्रेम के धागों से पगे क्षणों के दुहराव का आयोजन है । इतिहास और पौराणिक कथाओं के अनेक संदर्भ इस भावपूर्ण त्योहार के उल्लेख से समाहित हैं । रक्षा बन्धन के त्योहार से जुड़ा एक मज़ेदार प्रसँग मुझे याद आ रहा है । बात बड़ी पुरानी है , तब मैं आठ-दस साल का रहा होउंगा , और मुझसे ठीक बड़ी बहन मधु मुझसे दो वर्ष बड़ी थीं । हमारे घर की परंपरा में हमारे जन्मदिन बड़े सादगी से मनाये जाते थे , सुबह को स्नान उपरांत घर के मन्दिर में बिठा कर टीका लगाते और उस दिन उपहार के रुप में जो खिलाने या नए परिधान हमें मिलते । पिताजी मंडला में पोस्ट मास्टर थे और हमारे सिविल लाइंस स्थित मकान के आस पास रहने वाले अधिकारी गणों के बच्चों के जन्मदिन धूमधाम से होते यानी डांस , गेम , मस्ती सब होता । इन्हीं बातों से प्रभावित हो मधु दीदी ने सोचा कि क्यों न उसका जन्मदिन भी ऐसा ही मनाया जाय , और अपने प्लान में उसने मुझे शामिल किया । इस योजना में बाधा एक ही थी और वो ये कि इस आयोजन के लिए बाबूजी से पैसे मिलने सम्भव नहीं थे । इसका उपाय ये ढूँढा गया कि हम दोनों अपने जेब खर्च की बचत को मिला कर पार्टी करें और जन्मदिन के अवसर पर आए उपहारों को आपस में बाँट लें । ये आकर्षक प्रस्ताव था क्योंकि जन्मदिन में चमकीले कागजों में लिपटे ढेर उपहार मिला करते थे सो ऑफर से सहमत हो मैंने साझेदार बन अपनी बचत मधु बहन के हवाले कर दी । शाम को चार बजे पार्टी प्रारंभ हुई , मधु दीदी की सारी सहेलियाँ आयीं और पार्टी भी बढ़िया हुई । बच्चों के विदा होते ही विदा होते ही , मैंने ऐलान किया कि उपहारों का बँटवारा अभी ही होगा , लेकिन जैसे जैसे उपहारों के पैकेट खुलते गए मेरी आंखों के आगे अन्धेरा छाता गया , सारे उपहार लड़कियों के लिए थे । किसी में क्लिप , किसी में रिबन किसी में चूड़ियाँ , किसी में कंगन ,किसी में स्कार्फ यानी एक भी सामान ऐसा नही था जिसे मैं इस्तेमाल कर सकूँ । जन्मदिन बहन का मनाया था तो उपहार उसके हिसाब से ही आने थे , पक्की बात थी कि अपनी ही बड़ी बहन के हाथों मूर्ख बन गए थे और इसका प्रतिसाद अब रोने के अलावा कोई और न था । हमारा रोना चिल्लाना सुन जब घर के बाकी लोग हमारे पास आए तो हमारी इस करुण कथा को सुन बजाये सहानुभूति दिखाने के खूब हँसे और हम रुआंसे सोचते रहे कि इस धोखाधड़ी में हँसने वाली बात कौन सी है ? आख़िर में अम्मा ने मधु दीदी को परंपरा के विपरीत जन्मदिन के दिन ही डपट लगायी और मुझे गले लगा कर घर में पहले से रखी उसके जन्मदिन कि चाकलेट दी , तब कहीं जा के हमारा रोना बंद हुआ । ...000...

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