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श्रेष्ठ गुणों से ही सुंदर चरित्र निर्माण


 

गुरु ही आतंरिक सुख के प्रदाता

विपरीत परिस्थितियों में होता है शिष्य का निर्माण

गुरु को समर्पित शिष्य बनता है कुंदन

परस्पर मिलकर हो सकता है वसुधैव कुटुम्बकम का स्वप्न साकार

शिष्यत्व की साधना में अहं का टूटना जरुरी

 
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के दिल्ली स्थित दिव्य धाम आश्रम में मासिक सत्संग कार्यक्रम का भव्य आयोजन किया गया! जिसमें गुरुदेव सर्व श्री आशुतोष महाराज जी के शिष्य स्वामी नरेन्द्रानंद जी ने आई हुई संगत के समक्ष महापुरुषों के विचारों को रखते हुए कहा कि परिस्थितियाँ एक शिष्य को पथ से भटकाने नहीं अपितु निखारने आती है, दृढ़ता से गुरु मार्ग पर चलाने आती है! क्योंकि गुरु शिष्य को वह परम अवस्था प्रदान करना चाहते है, जहाँ आनंद ही आनंद है, आतंरिक सुख का अनुभव है, जहाँ ईश्वर का परम धाम है! संत मीराबाई जी कहती है:-
जहाँ बैठावे तित ही बैठूँ, बेचे तो बिक जाऊँ|

मीरा के प्रभु गिरधारी नागर, बार-बार बलि जाऊँ|

 

कहने का भाव कि एक शिष्य तभी कुंदन बन सकता है जब उसने अपने आप को पूर्ण रूप से गुरु को अर्पित कर दिया है, जहाँ गुरु उसे ले कर चले वह दृढ़ता से बढ़े, जहाँ उसे रखे, जिस हाल में रखे वह संशय रहित हो, गुरु कार्य में अपना सहयोग दे, गुरु से केवल भक्ति माँगे, अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ने की शक्ति माँगे, तभी एक शिष्य पूर्ण रूप से शिष्यत्व की कसौटी पर खरा उतर सकता है!

 

पूर्ण गुरु कि छत्रछाया में संगठित हुए शिष्य ही विश्व को रोगमुक्त करने का सामर्थ्य रखते हैं| जब वे परस्पर मिलकर चलते हैं, तब ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, ’विश्व-शांति’ जैसे स्वप्न साकार हो पाते हैं| श्रेष्ठ गुण प्राप्त करके सुंदर चरित्र निर्माण किया जा सकता है एवं इससे श्रेष्ठ समाज की स्थापना की जा सकती है|
इसी प्रकार, जब गुरु रुपी वैद्य की शरणागत होने पर भी एक शिष्य के जीवन में दुःख आएँ, तो उसे समझ जाना चाहिए कि परिस्थितियाँ उसे मजबूत बनाने आती है| वह गुरु का हाथ न झटके, उसका द्वार न छोड़े| वर्ना संस्कारों कि यह मैल सारे शरीर में फ़ैल जाएगी और जन्म- जन्मान्तरों का रोग बन जाएगी|
अतः गुरुभक्तों, हम हर पल यही प्रार्थना करें कि उनके चरणों में हमारी प्रीति चट्टान जैसी स्थिर रहे| विरोध की आंधियाँ उसे डिगा न सकें| गुरु के एक-एक वचन पर इतना विश्वास हो कि उसकी पूर्ति के लिए अपने दिन-रात एक कर दें!
बूंद मिटती है, तभी नदी बन पाती है| नदी मिटती है तभी सागर रूप हो पाती है| इसलिए शिष्यत्व की साधना में अहं का टूटना, बिखरना, मिटना अत्यंत ज़रूरी है|  

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