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ज्योतिरादित्य के बढ़ते कद से सशंकित दिग्गज


राज-काज

दिनेश निगम त्यागी , वरिष्ठ पत्रकार

               महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी, इसके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया को इस्पात जैसे बड़े मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार, जैसी राजनीतिक घटनाओं को जोड़कर देखा जा रहा है। इन्हें भाजपा के कई दिग्गजों के लिए खतरे की घंटी माना जा रहा है। मान्यता थी कि भाजपा नेतृत्व बाहर से आए नेताओं को मुख्यमंत्री जैसी महत्वपूर्ण जवाबदारी नहीं देता। पहले असम में कांग्रेस से आए हेमंत बिसवा,  इसके बाद महाराष्ट्र में शिवसेना से  अलग होने वाले एकनाथ शिंदे के मुख्यमंत्री बनने से यह धारणा बेमानी हो गई है। अब नजर मध्यप्रदेश पर है। कांग्रेस छोड़कर आए ज्योतिरादित्य सिंधिया को केंद्र में पहले नागरिक उड्डयन विभाग दिया गया था, अब इस्पात जैसे बड़े मंत्रालय की जवाबदारी भी दे दी गई। कयास लगने लगे कि क्या सिंधिया ने भाजपा नेतृत्व का भरोसा जीतने में कामयाबी हासिल कर ली? वर्ना एक से ज्यादा विभाग संभाल चुके नरेंद्र सिंह तोमर को अतिरिक्त प्रभार क्यों नहीं मिला? प्रहलाद पटेल से स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री का ओहदा छीन लिया गया था, उन पर भरोसा क्यों नहीं किया गया? सिंधिया के बढ़ते कद से भाजपा के कई अन्य दिग्गज भी सशंकित हैं। उनकी नींद उड़ी हुई है। इसे लेकर कयासों का दौर जारी है।
कम मतदान से फूलीं भाजपा-कांग्रेस की सांसें
                  पचहत्तर से पच्चासी फीसदी मतदान के मौजूदा दौर में निकाय चुनाव के पहले चरण के मतदान ने सभी को चौंका दिया। मतदान का कम प्रतिशत देखकर भाजपा और कांग्रेस , दोनों प्रमुख दलों के नेताओं की सांसें फूली हुई हैं। खास बात यह है कि दोनों दल इसके लिए राज्य निर्वाचन आयोग को दोषी ठहरा रहे हैं। मतदाता सूचियों को लेकर लगभग हर चुनाव में शिकायतें रहती हैं लेकिन इस बार शिकायतों का अंबार था। जैसे मतदाता पर्चियां नहीं बंटी और मतदाताओं के मतदान केंद्र बदल गए। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आयोग ही कम मतदान के लिए जवाबदार है या इसके लिए राजनीतिक दल, प्रत्याशी और मतदाता भी दोषी हैं। सच यह है कि भाजपा- कांग्रेस के बड़े नेता तो सक्रिय नजर आए लेकिन निचले स्तर पर जितनी सक्रियता और तैयारी होना चाहिए थी, नहीं दिखाई पड़ी। प्रत्याशी कही भी मतदाताओं को निकालने की कोशिश करते नहीं दिखे। सबसे अहम मतदाता मतदान के प्रति उदासीन दिखा। मतदान की सबसे बुरी स्थिति भोपाल, ग्वालियर जैसे महानगरों में रही, जहां बमुश्किल मतदान का प्रतिशत 50 को छू पाया। जीते-हारे कोई लेकिन यह सभी के लिए चिंतन-मंथन की बात होना चाहिए। हालांकि दोनों दलों के नेता अपनी अपनी जीत के दावे कर रहे हैं। 
पहले चुनाव में भाजपा के दिखे दो स्टार प्रचारक
                   किसी भी चुनाव में आमतौर पर भाजपा के एक ही स्टार प्रचारक होते थे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। निकाय चुनाव में पहली बार भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा भी स्टार प्रचारक के तौर पर काम करते नजर आए। मुख्यमंत्री चौहान ने जिस तरह प्रदेश भर का दौरा कर प्रचार अभियान में हिस्सा लिया, लगभग इसी भूमिका में वीडी शर्मा भी दिखाई पड़े। शिवराज ने रैलियां की, सभाएं लीं और उनके सामने दूसरे दलों के लोग भाजपा में शामिल हुए, वीडी शर्मा की मौजूदगी में भी यह सब हुआ। मजेदार बात यह है कि वीडी शर्मा को प्रचार अभियान के दौरान ही कोरोना हो गया लेकिन तीन दिन बाद ही फिट होकर वे दौड़ने लगे। वीडी से पहले भाजपा के कई प्रदेश अध्यक्ष रहे, लेकिन स्टार प्रचारक की भूमिका में कोई नजर नहीं आया। उनका काम संगठन को संभालना होता था। लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव में हर राजनीतिक दल स्टार प्रचारकों की सूची जारी करता है। इनमें से कोई पूरे प्रदेश का दौरा नहीं करता। स्टार प्रचारक को उपयोगिता के आधार बुलाया और भेजा जाता है। मुख्यमंत्री चौहान ही ऐसे रहे हैं जो पूरे प्रदेश को मथते रहे हैं, पहली बार वीडी शर्मा उनका साथ देते नजर आए। अलबत्ता, कम मतदान ने सभी को निराश किया।
मतदान न करने पर सवालों से घिरे कमलनाथ

