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ईद इंसानियत का पैगाम देता है



 ललित गर्ग 

भारत जहां साम्प्रदायिक सौहार्द एवं आपसी सद्भावना के कारण दुनिया में एक अलग पहचान बनाये हुए है वहीं यहां के पर्व-त्यौहारों की समृद्ध परम्परा,  धर्म-समन्वय एवं एकता भी उसकी स्वतंत्र पहचान का बड़ा कारण है। इन त्योहारों में इस देश की सांस्कृतिक विविधता झलकती है। यहां बहुत-सी कौमें एवं जातियां अपने-अपने पर्व-त्योहारों तथा रीति-रिवाजों के साथ आगे बढ़ी हैं। प्रत्येक पर्व-त्यौहार के पीछे परंपरागत लोकमान्यताएं एवं कल्याणकारी संदेश निहित है। इन पर्व-त्यौहारों की श्रृंखला में मुसलमानों के प्रमुख त्यौहार ईद का विशेष महत्व है। हिन्दुओं में जो स्थान ‘दीपावली’ का है, ईसाइयों में ‘क्रिसमस’ का है, वही स्थान मुसलमानों में ईद का है। यह त्योहार रमजान के महीने की त्याग, तपस्या और व्रत के उपरांत आता है । यह प्रेम और भाईचारे की भावना उत्पन्न करनेवाला पर्व है । इस दिन चारों ओर खुशी और मुस्कान छाई रहती है । हर कोई ईद मनाकर स्वयं को सौभाग्यशाली समझता है। 
इस वर्ष ईद-उल-फितर 26 जून 2017 को मनाया जाएगा। इस्लामी कैलेंडर के नौवें महीने को रमजान का महीना कहते हैं और इस महीने में अल्लाह के सभी बंदे रोजे रखते हैं। इसके बाद दसवें महीने की ‘शव्वाल रात’ पहली चाँद रात में ईद-उल-फितर मनाया जाता है। इस रात चाँद को देखने के बाद ही ईद-उल-फितर का ऐलान किया जाता है। ईद-उल-फितर ऐसा त्यौहार है जो सभी ओर इंसानियत की बात करता है, सबको बराबर समझने और प्रेम करने की बात की राह दिखाता है। इस दिन सबको एक समान समझना चाहिए और गरीबों को खुशियाँ देनी चाहिए। कहते है कि रमजान के इस महीने में जो नेकी करेगा और रोजा के दौरान अपने दिल को साफ-पाक रखता है, नफरत, द्वेष एवं भेदभाव नहीं रखता, मन और कर्म को पवित्र रखता है, अल्लाह उसे खुशियां जरूर देता है। रमजान महीने में रोजे रखना हर मुसलमान के लिए एक फर्ज कहा गया है। भूखा-प्यासा रहने के कारण इंसान में किसी भी प्रकार के लालच से दूर रहने और सही रास्ते पर चलने की हिम्मत मिलती है।
ईद का आगमन मनुष्य के जीवन को आनंद और उल्लास से आप्लावित कर देता है। ईद लोगों में बेपनाह खुशियां बांटती है और आपसी मोहब्बत का पैगाम देती है। ईद का मतलब है एक ऐसी खुशी जो बार-बार हमारे जीवन में आती है और उसे बांटकर बहुगुणित किया जाता है। गरीब से गरीब आदमी भी ईद को पूरे उत्साह से मनाता है। दुःख और पीड़ा पीछे छूट जाती है । अमीर और गरीब का अंतर मिट चुका है। खुदा के दरबार में सब एक हैं, अल्लाह की रहमत हर एक पर बरसती है। अमीर खुले हाथों दान देते हैं। यह कुरान का निर्देश है कि ईद के दिन कोई दुःखी न रहे। यदि पड़ोसी दुःख में है तो उसकी मदद करो। यदि कोई असहाय है तो उसकी सहायता करो। यही धर्म है, यही मानवता है, यही ईद मनाने का हार्द है। यह खुशी वह मानसिक स्थिति है जो किसी संयोग शृंगार के फलस्वरूप मनुष्य को प्राप्त होती है।
