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दो बार चुनाव होने से किसे नफा, किसे नुकसान...


देश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ करवाने की बात फिर उठवाई जा रही है. फिलहाल सारी नहीं, तो कुछ विधानसभाओं और लोकसभा चुनाव साथ-साथ करवाने की सुगबुगाहट तो है ही. इस काम में कई किंतु-परंतु लगे हैं. इस समय कानूनन एक साथ चुनाव संभव नहीं है, कुछ ही घंटे पहले चुनाव आयोग यह बता चुका है. अलबत्ता चुनाव आयोग ने यह सुझाव दिया है कि राजनीतिक तौर पर संविधान में बदलाव कर एक साथ चुनाव का मकसद पूरा किया जा सकता है. नियम-कानून की दिक्कत यह है कि किसी विधानसभा के कार्यकाल को उसके निर्धारित कार्यकाल से छोटा नहीं किया जा सकता और न किसी का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है.

फिर भी अगर किसी की ज़िद हो, तो इसका एक ही तरीका है कि संसद में बैठकर नियम बदले जाएं. मौजूदा हालात ये हैं कि संसद का मॉनसून सत्र खत्म हो चुका है. अब संसद के शीतकालीन सत्र में ही इस मसले पर औपचारिक बहस हो सकती है, और तब तक चार विधानसभाओं के चुनाव इतने पास आ जाएंगे कि कुछ भी तय हो ही नहीं पाएगा. अब यह अलग बात है कि मौजूदा केंद्र सरकार को यह काम इतनी एमरजेंसी वाला लग जाए कि वह एक साथ चुनाव करवाने का कोई और तरीका ढूंढ निकाले. लेकिन मौजूदा सरकार पहले से ही अपने कुछ सनसनीखेज़ और विवादास्पद फैसलों का इतना नफा-नुकसान उठा चुकी है कि अब आम चुनाव से ऐन पहले अपनी पहल पर संविधान में रद्दोबदल जैसा इतना संवेदनशील और जोखिम वाला काम वह शायद ही करे. फिर भी सरकार को कुछ न कुछ पहली-पहली बार करने का जिस तरह चस्का लग गया है, उसमें वह कुछ भी कर सकती है.

मौजूदा सरकार का अपना पांच साल का कार्यकाल अपने अंतिम साल के अंतिम महीनों में है, सो, इस लिहाज़ से देखें तो उसका दांव पर ज़्यादा कुछ नहीं होगा. बहरहाल कुछ हो पाए या न हो पाए, सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने 'एक देश, एक चुनाव' का यह नारा फिलहाल गुंजा तो दिया ही है. लिहाज़ा इस नारे का आगा-पीछा देखने का यही सही वक्त है. इसके नफा-नुकसान की काफी बातें पहले भी हो चुकी हैं. फिर भी एक बात ज़रूर रह गई. वह यह है कि भारत में चुनाव रोज़गार पैदा होने का एक बहुत बड़ा ज़रिया बन गए हैं.

शुरू में एक साथ ही होते थे चुनाव...
सन 1951-52 में देश में पहली बार चुनावी प्रक्रिया विधानसभा और लोकसभा के एक साथ चुनाव से ही शुरू की गई थी. यह काम 1967 तक चलता भी रहा, लेकिन अड़चन तब खड़ी हो गई, जब कुछ विधानसभाएं कार्यकाल पूरा होने से पहले ही भंग होने लगीं. उन विधानसभाओं का भंग होना संविधान के मुताबिक था और संविधान के मुताबिक ही वहां छह महीने के भीतर दोबारा चुनाव करवाने की बाध्यता थी. यह बाध्यता आज भी है. सन 1970 में तो लोकसभा भी पहले ही भंग हो गई, और फिर बाद में तो ऐसा सिलसिला बना कि देश में हर साल कहीं न कहीं चुनाव आने लगे.

आज स्थिति यह बन गई है कि सारे प्रदेशों में अलग-अलग समय पर विधानसभाओं के कार्यकाल खत्म होते हैं. यह सब संविधान के प्रावधानों के मुताबिक ही हो रहा है. बल्कि जहां जैसी ज़रूरत हो, वहां चुनाव कराना संविधान की भावना और उसकी रक्षा के लिए ही हो रहा है. यानी अब अगर 'एक देश, एक चुनाव' का आकर्षक नारा फलीभूत करना है, तो संविधान के प्रावधानों में रद्दोबदल करने पड़ेंगे. सर्वमान्य है कि संविधान से छेड़छाड़ करने से बचा जाना चाहिए. ऐसा न हो सके, इसका इंतज़ाम भी संविधान में है, लेकिन संविधान में बदलाव असंभव नहीं है. लेकिन सबको पता है कि संविधान में बदलाव या संशोधन का काम कितना जटिल है. इसके लिए संसद में बहस वगैरह होती है और हर पहलू गहराई से सोचा जाता है. सोच-विचार की इसी प्रक्रिया में वे जटिलताएं भी खड़ी हो जाती हैं, जिन्हें किसी ने पहले से सोचा तक नहीं होता.