                      प्रदेश कांग्रेस के मुखिया कमलनाथ एक बार फिर सवालों के घेरे में हैं। वजह है स्थानीय चुनाव में उनके द्वारा मतदान न करना। इतना ही नहीं उनके सांसद बेटे नकुलनाथ ने भी वोट नहीं डाला। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित समूची भाजपा इसे लेकर कमलनाथ पर हमलावर है। सवाल यह है कि कमलनाथ और उनके बेटे ने मतदान क्यों नहीं किया। वह भी तब जब आप खुद कांग्रेस प्रत्याशियों के लिए वोट मांगते फिर रहे हैं और आपका वोट भी कांग्रेस को ही जाता। ऐसे में आप ही वोट न डालें तो सवाल उठना स्वाभाविक है। इसका जवाब आपको देना चाहिए। यह पहला अवसर नहीं है जब कमलनाथ अपने ही कारण कटघरे में हैं। भाजपा के नेता उनके बयानों को याद दिला कर यह साबित करने में लगे हैं कि कमलनाथ को लोकतंत्र पर ही भरोसा नहीं है। विधानसभा सत्र के दौरान उन्होंने कह दिया था कि मैं विधानसभा इसलिए कम जाता हूं क्योंकि वहां बकवास ज्यादा होती है। हाल में निकाय चुनाव प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने कह दिया कि उन्हें स्थानीय चुनावों में कोई इंट्रेस्ट नहीं है। कमलनाथ जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता ऐसी बातें बोल कैसे जाते हैं, जिससे भाजपा को बैठे-ठाले मुद्दा मिल जाता है? इस पर उन्हें खुद मंथन करना चाहिए।
बाहर आ ही गई उपेक्षा से दु:खी उमा की पीड़ा
                      पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती भाजपा में अपनी उपेक्षा से दु:खी हैं, इसे लेकर अटकलें लंबे समय  से थीं। शराबबंदी सहित कुछ मसलों पर उनके बयानों और एक्शन से भी कई बार इसका अंदाजा लगता था। नगरीय निकाय चुनाव में प्रचार के लिए भी उनकी पूछपरख नहीं हुई। लिहाजा, धड़ाधड़ आए उमा के ट्वीट्स से उनकी पीड़ा बाहर आ गई। उन्होंने खुद इसका इजहार कर दिया। ट्वीट के जरिए उन्होंने अपनी जीवन गाथा का जिक्र तो किया ही, यह भी बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भी उनके खिलाफ दो बार कार्रवाई हुई। पहली बार गंगा पर सरकार की नीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे दिया तो उनका विभाग बदल गया। दूसरी बार 2019 में हरियाणा में चुनाव के बाद एक आपराधिक नेता की मदद से सरकार बनाने का विरोध करने पर उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से हटा दिया गया। शराबबंदी के खिलाफ मुहिम पर उनका कहना है कि वे कई बार बैकफुट पर आईं लेकिन प्रदेश की शराब नीति से वे आहत हैं। उन्होंने फिर घोषणा की है कि यदि शराब नीति में परिवर्तन न हुआ तो अक्टूबर में गांधी जयंती पर वे भोपाल में पदयात्रा करेंगी। यह पूरी तरह से गैर राजनीतिक होगी। उमा के इस कदम को भी उनकी उपेक्षा और पीड़ा से जोड़कर देखा जा रहा है।
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