मुसलमान एक वर्ष में दो ईदें मनाते हैं। पहली ईद रमजान के रोजों की समाप्ति के अगले दिन मनायी जाती है जिसे ईद-उल-फित्र कहते हैं और दूसरी हजरत इब्राहिम और हजरत इस्माइल द्वारा दिए गए महान बलिदानों की स्मृति में मनायी जाती है अर्थात् ‘इर्द-उल-अजीहा।’ ईदुल फित्र अरबी भाषा का शब्द है जिसका तात्पर्य अफतारी और फित्रे से है, जो हर मुसलमान पर वाजिब है। सिर्फ अच्छे वस्त्र धारण करना और अच्छे पकवानों का सेवन करना ही ईद की प्रसन्नता नहीं बल्कि इसमें यह संदेश भी निहित है कि यदि खुशी प्राप्त करना चाहते हो तो इसका केवल यही उपाय है कि प्रभु को प्रसन्न कर लो। वह प्रसन्न हो गया तो फिर तुम्हारा हर दिन ईद ही ईद है।
ईद हमारे देश ही नहीं दुनिया का एक विशिष्ट धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्यौहार है। अध्यात्म का अर्थ है मनुष्य का खुदा से संबंधित होना है या स्वयं का स्वयं के साथ संबंधित होना। इसलिए ईद मानव का खुदा से एवं स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का पर्व है। यह त्यौहार परोपकार एवं परमार्थ की प्रेरणा का विलक्षण अवसर भी है, खुदा तभी प्रसन्न होता है जब उसके जरूरतमद बन्दों की खिदमत की जाये, सेवा एवं सहयोग के उपक्रम किये जाये। असल में ईद बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्न है, इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। आनंद और उल्लास के इस सबसे मुखर त्योहार का उद्देश्य मानव को मानव से जोड़ना है। मैंने बचपन से देखा कि हिन्दुओं का दीपावली और मुसलमानों की ईद- दोनों ही पर्व-त्यौहार इंसानियत से जुडे़ हंै। अजमेर एवं लाडनूं की हिन्दू-मुस्लिम सांझा संस्कृति में रहने के कारण दोनों ही त्यौहारों का महत्व मैंने गहराई से समझा और जीया है। मैंने अपने इर्द-गिर्द महसूस किया कि सद्भाव और समन्वय का अर्थ है- मतभेद रहते हुए भी मनभेद न रहे, अनेकता में एकता रहे। आचार्य तुलसी के समन्वयकारी एवं मानव कल्याणकारी कार्यक्रमोें से जुड़े रहने के कारण हमेशा जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा, प्रांत एवं धर्मगत संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव-धर्म को ही अपने इर्द-गिर्द देखा और महसूस किया। 
इस्लाम का बुनियादी उद्देश्य व्यक्तित्व का निर्माण है और इर्द का त्यौहार इसी के लिये बना है। धार्मिकता के साथ नैतिकता और इंसानियत की शिक्षा देने का यह विशिष्ट अवसर है। इसके लिए एक महीने का प्रशिक्षण कोर्स रखा गया है जिसका नाम रमजान है। इस प्रशिक्षण काल में हर व्यक्ति अपने जीवन में उन्नत मूल्यों की स्थापना का प्रयत्न करता है। इस्लाम के अनुयायी इस कोर्स के बाद साल के बाकी 11 महीनों में इसी अनुशासन का पालन कर ईश्वर के बताये रास्ते पर चलते हुए अपनी जिंदगी सार्थक एवं सफल बनाते हैं। 