इस नारे के पक्ष में बनाया गया सबसे बड़ा तर्क...
सबसे बड़ा तर्क पैसे बचाने का है. वैसे ऊर्जा और समय की बचत भी एक तर्क है, लेकिन आजकल ऊर्जा और समय को पैसे से ही तोला जाता है. लिहाज़ा मसला सिर्फ पैसे की बचत का बनता है. हालांकि लोकसभा चुनाव पर सरकार के लगभग सिर्फ 3,800 करोड़ ही खर्च होते हैं. इतनी ही या इससे कुछ ज़्यादा रकम विधानसभाओं के चुनाव में लगती होगी. हर साल जनता से 20 लाख करोड़ टैक्स की वसूली कर कई मदों में खर्च करने वाली सरकार के लिए सिर्फ 10,000 करोड़ की रकम कितनी बड़ी है, इसे भी देखा जा सकता है. फिर भी अगर कहीं एक पैसा भी बच सकता है, तो बेशक बचाया जाना चाहिए. मतदाता दो बार की बजाय अगर एक ही बार वोट डालने आएगा, तो सरकार का कुछ खर्चा बच जाएगा. 'एक देश, एक चुनाव' के नारे पर सार्वजनिक बहस शुरू हुई, तो सवाल यह भी उठेगा कि भारतीय लोकतंत्र का मतदाता इसमें अपना क्या हित या अहित देखेगा...?

वैसे चुनाव में खर्च हुआ पैसा जाता कहां है...
चुनाव में पैसे की बर्बादी का तर्क है किसके लिए...? बेशक सरकार का कुछ खर्च बचेगा, लेकिन सरकार जितना खर्च करती हैं, उससे कई गुना तो राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों और समर्थक व्यापारियों, उद्योगपतियों और ठेकेदारों का पैसा चुनाव में खर्च होता है. यह बात लेखे में भले न हो, लेकिन इसे लेकर किसी बहस की गुंजाइश होनी नहीं चाहिए कि चुनाव ही एक अकेला मौका है, जब राजनीतिज्ञों की जेब से पैसा निकलता है. वैसे अभी जो विमर्श है, उसमें चुनाव में काले धन के इस्तेमाल की बातें सार्वजनिक रूप से हो रही हैं. यह कथित काला धन अगर कम खर्च होगा, तो क्या यह बचा पैसा जनता तक पहुंच जाएगा...?

मतदाता इस सवाल पर गौर कर सकता है. एक तर्क यह भी है कि चुनावों में जिन-जिनका जो पैसा खर्च होता है, वह किसी न किसी रूप में पहुंचता जनता के ही पास है. मसलन चुनाव ही वह राजनीतिक पर्व है, जिस दौरान धार्मिक तीज-त्योहारों की तरह मौसमी रोज़गार पैदा होते हैं. खरबों रुपये के बैनर-पोस्टर छापने वालों के उद्योग-धंधे, उन्हें लगाने-टांगने वाले लाखों मजदूर, किराये पर वाहन देने वालों के धंधे, रैली में भीड़ जमा करने का रोज़गार पाने वाले लोग चुनाव के दौरान ही काम-धंधा पाते हैं. इधर बाकायदा चुनाव प्रबंधन कंपनियां बन गई हैं, और ये पचासों कंपनियां, फर्में या पेशेवर लोग हर साल बड़ी संख्या में रोज़गार पैदा कर रहे हैं. सुनने-पढ़ने में यह बात अनैतिक लग सकती है, लेकिन जहां कई हानिकारक उत्पादों या सेवाओं का विरोध सिर्फ इस कारण से न किया जा पाता हो कि उसे बंद करने से बेरोज़गारी बढ़ेगी, तो चुनावों में राजनीतिज्ञों की किफायत के लिए बेरोज़गारी बढ़ाने की बात क्यों नहीं की जा सकती.

राजनीतिकों पर चुनाव के खर्च का बोझ...
क्या यह बात भी सच नहीं है कि हर बड़ा नेता अब चुनाव से डरने लगा है. क्या यह सच नहीं कि बड़ा नेता बाज़रिया राज्यसभा या विधानपरिषद आकर किसी तरह मंत्री बनना चाहता है. इस बढ़ती प्रवृत्ति का कारण क्या राजनीतिज्ञों पर चुनावी खर्च का ही झंझट नहीं है.

अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने का नारा...
अभी छह साल पहले ही हम देशभर में यह नारा गुंजाकर आए हैं कि जनता को यह अधिकार होना चाहिए कि जनता अपने प्रतिनिधि को बर्खास्त कर दे. UPA सरकार के दौरान छेड़े गए आंदोलन के दौरान इसे 'राइट टु रिकॉल' के नाम से जंतर-मंतर से गुंजाया गया था और जनता बड़ी हर्षित हुई थी कि वह किसी को चुनने के बाद उसे बर्खास्त भी कर सकती है. हालांकि UPA सरकार के हारने के बाद यह सिर्फ कल्पना रह गई. अब 'एक देश, एक चुनाव' के नारे के फलीभूत होने को जनता की उस सुखद कल्पना पर तुषारापात क्यों नहीं समझा जाना चाहिए.

जनता की भागीदारी बढ़ाने का पुराना नारा...
वे दिन गुज़रे अभी ज़्यादा समय नहीं हुआ है, जब लोकतंत्र में जनता की भागीदारी बढ़ाने के नारे लगा करते थे. लेकिन वह तरीका कोई नहीं सुझा पाया कि जनता की ज़्यादा भागीदारी सुनिश्चित कैसे हो. हर मुद्दे पर रायशुमारी सरकार के लिए खतरे का काम होता है. हर सरकार चाहती कि उसे जनता के सामने कम से कम बार जाना पड़े. राजनेता ऐसा न कर सकें, इसका समाधान यही है कि जनता के पास अपनी भागीदारी के ज़्यादा से ज़्यादा मौके हों. क्या यह बात सच नहीं है कि हर साल किसी न किसी विधानसभा में चुनाव होने से देश में सत्तारूढ़ दल पर हमेशा ही जवाबदेही बनी रहने लगी है.

केंद्र सरकार की ज़्यादातर योजनाएं आती ही तब हैं, जब किसी विधानसभा का चुनाव पास आ गया हो या लोकसभा चुनाव पास आ गए हों. इस तरह तो सुझाव यह भी दिया जा सकता है कि पांच साल की बजाय चुनाव जितनी जल्दी हों, उससे जनता को हासिल होने के मौके उतने ही ज़्यादा होंगे. लेकिन झंझट या रेडीमेड तर्क चुनाव के खर्चे का ही बताया जाएगा. यह शोध का विषय हो सकता है कि पांच साल में बार-बार चुनाव होने से जनता को केंद्र से कितने लाख करोड़ का पैकेज मिलता है और जनता को इसके एवज़ में कितने करोड़ का चुनावी खर्च उठाना पड़ता है. अनुमान लगाया जाना चाहिए कि अगर बार-बार चुनाव न हों, तो सरकारें किन योजनाओं में ज़्यादा खर्च करेंगी और जनहित की किन योजनाओं पर कम.

अब तक हुआ क्या है इस मामले में...?
यह बात 1983 में उठी थी. यह खयाल 1999 में लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में एक सुझाव के रूप में दिया था. लॉ कमीशन की भाषा कुछ ऐसी थी - जिस तरह पहले एक साथ चुनाव होते थे, हमें उस स्थिति में वापस आना चाहिए. उसके बाद इस सरकार के कार्यकाल में बनाए गए नीति आयोग की दिसंबर, 2015 में एक साथ चुनाव की व्यवहार्यता रिपोर्ट पर स्टैंडिंग कमेटी का कहना था कि एक साथ चुनाव के लिए कोई व्यावहारिक तरीका सोचना चाहिए.

उसके बाद यह सुझाव भी सुनाई दिया कि 2024 में एक साथ चुनाव के बारे में कुछ किया जाना चाहिए. यह भी कहा गया कि उसके पहले बीच में एक चरण 2019 का चुनाव होगा. यानी दो चरणों में इस मकसद को पूरा करने के लिए जो कुछ हुआ, वह शुरुआती सुझाव से ज़्यादा कुछ नहीं था. अब जब लोकसभा चुनाव ऐन सामने आ गए हैं, तो फिर एक बार यह खयाल गूंजता सुनाई दे रहा है. यानी अभी इस मामले में विचार की स्थिति जहां की तहां है. अब अगर बात आगे बढ़ानी है, तो बस यही हो सकता है कि राजनीतिक दलों के बीच बहस शुरू हो और साथ ही साथ जनता के बीच भी बहस का माहौल बने. फैसला होने के पहले बहस का मुद्दा यही होगा कि एक साथ चुनाव से क्या फायदे होंगे, किसे ज़्यादा फायदा होगा, और यह फायदा किसकी कीमत पर होगा...?

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