वन में जाकर राम, ‘बन’ गए राम
भोपाल। हे माते, समय पड़ने पर माता पुत्र को दंडित करती है, लेकिन इस त्रिकाल में पुत्र कभी माता को दंडित नहीं करता। प्रिय भरत,अपनी मां का कभी अपमान मत करना। एक घटना के पीछे अनेक कारण होते हैं। मां तो निमित्त मात्र है। क्या इस घटना के पीछे हमारे कर्मों का उदय नहीं है? जिसको गुरुकुल की सही शिक्षा प्राप्त नहीं हुई हो,वही माता कैकई को अपराधी मानेगा। जीवन में आगे भी बहुत कुछ होने वाला है। मेरा प्रस्थान भविष्य के लिए आवश्यक है। यह समय आने पर सभी को समझ आएगा। कुल मिलाकर अपनी मर्यादा और त्याग का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत कर राम वन गए,इसलिए राम 'बन'गए।
यह सद्विचार रविवार को इकबाल मैदान में चल रही रामकथा के पांचवे दिन जैन संत ध्यानसागर महाराज ने धर्मसभा में व्यक्त किए। संतश्री ने बताया कि राम,लक्ष्मण और सीताजी के वन की ओर प्रस्थान करने से अयोध्या में अजीब सा सूनापन छा जाता है। भरतजी माता कैकई,साध-संत और अनेक अयोध्यावासी भगवान राम को अयोध्या वापस लौटने के लिए मनाने वन पहुंचते हैं। उन्हें दूर से आता देखकर लक्ष्मण के मन में कई कुविचार आते हैं। वह रामजी को अपने विचारों से अवगत कराते हैं,तो श्रीराम कहते हैं कि मेरा भरत ऐसा नहीं है।
हे राम भावुकता में त्रुटि हुई है,तुम मुझे दंडित करो
अयोध्यावासियों को देखकर राम माताओं,गुरुजनों का अभिवादन करते हैं। भरत बताते हैं कि पिताश्री वहां चले गए हैं, जहां से लौटकर कोई भी वापस नहीं आता है। माता कैकई कहती है, हे राम नारी होने के कारण भावुकता में बहकर जो त्रुटि की है। उसके कारण अत्यंत लज्जित हूं। मुझे दंडित करो। राम कहते हैं, हे मां समय पड़ने पर माता,पुत्र को दंडित करती है, लेकिन इस त्रिकाल में कभी पुत्र कभी माता को दंडित नहीं करता। कैकई ने कहा कि तुम मुझे अभी भी वह सम्मान दे रहे हो। तुम्हारा मन कितना निर्मल है। मेरी बात मान लो लौट चलो,मैं तुम्हें उस अनुबंध से भी मुक्त करती हूं। अयोध्या लौट चलो।
पिता का अपराधी बन जाऊंगा
माता कैकई की बातों को सुनकर श्रीराम ने कहा माते, आपका आदेश शिरोधार्य है,लेकिन पिता के वचन का क्या होगा। पिता तो अब नहीं हैं। क्या यह सूर्य वंश की परंपरा पर कलंक न होगा? हे माता मैं आपके कहने पर लौटकर पिता का अपराधी बन जाऊंगा। पिता भरत को राज्य दे चुके हैं। अब राज्य मेरे अधिकार में नहीं है। क्या आप चाहती हैं,कि ऐसा अपराध हो।
आप राजा बनकर मुझे जिता दो
रुंधे गले से भरतजी,राम को गुरुकुल के दिनों की याद दिलाते हैं,कि किस तरह आप बड़प्पन दिखाते हुए खेल में मुझे जिताने के लिए खुद हार जाते थे। उसी प्रकार आज मैं हारा हुआ हूं। बुद्धि नहीं है,आज भी आप मुझे जिता दो। राजा बनकर मैं हार जाऊंगा। आप राजा बनकर मुझे जिता दो। संत श्री बताते हैं,कि महापुरुषों के साथ बुद्धि के साथ हृदय भी होता है। हृदय और बुद्धि का संतुलन सिर्फ महापुरुषों में ही होता है। भरत मनुहार करते हैं और राम उन्हें कर्तव्यनिष्ठा का उपदेश देते हैं। क्षत्रिय के जीवन में ऐसे दिन आते हैं,जब भावनाओं,कर्तव्य में से एक का चुनाव करना होता है। ऐसे में दिल पर पत्थर रखकर कर्तव्य निष्ठा का चुनाव करना। भरत तुम अयोध्या का राजपाट संभालों। सभी को यथा योग्य सम्मान देकर श्रीराम उन्हें वापस अयोध्या के लिए विदा कर देते हैं। संत श्री ने कहा कि संत योग सागर महाराज ने इसलिए कहा कि दुर्लभ त्याग के कारण राम वन गए,इसलिए राम 'बन'गए। रामकथा में वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक, कथाकार पं.अजय याज्ञिक, प्रमोद हिमांशु सहित अनेक लोग उपस्थित थे।