एक शानदार तकनीकी अंतरराष्ट्रीय जलसा
तीन दिन लखनऊ में था । भारत और अनेक देशों के मीडिया विशेषज्ञ, विज्ञान के विस्तार में लगे वैज्ञानिक इस तरह के चौथे आयोजन में शामिल होने पहुँचे थे । डॉक्टर मनोज पटेरिया के निमंत्रण पर गया था । सरोकार यह था कि आज की ज़िंदगी में विज्ञान चौबीस घण्टे दाख़िल है ।इसे और सघन तथा आम आदमी के क़रीब कैसे लाया जाए ।
राष्ट्रपति ने इसका उदघाटन किया ।नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष बलदेव भाई शर्मा ने शुरुआत की । मैने भी एक सत्र में अपने विचार रखे । यहाँ उनका अंश प्रस्तुत है ।
क्रांतिकारी विज्ञान आंदोलन की ज़रूरत
बहुत पुरानी बात नहीं है । अस्सी के दशक तक भारत में विज्ञान,कला,इंजीनियरिंग , चिकित्सा और वाणिज्य ही उच्च शिक्षा के प्रमुख संकाय माने जाते थे । यह धारणा शिक्षकों और परिवार के लोगों में बैठी हुई थी कि विज्ञान एक कठिन संकाय है और अगर कोई बच्चा स्कूली परीक्षाओं में साठ फ़ीसदी से अधिक अंक प्राप्त करता है तो इसका मतलब यह है कि वह विज्ञान पढ़ लेगा ।कम प्रतिशत हासिल करने वालों की नियति कला और वाणिज्य संकाय से बंध जाती थी । कॉलेजों में भी विज्ञान के छात्रों को सम्मान की नज़र से देखा जाता था ।लेकिन आज सब कुछ बदला हुआ है । विज्ञान अब तनिक ऊपर के ज्ञान वाला आभिजात्य संकाय नहीं रहा ।यह अब रोज़मर्रा की ज़िंदगी में दाख़िल हो गया है ।एक अशिक्षित इंसान से लेकर पेशेवर तक विज्ञान के नए नए अवतारों के साथ काम कर रहा है।कला या वाणिज्य संकाय के छात्र भी अब विज्ञान के नए नए अविष्कारों से अपने को जोड़कर रखते हैं। चाहे मोबाइल का कोई आधुनिकतम संस्करण हो या किसी कार के नए मॉडल की बारीक से बारीक जानकारी। कम्प्युटर की अंदरूनी शरीर रचना हो अथवा बीमारियों से बचने के लिए सेहत में सुधार की वैज्ञानिक जानकारी।सब जानकारी आज सभी को हासिल है।
लेकिन क्या सवा सौ करोड़ के मुल्क़ में विज्ञान - शिक्षा और संचार की सेहत ठीक है ? यह एक गंभीर सवाल है। यह भी एक पहेली है कि अगर विज्ञान और इसके सिद्धांत अगर गाँव गाँव तक लोग उपयोग कर रहे हैं तो विज्ञान साहित्य उतने बड़े स्वरूप में हमारे समाज में क्यों नहीं दिखाई देता ?इस विषय पर जानकार लेखकों का अकाल क्यों है ? तेज़ भागते मीडिया की रफ़्तार में विज्ञान एक ज़िम्मेदार मुसाफ़िर की तरह क्यों नहीं बैठा है ? क्या हमारे समाज और सिस्टम में साइंस को लेकर अज्ञानता का भाव है या हम जानबूझकर अनजान बने हुए हैं। हमारी प्राथमिकता की सूची में साइंस प्रसार इतने निचले पायदान पर क्यों है ? आज हमारी ज़िंदगी बिना विज्ञान के एक क़दम नहीं चल सकती।फिर इस उदासीनता की वजह क्या है ?इन सवालों का एक एक कर विश्लेषण करना चाहूँगा।
सबसे पहली बात तो यह है कि 1962 के भारत में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए अनुवाद के बारे में एक बड़ा फ़ैसला लिया गया था। उस समय अधिकांश वैज्ञानिक साहित्य परदेसी भाषाओं में उपलब्ध था।इसलिए यह सोचा गया कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद होना चाहिए। यह काम शुरू हुआ और क़रीब क़रीब 1980 तक अच्छी रफ़्तार तक चला।इसके बाद समूचे भारत में धीरे धीरे सरकारी और ग़ैर सरकारी शिक्षा के ढाँचे में अँगरेज़ी हावी होती गई।जब एक से लेकर सौ तक सारे विद्यार्थी कश्मीर से कन्याकुमारी तक अँगरेज़ी भाषा में पढ़ने लगे तो अनुवाद की प्रक्रिया धीमी पड़ती गई।होता यह है कि इनसान उसी भाषा में रचनात्मक ढंग से सोचता है ,जिसमें वह पला बढ़ा होता है। अंगरेजी में छात्र पढ़ते तो रहे लेकिन उनकी पढ़ाई सोच और शोध की दिमाग़ी खिड़कियाँ नहीं खोल सकी।इस कारण विज्ञान के मौलिक विचार दिमाग़ में जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ गए। परिणाम यह निकला कि आज़ादी के सत्तर साल बाद भी हम पाते हैं कि मुल्क़ में सौ से अधिक विज्ञान लेखक नहीं हैं।यानी एक करोड़ पर एक से भी कम।
