पालक-शिक्षक के बीच परस्पर बढ़ता अविश्वास समाज के लिए घातक
संदीप कुलश्रेष्ठ
पिछले कुछ वर्षो में यह देखने में आया हैं कि पालक और शिक्षकों के बीच पहले जिस प्रकार आपस में एक विश्वास था , वह विश्वास अब धीरे धीरे टूटने लगा है या इसको यूँ कहें कि दोनों के बीच अविश्वास बढ़ता जा रहा है, जो समाज के लिए निसंदेह घातक कहा जाएगा। एक बार फिर इंदौर के डीपीएस स्कूल बस की दुर्घटना में की गई कारवाई ने यह बात सिद्ध कर दी है । हमें इस पर गंभीरता पूर्वक चिंतन मनन करने की आवश्यकता है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े -
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो वर्ष 2013 के अनुसार हमारे देश में रोड़ एक्सिडेंट में प्रति 4 मिनट में एक व्यक्ति की मौत हो जाती है। अर्थात प्रति घंटे 16 व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु हो जाती है। हमारे देश में प्रति मिनट एक सीरियस रोड़ एक्सिडेंट होता है। हमारे यहाँ प्रतिदिन 1214 एक्सिडेंट होते है। इन एक्सिडेंटों में प्रतिदिन 377 व्यक्तियों की असामयिक मौत हो जाती है। सबसे अधिक 25 प्रतिशत मौतें दो पहिया चालकों की होती है। वे मौके पर ही दम तोड़ देते हैं। 14 साल से कम उम्र के 20 बच्चे प्रतिदिन रोड़ एक्सिडेंट में बेमौत मारे जाते है। यह मोटे-मोटे आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में रोड़ एक्सिडेंट के हालत बहुत खराब है। ऐसे में यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि इन दुर्घटनाओं के जिम्मेदार विभागों और व्यक्तियों पर क्या कारवाई की गई ?
पहले पालक शिक्षक के बीच विश्वास की पराकाष्ठा थी -
हम बात कर रहे थे शिक्षक और पालकों के बीच बढ़ते हुए अविश्वास की। पहले पालक जब स्कूल में अपने बच्चों को भर्ती करने ले जाते थे तो सहज ही शिक्षक से यह कहते थे कि ये बच्चा आपके हवाले है । इसका भविष्य आपके हाथ है। यही नहीं बच्चे के नहीं पढ़ने पर उसे शारीरिक दंड देने की पूरी छूट शिक्षक को देते हुए पालक कहता था कि ’हाड़ हाड़ हमारा , मांस मांस तुम्हारा’ अर्थात बच्चा यदि नहीं पढ़े तो आप उसे शारीरिक दंड भी दे सकते है। एक तरह से शिक्षक के प्रति हमारे समाज में पालकों के मन में विश्वास की यह पराकाष्ठा थी। समय के साथ बदलाव आवश्यक था । उस तरीके से दंड नहीं दिए जाने चाहिए। परंतु विश्वास कायम रहना चाहिए था। शिक्षक पर यह एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वह विद्यार्थी का भविष्य बनाए । इसके लिए अत्यंत आवश्यक है कि शिक्षक पर विश्वास भी किया जाए। आज सुनने में आता है और पालक कहते भी है कि बच्चे अब हमारी नहीं सुनते हैं। इस पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर ऐसा क्यों है ? समाज में शिक्षक ही एकमात्र होता है जो विद्यार्थी को समाज के सभी रिश्तों का आदर करना सिखाता है उसे आदर्श इंसान बनाने की कोशिश करता है। आज हो यह रहा है कि उसी शिक्षक के प्रति अविश्वास का माहौल तैयार कर दिया गया है, जो समाज के लिए हितकर कदापि नहीं कहा जा सकता है।
शिक्षा को व्यवसाय किसने बनाया ? -
राज्य और देश की यह जिम्मेदारी रहती है कि वह अपने राज्य और देश में रहने वाले बच्चे की शिक्षा पर सर्वाधिक ध्यान दें। इसीलिए पूर्व में हायर सेकेंडरी तक पढ़ाई पर विशेष जोर दिया जाता था। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए माकूल सुविधाएं देना प्रत्येक जनतांत्रिक देश और राज्य की जिम्मेदारी बनती है। शुरूआत मे शिक्षा देने का मुख्य दायित्व सरकार पर ही था। धीरे धीरे सरकारी स्कूलों में कई कारणो से शिक्षा के स्तर में गिरावट आई और इसी कारण निजी स्कूलों की शुरूआत हुई। पूर्व में शिक्षा देना सबसे बड़ा पुण्य का काम माना जाता था। कालांतर में शिक्षा व्यवसाय बन गई । आखिर शिक्षा को व्यवसाय बनाने का काम किसने किया ? जो नैतिक जिम्मेदारी सरकार की थी वह धीरे धीरे बदलते बदलते निजी क्षेत्र में चली गई। अब जमाना बदल गया है। चारों और गिरावट हो रही है। इसका असर शिक्षा पर भी पड़ा है। शिक्षा की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता । शिक्षा अब एक व्यवसाय बन गया है किंतु एक सच यह भी है कि आज सरकार से अधिक निजी क्षेत्र की शैक्षणिक संस्थाएं श्रेष्ठ शिक्षण सुविधाएँ उपलब्ध करवा रही है।