रोजा वास्तव में अपने गुनाहों से मुक्त होने, उससे तौबा करने, उससे डरने और मन व हृदय को शांति एवं पवित्रता देने वाला है। रोजा रखने से उसके अंदर संयम पैदा होता है, पवित्रता का अवतरण होता है और मनोकामनाओं पर काबू पाने की शक्ति पैदा होती है। एक तरह से त्याग एवं संयममय जीवन की राह पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। इस लिहाज से यह रहमतों और बरकतों का महीना है। हदीस शरीफ में लिखा है कि आम दिनों के मुकाबले इस महीने 70 गुना पुण्य बढ़ा दिया जाता है और यदि कोई व्यक्ति दिल में नेक काम का इरादा करे और किसी कारण वह काम को न कर सके तब भी उसके नाम पुण्य लिख दिया जाता है। बुराई का मामला इससे अलग है जब तक वह व्यक्ति बुराई न करे उस समय तक उसके नाम गुनाह नहीं लिखा जाता। 
ईद जीवन का दर्शन देती है। स्वस्थ और उन्नत जीवन-शैली का सम्पादन करती है। ईद से हमारे आसपास अच्छे लोगों और अच्छे विचारों का परिवेश बनता है। यहां की उत्सवप्रियता में भी जड़ता नहीं, विवेक जागता है। हर इंसान के भीतर जीने का सही अर्थ विकसित होता है। ईद और उनसे जुड़ा दर्शन संसार की बीहड़ वीथियों के बीच मंजिल के सही रास्ते तलाशने की दृष्टि देता है। जीवन की दिशा और दर्शन का मूल्यांकन इसी से जुड़ता है। मेरी दृष्टि में बीज से बरगद बनने और दीये से दीया जलने की परम्परा का यही आधार है। 
ईद के बाद प्रत्येक मुसलमान दूसरे व्यक्ति से गले मिलता है भले वह उसे न जानता हो। इस प्रकार ऊंच-नीच, जात-पांत के सभी भेद और रंग या नस्ल की सभी सीमाएं इस अवसर पर मिट जाती है और परस्पर मिलने वाले उस समय केवल इंसान ही होते हैं। बराबर होकर खुशी देने और महसूस करने का यही संदेश है जो ईद के माध्यम से समस्त संसार को दिया जाता है। इसीलिए हजरत मोहम्मद ने यह उपदेश दिया है कि जो लोग साधन संपन्न होते हैं उनका कर्तव्य है कि वे निर्धनों और कमजोरों की यथासंभव सहायता करें। उनकी खुशी निरर्थक है यदि उनके सामने कोई कमजोर निर्धन है जिसके पास खाने-पहनने को कुछ न हो।
इसलिए ईद की खुशियों मंे उन बेबस, लाचार, मजबूर लोगों को भी सम्मिलित करना जरूरी है जो इसमें शामिल होने की हैसियत नहीं रखते। इसीलिए इस्लाम में हर मुसलमान पर सदका ए फित्र वाजिब है। इसका मतलब है कि अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए रख कर बाकी साढ़े बावन तोले चांदी या उतने ही रुपये या वह भी न हों तो पौने दो किलो अनाज ही या फिर अपनी चल पूंजी का ढ़ाई प्रतिशत हिस्सा दान के रूप में जरूरतमंदों में बांट कर ईद की खुशियों में उनके बराबर के भागीदार बनें। एक संतुलित एवं स्वस्थ समाज निर्माण यह एक आदर्श प्रकल्प है। इसलिए ईद के दिन प्रत्येक मुसलमान ईद की नमाज पढ़ने के लिए ईदगाहों में एकत्रित होते हैं, आपस में गले मिलते हैं, अपने मित्रों-संबंधियों से मिलने जाते हैं, दान करते हैं और अपने पूर्वजों की मजारों पर जाकर प्रार्थना करते हैं। ईद का सन्देश समतामूलक मानव समाज की रचना है। यही कारण है कि हाशिये पर खड़े दरिद्र और दीन-दुःखी, गरीब-लाचार लोगों के दुख-दर्द को समझें और अपनी कोशिशों से उनके चेहरों पर मुस्कान लाएं-तभी हमें ईद की वास्तविक खुशियां मिलेंगी।

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