इन दिनों भारत की मीडिया इंडस्ट्री संसार की सबसे बड़ी मीडिया इंडस्ट्री बन गई है।क़रीब नब्बे करोड़ लोग प्रिंट ,इलेक्ट्रॉनिक ,ब्रॉडकास्ट और सोशल मीडिया से रूबरू होते हैं।अफ़सोस तो यह है कि इनमें विज्ञान विषय के जानकार न के बराबर हैं। अखबारों और चैनलों में विज्ञान की गतिविधियों के लिए अलग से न तो संवाददाता हैं और न डेस्क पर उसके विशेषज्ञ उप संपादक। अपवाद के तौर पर एक - दो को छोड़ दीजिए। बाक़ी नब्बे फ़ीसदी से अधिक मीडिया संस्थानों में साइंस कवरेज को गंभीरता से नहीं लिया जाता। इस इंडस्ट्री के लिए पत्रकार उपलब्ध कराने वाले मीडिया शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रमों में विज्ञान पत्रकारिता और लेखन को बहुत जगह नहीं दी गई है।इन संस्थानों के पास पढ़ाने वाले अच्छे विज्ञान शिक्षक नहीं हैं।अगर इस पर एक दशक पहले भी ध्यान दिया गया होता तो आज हमारे पास कम से कम एक हज़ार अच्छे विज्ञान समीक्षक,लेखक और पत्रकार होते। इस पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।
विज्ञान प्रोफेशनल्स की कमी का ही परिणाम है कि आज विज्ञान पर केंद्रित पत्र पत्रिकाओं की संख्या पर्याप्त नहीं है। आबादी के मान से जितने साइंस जर्नल या शोध पत्र निकलने चाहिए ,वे भी नहीं हैं।जो निकल रहे हैं उनके पास संसाधनों की कमी है। इस दुर्दशा को देखते हुए अखबार मालिक या चैनल संचालक भी साइंस केंद्रित चैनल अथवा अख़बार निकालने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं।न तो प्रोफेशनल उपलब्ध हैं न उन्हें चलाने के लिए विज्ञापनों का बाज़ार मिलता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि विज्ञान के दर्शक या पाठक नहीं हैं। लोगों की जिज्ञासा बढ़ रही है। इसका प्रमाण अनेक विदेशी चैनल हैं ,जो वैज्ञानिक विषयों पर वृत्तचित्र प्रसारित करते हैं और भारत में बेहद पसंद किए जाते हैं। अपने एक अनुभव के आधार पर मैं यह कह रहा हूँ।मैं बीते दिनों क़रीब क़रीब सात साल तक भारत की संसद के दूसरे चैनल राज्य सभा टेलिविजन का संपादक था। संसद की भावना के अनुरूप हमने अपने चैनल के कंटेंट में विज्ञान की सामग्री बढ़ाना शुरू किया।प्रत्येक सप्ताह हम हिंदी और अँगरेज़ी में लगभग 6 घंटे विज्ञान बुलेटिन, वैज्ञानिकों के साक्षात्कार और डाक्यूमेंटरी दिखाते थे। बताने की आवश्यकता नहीं कि ये हमारे सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक थे। हमें लगता था कि शायद विज्ञान के छात्रों और वैज्ञानिकों को छोड़कर कोई नहीं देखेगा।पर ऐसा नहीं था।हमारे आम दर्शक भी बड़ी बेताबी से इन कार्यक्रमों की प्रतीक्षा करते थे।शायद हम इसलिए ऐसा कर पाए क्योंकि एक तो हम संसद के चैनल थे और विज्ञापन नहीं लेते थे। किसी भी तरह के आर्थिक दबाव से मुक्त थे। दूसरा कारण यह था कि भारत सरकार के निर्देशों के मुताबिक़ हमारा चैनल दिखाना डीटीएच और केबल ऑपरेटरों के लिए अनिवार्य था। इसलिए डिस्ट्रीब्यूशन पर हमें कोई ख़र्च नहीं करना पड़ा था और गाँव गाँव में हमारी पहुँच थी।टीआरपी की होड़ में हम शामिल नहीं थे। लेकिन प्रायवेट चैनलों को इस पर सोचना पड़ता है। विज्ञान प्रसार और वैज्ञानिक चेतना विकसित करने के लिए बड़े पैमाने पर धन की ज़रूरत होती है , तभी इस विशाल और विराट देश में विज्ञान आंदोलन आकार ले सकेगा
