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भाजपा में 'कहीं खुशी, कहीं गम' का आलम....


राज-काज

दिनेश निगम त्यागी , वरिष्ठ पत्रकार

               भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का यह कथन  'हम हारें या जीतें लेकिन नेताओं के पुत्रों या परिजनों को टिकट नहीं देंगे', उन नेताओं पर वज्राघात जैसा था जो लंबे समय से अपने पुत्रों के राजनीतिक पुनर्वास की तैयारी में हैं। नड्डा ने यह भी कहा कि भाजपा में यह नहीं चलेगा कि 'पिता पार्टी में अध्यक्ष हो और बेटे को महामंत्री बना दिया जाए।' साफ है कि भाजपा नेतृत्व अर्थात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं अन्य नेता यदि चुनाव प्रचार के दौरान परिवारवादी पार्टियों पर हमले कर रहे हैं तो भाजपा में इस बीमारी को रोकने के प्रति सतर्क भी हैं। पार्टी के इस रुख से भाजपा के अंदर ही 'कहीं खुशी, कहीं गम' का आलम है। नरेंद्र सिंह तोमर, गोपाल भार्गव, नरोत्तम मिश्रा, प्रभात झा जैसे नेता दुखी हो सकते हैं क्योंकि ये अपने बेटों को राजनीति की मुख्य धारा में लाने के प्रति प्रयासरत हैं। अन्य नेताओं को अवसर मलिेगा, इसलएि वहां खुशी का आलम है। सवाल यह भी है कि आकाश विजयवर्गीय, जालम सिंह पटेल जैसों का क्या होगा, जो पहले से परिवारवाद के चलते टिकट हासिल कर जीत चुके हैं। नेतृत्व का इससे सख्त लहजा क्या हो सकता है कि ‘हम भले हार जाएं लेकिन भाजपा में परिवारवाद को प्रश्रय नहीं मिलेगा।’ इससे भाजपा के कई नेताओं की नींद उड़ गई है। 

