बढ़ती दुर्घटनाओं की नृशंस चुनौतियां
- ललित गर्ग-
घने कोहरे के कारण आगरा एक्सप्रेस-वे पर एक और हादसा हुआ। जिसमें छह लोगों की जान चली गई। गलत साइड से आ रही ट्रक सामने से आ रही कार से भिड़ गई। हादसे में मरने वाले सभी एक ही परिवार के सदस्य थे। तीन लोगों की हालत बेहद गंभीर है। एक और हादसा मुम्बई के पब में हुआ, जहां पन्द्रह लोगों की जान चली गयी है। ‘दुर्घटना’ एक ऐसा शब्द है जिसे पढ़ते ही कुछ दृश्य आंखांे के सामने आ जाते हैं, जो भयावह होते हैं, त्रासद होते हैं, डरावने होते हैं। किस तरह जन्म दिन की पार्टी मरण दिन में बदल जाती है और किस तरह नशा नाश का कारण बन जाता है-हादसों की जीवनशैली में यह आम होता जा रहा है। अगर पब में मौजूद लोगों पर शराब और सेल्फी का नशा सवार न होता तो बहुत लोगों की जान बचायी जा सकती थी। विडम्बना तो देखिये कि वहां कुछ लोग ऐसे भी थे जो बाहर निकलने की बजाय घटना का विडियो बना रहे थे। इस कारण लोगों को बाहर निकालने में देरी हुई और नुकसान बढ़ता गया। बात चाहे पब हादसे की हो या सड़क दुर्घटनाओं की, रेल्वे का पटरी से उतरना हो या हवाई सफर में हवा हो जाना, मिलावट की त्रासदी हो या प्रदूषण की महामारी - जीवन का हर पल दुर्घटनाओं का शिकार हो रहा है। दुर्घटनाओं को लेकर आम आदमी में संवेदनहीनता की काली छाया का पसरना हो या सरकार की आंखों पर काली पट्टी का बंधना-हर स्थिति में मनुष्य जीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता पर सन्नाटा पसर रहा है। इन बढ़ती दुर्घटनाओं की नृशंस चुनौतियों का क्या अंत है? बहुत कठिन है दुर्घटनाओं की उफनती नदी में जीवनरूपी नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना, यह चुनौती सरकार के सम्मुख तो है ही, आम जनता भी इससे बच नहीं सकती।
आधुनिकता एवं विकास की यह कैसी विडम्बना है कि रोज के समाचारों में दुर्घटना शब्द इतना आम हो गया है कि लोगों के हृदय पर कोई असर ही नहीं पैदा करता, टी.वी.-रेडियो के समाचार वाचक भी बिना भावभंगिमा बदले वैसे ही पढ़ते हैं जैसे खुशी के समाचार पढ़ते हैं, बिना अर्द्धविराम और बिना पूर्णविराम के। हम प्रायः सुनते हैं और पढ़ते हैं, रोज कहीं-न-कहीं अनेक छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं होती हैं। रेल, बस, ट्रक, जीप, कार आदि की। जैसे-जैसे जीवन तेज़ होता जा रहा है, सुरक्षा उतनी ही कम हो रही है, मरने वालों की संख्या बढ़ रही है। सरकार और सरकारी विभाग जितनी तत्परता मुआवजा देने में और जांच समिति बनाने में दिखाते हैं, अगर सुरक्षा प्रबंधों में इतनी तत्परता दिखाएं तो दुर्घटनाओं की संख्या घट सकती है। आवश्यक है ड्राइविंग लाइसेंस देने की प्रक्रिया में सुधार हो, शराब पीकर चलाने वालों के लाइसेंस रद्द हों, ट्रैफिक नियमों की चालकांे को जानकारी हो तथा तेज लाइटों का उपयोग बन्द हो। ड्राइविंग के दौरान मोबाइल का प्रयोग वर्जित हो। हर दुर्घटना में गलती आदमी की ही होती है पर कारण बना दिया जाता हैं पुर्जों व उपकरणों की खराबी को। ”बे्रक फेल हो गए“ यह एक कारण देकर कानून की धारा बदल देते हैं और बच जाते हैं।
सड़क दुर्घटनाओं ने कहर बरपा रखा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2009 में सड़क सुरक्षा पर अपनी पहली वैश्विक स्थिति रिपोर्ट में सड़क दुर्घटनाओं की दुनिया भर में ‘सबसे बड़े कातिल’ के रूप में पहचान की थी। भारत में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में 78.7 प्रतिशत हादसे चालकों की लापरवाही के कारण होते हैं। इसकी एक प्रमुख वजह शराब व अन्य मादक पदार्थों का सेवन कर वाहन चलाना है। ‘कम्यूनिटी अगेन्स्ट ड्रंकन ड्राइव’ (कैड) द्वारा सितंबर से दिसंबर 2017 के बीच कराए गए ताजा सर्वे में यह बात सामने आई है कि दिल्ली-एनसीआर के लगभग 55.6 प्रतिशत ड्राइवर शराब पीकर गाड़ी चलाते हैं। राजमार्गों को तेज रफ्तार वाले वाहनों के अनुकूल बनाने पर जितना जोर दिया जाता है उतना जोर फौरन आपातकालीन सेवाएं उपलब्ध कराने पर दिया जाता तो स्थिति कुछ और होती। विडंबना यह है कि जहां हमें पश्चिमी देशों से कुछ सीखना चाहिए