भारत में अभी विज्ञान फ़िल्मों और डॉक्युमेंट्रीज़ का निर्माण भी अभी काफ़ी पीछे है।पश्चिम और योरप के देशों में साक्षरता प्रतिशत भारत से बहुत आगे है इस कारण उन देशों में वैज्ञानिक और जटिल विषयों पर फ़िल्में बनती हैं और सराही भी जाती हैं।बड़े बजट की विज्ञान फ़िल्में भी न केवल अपना खर्च निकालती हैं ,बल्कि मुनाफ़ा भी कमाती हैं।विज्ञान फ़िल्मों के वहाँ उत्सव होते हैं।बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सब उत्साह से भागीदारी करते हैं। भारत में विज्ञान पर केंद्रित फिल्मों के आयोजन शुरू हुए हैं लेकिन उनकी संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है। सिर्फ़ एक उदाहरण दूंगा। दुनिया से डायनासॉर करोड़ों साल पहले विलुप्त हो गए ,लेकिन हमारे देश के आम दर्शक की दिलचस्पी उसमें तब जगी ,जब जुरासिक पार्क उनके सामने आई। अब कितने लोग यह जानते हैं कि भारत के नर्मदा नदी क्षेत्र और डायनासॉर का कितना क़रीबी रिश्ता है। एक समय ऐसा भी था ,जब ऑस्ट्रेलिया ज़मीनी तौर पर भारत से जुड़ा था और डायनासॉर की अनेक प्रजातियाँ वहाँ विचरण करती थीं। फ़िल्म की बात तो छोड़ दीजिए ,भारत में स्कूली पाठ्यक्रमों में भी इस जानकारी को कहाँ जगह मिली है। बीते दिनों एक बड़े सर वाले डायनासॉर के फॉसिल्स के आधार पर उसका नाम रोजासोरिस नरमेंदिस रखा गया क्योंकि यह नर्मदा घाटी में विचरण करता था।
अंत में इससे अपनी बात का समापन करूँगा कि हमारे नौजवानों में अगर अपने देश के प्रति हम कोई गर्व बोध नहीं पाते तो सिर्फ़ इसलिए कि हम अपनी अतीत की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बारे में उन्हें जानकारी नहीं दे सके। क्या इसे कोई नकार सकता है कि हज़ार साल पहले संस्कृत में लिखे गए हमारे विज्ञान ग्रंथों का अरबी में अनुवाद हुआ था। आख़िर हमारे ये ग्रन्थ कहाँ गए ? इन पर कोई कलम क्यों नहीं चली। एक हज़ार साल पहले के खजुराहो के मंदिर आज भी सीना ताने खड़े हैं और पच्चीस - पचास बरस पहले बनाए गए स्मारक भूकंप में ढह जाते हैं। उस दौर की इंजीनियरिंग के कुछ तो सिद्धांत रहे होंगे ? भोजपुर के मंदिर में आज भी चट्टानों पर मंदिर के नक़्शे उकेरे गए हैं। उस स्थापत्य विज्ञान का आधार हमने खोजने की कोशिश नहीं की। राजा भोज ने हज़ार साल से भी पहले विमान ग्रन्थ लिखा था। उसके प्रमाण हैं। यह ग्रन्थ कहाँ गया ? उन्होंने चिकित्सा विज्ञान के लिए चमत्कार माने जाने वाले ग्रन्थ जल मंगल की रचना की ,जिसमें समस्त बीमारियों का निदान सिर्फ़ जल चिकित्सा के ज़रिए बताया गया था। उस समय यह ग्रन्थ ग़ायब हो गया।अनेक शताब्दियों के बाद अठारहवीं सदी में किसी को जल मंगल के कुछ हिस्से मिले। उन्हें प्रकाशित किया गया। फिर कोई 25 साल पहले इन्हें फिर प्रकाशित किया गया।उसके आधार पर आज लाखों लोग प्राकृतिक चिकित्सा के ज़रिए लाभ ले रहे हैं।क्या कोई इसका खंडन कर सकता है कि शून्य की खोज भारत में ही हुई थी। अगर यह न होती तो आज दुनिया का गणित कहाँ होता। श्री मनोज पटेरिया की पुस्तक में सप्रमाण उल्लेख है ग्रंथों का विवरण है ,जो भारत में सदियों पहले लिखे गए थे।कुछ उदाहरण -चरक संहिता,रस रत्नाकर और धातु क्रिया ऐसे ही वैज्ञानिक ग्रन्थ हैं। आज हमारे कितने बच्चे अपने पूर्वज वैज्ञानिकों के बारे में जानते हैं ? नाम से भले ही परिचित हों लेकिन उनकी ज़िंदगी पर कोई शोध परक काम तो मुझे याद नहीं आता। जो क़ौम अपने पूर्वजों को विस्मृत करने का अपराध करती है ,उसे इतिहास में भी भुला दिया जाता है।