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कभी-कभी काम में देरी के भी अपने ही फायदे होते हैं।


लेखक डॉ आनंद शर्मा रिटायर्ड सीनियर आईएएस अफ़सर हैं और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी हैं।

रविवारीय गपशप
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वक्त की पाबंदी हमेशा अच्छी होती है , पर कभी कभी देरी के भी अपने फायदे हैं ।एक मियाँ-बीबी को कहीं जाना था , श्रीमती जी तैयार हो रहीं थीं और साहब बहादुर बार बार घड़ी देख कर टोके जा रहे थे , जल्दी करो ट्रेन का टाइम हो रहा है । आख़िरकार बीबीजी तैयार हुईं और दोनों रेलवे स्टेशन पहुँचे तो पता लगा की ट्रेन तो अभी अभी निकली है और अब अगली ट्रेन दो घण्टे बाद है । मियाँ बोले देखो मैं कह रहा था न , जल्दी करो अब दो घण्टे बैठना पड़ेगा । श्रीमती जी बोलीं , आप जल्दी जल्दी का इतना हल्ला न मचाते तो दो घण्टे बैठना न पड़ता ।
बात पुरानी है , उन दिनों मैं उज्जैन में पदस्थ था और परिवार के साथ दक्षिण भारत घूमने का कार्यक्रम बना | यात्रा की शुरुआत तिरुपति बालाजी के दर्शन से होनी थी और उसके बाद कन्याकुमारी , रामेश्वरम , मदुरै आदि स्थानों पर भ्रमण की योजना थी । संयोगवश बाकी गंतव्य स्थानों के टिकट कन्फर्म थे सिवाय तिरुपति के , जिसके लिए हमने राजधानी एक्सप्रेस से भोपाल से मद्रास के टिकट ले रखे थे । मेरे साथ उज्जैन के मेरे मित्र श्रीकांत वैशम्पायन भी थे । दोनों परिवार के हम कुल जमा आठ लोग थे और हमारे रिजर्वेशन वेटिंग में 1 से प्रारभ होकर 8 तक थे । वेटिंग कन्फर्म हो जायेगा , ऐसी निश्चिंतता की वजह भी थी और वो ये कि श्री वैशम्पायन के एक मित्र श्री शिंदे जी तत्कालीन श्रम मंत्री श्री सत्यनारायण जटिया जी के स्टाफ में थे और उन्होंने वायदा कर रखा था कि वे इन प्रतीक्षा दशा को सुनिश्चितता में तब्दील करा देंगे । भोपाल से ट्रेन का टाइम रात को बारह बजे था , वैशम्पायन जी को शिंदे जी पर इतना भरोसा था कि रास्ते के लिए रखा खाना उन्होंने भोपाल के पहले ही ये कह के चट करवा दिया कि “अरे सर राजधानी में रास्ते भर ट्रेन वाले ही खिलाते हैं “। हम भोपाल पहुंचे और प्लेट फार्म नंबर एक पर खड़े हो गए , ट्रेन आई , हमने दरियाफ्त की कि हमारी सीटें कहाँ हैं , जबाब आया की कहीं नहीं | हम अभी भी प्रतीक्षा सूचि में थे और राजधानी में प्रतीक्षा रत लोगो को सफर करने की इजाजत नहीं थी , लिहाज़ा हम प्लेटफार्म पर ही खड़े रहे और राजधानी का कारवां हमारे सपनो को चूर चूर करता हमारे सामने से गुजर गया । मैं बड़ा पशोपेश में पड़ गया कि अब किया क्या जाये ? बाकि सारे रिज़र्वेशन कन्फर्म थे और यदि समय पर तिरुपति नहीं पहुँचते तो यात्रा योजना और टिकटों की दुर्गति होना अवश्यम्भावी था । हम प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े कभी किसी टी.सी. से तो कभी किसी सहयात्री से मद्रास जाने वाली अगली ट्रेन की सम्भावना तलाश करने लगे , पर मुसीबत ये थी कि हम आठ लोग थे , और इतने लोगों को सीटें मिल जाएँ ये बड़ा कठिन था । छुट्टी मनाने क़े बच्चो क़े प्लान की वाट लग गयी थी , और वे चुपचाप प्लेटफ़ार्म की बैंचों पर रुआंसे बैठे थे । अचानक जैसे बालाजी की कृपा सी हुई , प्लेटफार्म पर हमारे पास एक कुली महाशय आये और बोले आप लोगों को आखिर जाना कहाँ है ? मैंने कहा तिरुपति , तो बोले फिर मद्रास-मद्रास क्यों कर रहे हो ? पंद्रह मिनट बाद हिमसागर एक्सप्रेस आ रही है खाली रहती है , रेणिगुंटा स्टेशन उतर जाना , तिरुपति आधे घंटे का रास्ता है वहां से । हम में जैसे जान वापस लौट आई , कुली भाई क़े साथ जाकर हमने मद्रास का टिकट केंसिल कराया और रेणिगुंटा के टिकट लिए | पंद्रह मिनट बाद ट्रेन आई , टी सी डिब्बे से निकला मैंने पूछा , रेणिगुंटा जाना है , बर्थ मिलेंगी ? टी सी ने कहा हाँ आ जाओ , मैंने फिर डरते-डरते कहा हम आठ लोग हैं , टीसी महाशय बोले अरे आधा डिब्बा खाली है , आ जाओ | हमने झट सामान अंदर रखवाया और कुली महाशय को पैसे देकर अंदर गए । आश्चर्य यह था कि कुली ने हम से एक रुपया भी अतिरिक्त न लिया था , हमें तो लगा जैसे ईश्वर ने ही उसे भेजा था क्योंकि यदि हम मद्रास जाते तो हमें कम से कम तीन घंटे की सड़क यात्रा करनी पड़ती जो समय और पैसे दोनों की ही दृष्टि से अब वर्तमान में मिली सुविधा की तुलना में घाटे का सौदा था । हमने तिरुपति बालाजी का जयकारा लगाया और आराम से जाकर ट्रेन में बैठ गए ।

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