वहां हम आंखें मूंद लेते हैं और पश्चिम की जिन चीजों की हमें जरूरत नहीं है उन्हें सिर्फ इसलिए अपना रहे हैं कि हम भी आधुनिक कहला सकें। एक आकलन के मुताबिक आपराधिक घटनाओं की तुलना में पांच गुना अधिक लोगों की मौत सड़क हादसों में होती है। कहीं बदहाल सड़कों के कारण तो कहीं अधिक सुविधापूर्ण अत्याधुनिक चिकनी सड़कों पर तेज रफ्तार अनियंत्रित वाहनों के कारण ये हादसे होते हैं। दुनिया भर में सड़क हादसों में बारह लाख लोगों की प्रतिवर्ष मौत हो जाती है। इन हादसों से करीब पांच करोड़ लोग प्रभावित होते हैं। भारत में 2015 में 2014 की तुलना में सड़क हादसों में मरने वालों की संख्या में पांच प्रतिशत की वृद्धि हुई। बात केवल राजमार्गों की ही नहीं है, गांवों, शहरों एवं महानगरों में सड़क हादसों पर कई बड़े सवाल खड़े कर दिये हैं। सरकार की नाकामी इसमें प्रमुख है।
ट्रैफिक व्यवस्था कुछ अंशों मंे महानगरों को छोड़कर कहीं पर भी पर्याप्त व प्रभावी नहीं है। पुलिस ”व्यक्ति“ की सुरक्षा में तैनात रहती है ”जनता“ की सुरक्षा में नहीं। प्रायः दुर्घटनाओं में एक तरफ भारी वाहन होता है। छोटे वाहन आपस में बहुत कम टकराते हैं। भारी वाहनों के चलन को रोका नहीं जा सकता। वे राष्ट्र की वस्तु आपूर्ति का प्रमुख साधन हैं। अगर ये नहीं हों तो रेल से दवा भी नहीं पहुँचाई जा सकती। सड़कें इनकी रोटी हैं तथा राष्ट्र को रोटी ये पहुंचाते हैं। ये चलंेगे पर इनके लिए भी कुछ नियमों की पालना आवश्यक है।
हजारों वाहन प्रतिमास सड़कों पर नए आ रहे हैं, भीड़ बढ़ रही है, रोज किसी न किसी को निगलनेवाली ”रेड लाइनें“ बढ़ रही हंै। दुर्घटना में मरने वालांे की तो गिनती हो जाती है पर वाहनों से निकलने वाले जहरीले धुएँ से प्रतिदिन मौत की ओर बढ़ने वालों की गिनती असंख्य है। वाहनों में सुधार हो रहा है पर सड़कों और चालकों में कोई सुधार नहीं। सन् 2020 तक वाहनों का उत्पादन और मांग दोगुने हो जाएंगे। सड़कें दुगुनी नहीं होंगी। रेलों की पटरियां दुगुनी नहीं होंगी। अतः यातायात-अनुशासन बहुत जरूरी है।
नया भारत निर्मित करने, औद्योगिक विकास और पूंजी निवेश के लिए सरकार सभी प्रकार के गति-अवरोधक हटा रही है। लगता है सड़कों पर भी गति अवरोध हटा रही है। कोई चाहिए जो नियमों की सख्ती से पालना करवा के निर्दोषों को मौत के मुंह से बचा सके। सड़क दुर्घटनाओं पर नियंत्रण के लिये जरूरी है कि सड़क सुरक्षा के लिये व्यापक कानूनी ढांचे को बनाना। 1988 में बने मोटर वाहन अधिनियम का व्यावहारिकता से परे होना भी दुर्घटनाओं का बड़ा कारण है। पिछले तीन दशकों में सड़क परिवहन में आए बदलाव के अनुरूप मोटर अधिनियम में व्यापक बदलाव की दरकार है। न मौजूदा न पूर्ववर्ती सरकारें सड़क दुर्घटनाओं को नियंत्रित करने की दिशा में गंभीर नजर्र आइं। इसी का नतीजा है कि कोई सुस्पष्ट प्रणाली हमारे सामने नहीं है। अगर सरकार नए वाहनों को लाइसेंस देना बंद नहीं कर सकती तो कम से कम राजमार्गों पर हर चालीस-पचास किलोमीटर की दूरी पर एक ट्रॉमा सेंटर तो खोल ही सकती है ताकि इन हादसों के शिकार लोगों को समय पर प्राथमिक उपचार मिल सके।
सड़क हादसों में मरने वालों की बढ़ती संख्या ने आज मानो एक महामारी का रूप ले लिया है। इस बारे में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकडे दिल दहलाने वाले हैं। पिछले साल सड़क दुर्घटनाओं में औसतन हर घंटे सोलह लोग मारे गए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया के अट्ठाईस देशों में ही सड़क हादसों पर नियंत्रण की दृष्टि से बनाए गए कानूनों का कड़ाई से पालन होता है। बात चाहे पब की हो या रेल की, प्रदूषण की हो या खाद्य पदार्थों में मिलावट की-हमें हादसों की स्थितियों पर नियंत्रण के ठोस उपाय करने ही होंगे। तेजी से बढ़ता हादसों का हिंसक एवं डरावना दौर किसी एक प्रान्त या व्यक्ति का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी किया है। नये साल में इंसानों के जीवन पर मंडरा रहे मौत के तरह-तरह की डरावने हादसों एवं दुर्घटनाओं पर काबू पाने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है।