शिक्षा देना ही मुख्य उदेश्य हो शैक्षणिक संस्थान का -
शिक्षा में व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते बड़े बड़े शैक्षणिक संस्थानों ने अपने यहाँ मोटी मोटी फीस रखकर बच्चों को शैक्षणिक गतिविधियों के इतर विभिन्न सुविधाएँ देना शुरू की। मोटी फीस लेकर सुविधाएं देने का कार्य संस्थाएं करने लगी । इसमें भी शिक्षण संस्थाओं ने पालकों की सोच का फायदा लिया। क्योंकि अधिकांशतः पालको का मानना है कि कम फीस वाले शिक्षण संस्थान अच्छी शिक्षा नहीं देते है। जबकि ऐसा है नहीं । ऐसे ढेरों शिक्षण संस्थान हैं जहाँ कम फीस व कम सुविधा में विद्यार्थियों को बेहतर इंसान बनाया जाता है। मोटी फीस लेने वाले शैक्षणिक संस्थानों ने शहर से बाहर होने के कारण बच्चों को लाने ले जाने के लिए बसों की सुविधा भी आरंभ की। बस की सुविधा देना शैक्षणिक संस्थानों का उदेश्य नहीं था। यह वैकल्पिक सुविधा थी जो अब अनिवार्य सी हो गई है। इन बसों की सुविधा देने के पीछे उनका मुख्य उदेश्य यह था कि शहर के विभिन्न क्षेत्रों से बच्चे आसानी से शैक्षणिक संस्थानों तक आ जा सके। किंतु यहीं गड़बड़ हो गई। शैक्षणिक संस्थानों का मुख्य उदेश्य बच्चों को शिक्षा देना था। अन्य गतिविधियों की जानकारी देने और बसों की सुविधा जोडने से उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ गई । यहाँ उन्होंने समाज के अन्य संस्थाओं से जुड़ना जरूरी नहीं समझा। परिणाम यह हुआ कि स्कूल वालों ने बसें तो लगा ली किंतु उसके रखरखाव की जिम्मेदारी पर विशेष ध्यान नहीं दे पाए। यहाँ परिवहन विभाग की जिम्मेदारी आती है । वह भी सरकार और समाज का ही एक हिस्सा है। उन्हें स्कूल बसों व वाहनों के पूरे मैंटेनेंस की जिम्मेदारी को वहन करना चाहिए था। जो उन्होंने नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि जब जब डीपीएस जैसे एक्सिडेंट होते है तब कुछ समय तक शासन प्रशासन में हड़कंप मचता है और फिर बात ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है। इन सब के बीच में कई शैक्षणिक संस्थाएँ ऐसी भी है जो निस्वार्थ भावना से उच्च मापदंडों का पालन करते हुए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देकर बच्चों का भविष्य निर्माण कर रही है।
पालक शिक्षक के बीच गंभीर चिंतन मनन की आवश्यकता -
इंदौर के डीपीएस स्कूल की बस का एक्सिडेंट होना एक दुखद हादसा है। इसमें चार मासूमों की जान जाना अत्यंत दुखद है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता । इसमें अवश्य तौर पर शैक्षणिक संस्थानों की जिम्मेदारी है परंतु यहाँ यह विचार भी आवश्यक है कि सड़कों का रखरखाव, यातायात व्यवस्था, वाहनों का फिटनेस ठीक है या नहीं, इसके लिए सरकार के कुछ विभागों की वैधानिक जिम्मेदारी है। हादसे में प्राचार्य को तो गिरफ्तार किया गया है पर इन सभी बातों के जिम्मेदार विभागों के अधिकारियों पर जितनी कड़ी कारवाई होना थी वो की गई क्या ? यहाँ हमें यह भी विचार करने की जरूरत है कि बस हादसे में डीपीएस स्कूल के प्राचार्य की गिरफ्तारी क्या उचित है ? स्कूल के शिक्षक और प्राचार्य की जिम्मेदारी मूल रूप से शैक्षणिक गतिविधियों और अन्य व्यवस्थाओं तक सीमित रहती है। डीपीएस स्कूल के प्राचार्य की गिरफ्तारी से यह सिद्ध होता है कि पालक शिक्षक के बीच अब विश्वास खत्म सा होता जा रहा है। दिनों दिन दोनों के बीच अविश्वास बढ़ता जा रहा है। जो समाज के लिए कदापि उचित नहीं कहा जा सकता । इसके लिए समाज में चिंतन , मनन और मंथन की आवश्यकता है। समाज के सभी वर्ग, पालकगण, शिक्षा शास्त्री, जनप्रतिनिधि ऐसी हो रही घटनाओं पर आगे आए ,विश्लेषण करें, शिक्षक और पालकों के बीच में बढ़ती जा रही अविश्वास की खाई को पाटने का प्रयास करें। क्योंकि पालक और शिक्षक मिलकर ही एक विद्यार्थी को तराशते हैं। ऐसा तराशा हुआ विद्यार्थी ही परिवार का नाम रोशन करता है और देश व समाज का जिम्मेदार नागरिक बनता है।
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