 
 स्थानीय चुनाव में भी चौंका सकती है भाजपा
              अपने निर्णयों से लोगों को चौंकाना भाजपा नेतृत्व की आदत बन चुकी है। शुरूआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह की जोड़ी ने की थी। अब हर स्तर पर यह राह पकड़ी जा रही है। मध्यप्रदेश के राज्यसभा चुनाव के लिए कई दिग्गज कतार मे थे। बड़े स्तर पर सिफारिशें थीं लेकिन सुमित्रा बाल्मीकि का नाम घोषित कर भाजपा ने सभी को चौंका दिया था। निकाय खासकर महापौर के प्रत्याशी चयन में भी भाजपा की तैयारी कुछ इसी तरह की है। पार्टी के एक बड़े पदाधिकारी का कहना था कि संभव है भोपाल महापौर पद के लिए जितने नाम चल रहे हैं, राज्यसभा की तरह उनमें से किसी को भी  टिकट न मिले और अप्रत्याशित तौर पर चौंकाने वाले किसी नाम का एलान हो जाए। भोपाल ही नहीं अधिकांश नगर निगमों के लिए कुछ इसी तरह के नाम छांटे जा रहे हैं। भाजपा में इसे बदलाव के दौर के तौर पर देखा जा रहा है। पार्टी नेतृत्व का मानना है कि अब व्यक्ति नहीं, पार्टी चुनाव जीत रही है तो क्यों न ऐसे चेहरों को आगे लाया जाए जो लंबे समय से निष्ठा के साथ पार्टी से जुड़े हैं लेकिन अब तक उन्हें कुछ नहीं मिला। साफ है कि जनता के साथ भाजपा नेताओं को भी चौंकाने वाले ऐसे निर्णयों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
यहां भी भाजपा-कांग्रेस में ‘छत्तीस’ की रणनीति
               प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस एक दूसरे के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी ही नहीं है, चुनाव को लेकर बनने वाली रणनीति में भी दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है। जैसे, भाजपा पहले कहती थी कि वह सिर्फ जीतने की क्षमता वाले को टिकट देगी लेकिन अब उसकी नीति है कि टिकट वितरण में न वह परिवारवाद को बढ़ावा देगी और सांसदों-विधायकों को भी स्थानीय चुनाव में टिकट देने से परहेज करेगी। इसके विपरीत कांग्रेस को इन दोनों मुद्दों से कोई परहेज नहीं है। अब कांग्रेस कहती है कि वह जीतने की क्षमता रखने वाले को ही मैदान में उतारेगी, इसके अलावा दूसरा कोई फामूर्ला नहीं। इतना ही नहीं कांग्रेस ने प्रत्याशी तय करने में भी बाजी मारी है। उसने महापौर पद के लगभग एक दर्जन प्रत्याशी तय कर  लिए हैं। इनमें इंदौर से संजय शुक्ला और उज्जैन से महेश परमार के नाम पर मुहर लगी है। दोनों कांग्रेस से विधायक हैं। इसी प्रकार ग्वालियर से विधायक सतीश सिकरवार की पत्नी शोभा सिकरवार और सागर से पूर्व विधायक सुनील जैन की पत्नी निधि का नाम तय हुआ है। साफ है कि कांग्रेस को न विधायकों को टिकट देने से परहेज है, न नेताओं के परिजनों से। इस तरह सत्ता वापसी के लिए प्रतिशोध की ज्वाला में जल रही कांग्रेस कुछ अलग करने की तैयारी में है।
नरोत्तम ने फिर मनवाया अपने संपर्क का लोहा
                   अपनी ही सरकार से नाराजगी की खबरों के बीच प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने एक बार फिर अपने संपर्कों का लोहा मनवा दिया। पहली खबर थी कि स्टेट हैंगर में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के स्वागत कार्यक्रम के दौरान मंच पर रखी गईं किसी भी कुर्सी में नरोत्तम का नाम नहीं था। लिहाजा वे मंच से नीचे उतर आए थे। बाद में एक अन्य मंत्री विश्वास सारंग ने उन्हें अपनी कुर्सी देकर बैठाया। यह संयोग हो या जानबूझ कर की गई हरकत, इस तरह की दो घटनाएं पहले भी नरोत्तम के साथ हो चुकी हैं। दूसरी खबर नरोत्तम के संपर्कों के दबदबे की। नड्डा का नरोत्तम के घर जाने का कोई कार्यक्रम नहीं था लेकिन अचानक उन्होंने उनके घर हाई टी पर जाने का निर्णय लिया। लिहाजा, बीच रास्ते से नड्डा का काफिला नरोत्तम के बंगले की ओर मुड़ गया। उनके साथ शिवराज सिंह चौहान, वीडी शर्मा, कैलाश विजयवर्गीय सहित सभी प्रमुख नेता थे। नरोत्तम ने सभी का स्वागत मीठा और समोसे के साथ किया। वे खुद अतिथियों को समोसा सर्व करते नजर आए। बाद में तिलक लगा कर और स्मृति चिन्ह भेंट कर उन्होंने नड्डा को घर से विदा किया। अध्यक्ष रहते अमित शाह भी उनके घर जा चुके थे और अब नड्डा, बन गई न नरोत्तम की झांकी।
 कमलनाथ का यह असरदार सरदार बेअसर
                   जिसकी संभावना नहीं थी, कांग्रेस में वह भी हो गया। कमलनाथ के जिस सरदार को भाजपा तक असरदार मान रही थी, कमलनाथ ने ही उसे कांग्रेस में बेअसर कर दिया। बात हो रही है कमलनाथ के मीडिया समन्वयक रहे सरदार नरेंद्र सलूजा की। उनकी सक्रियता के चर्चे पक्ष के साथ विपक्ष तक में थे। भाजपा के एक बड़े नेता यहां तक कह बैठे थे कि कॉश, हमारे यहां भी एक सलूजा होता। ऐसे सलूजा को और किसी ने नहीं खुद कमलनाथ ने घर बैठा दिया। प्रदेश कांग्रेस मीडिया विभाग के पुनर्गठन में सलूजा को कई नए चेहरों से नीचे कर दिया गया। कमलनाथ के साथ स्वतंत्र रूप से जुड़े होने का रुतबा भी छिन गया। नतीजा, सलूजा कोप भवन में पहुंच गए। जिस दिन आदेश निकला उस दिन से ही सलूजा गायब हैं। कमलनाथ की खबरें, ट्वीट और बयान भी सोशल मीडिया से नदारद। भाजपा की ओर से कमलनाथ पर व्यक्तिगत हमला तक हुआ, लेकिन प्रतिकार करने के लिए कोई आगे नहीं आया। सलूजा इस जवाबदारी को बखूबी निभा रहे थे। विपक्ष पर हमला करने का वे कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। गालियों जैसी भाषा की नौबत आती तो सलूजा आगे होते, वरना हमले कमलनाथ की ओर से ही होते। निर्णय से साफ हो गया कि कमलनाथ को अपने पराए की समझ नहीं है। 
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